गुरुवार, 21 जून 2012

चरित्र पर फैसला सुनाना हम अपना फर्ज समझते हैं



बेटी पर किसी ने फिकरे कसे
बेटी नज़रबंद
फिक्र स्वतंत्र !
बेटी ने किसी से प्यार किया
उद्दंड, बदचलन कहलाई !
बेटी ने अन्याय का विरोध किया
माँ बाप के पालनपोषण पर ऊँगली उठाई !
बेटी ने बेटी को जन्म दिया
- मनहूस कहलाई !
बहू बनी बेटी मर गई
दूसरी बेटी बहू बन गई ...
बेटी जो विधवा हुई
डायन कहलाई
इस समाज की दुहाई
कानून की दुहाई
लक्ष्मी कहलाने के लिए
एक महिला दिवस पाने के लिए
बेटी की पहचान मिटाई ....

रश्मि प्रभा


चरित्र पर फैसला सुनाना हम अपना फर्ज समझते हैं


मर्यादा पुरुषोत्तम राम ने भी सीता को अग्नि में समर्पित कर आत्मसम्मान की रक्षा की थी हमारे समाज में यह आज भी बुरा नहीं है।
चरित्रहीनता पर फैसला सुनाना हम अपना फर्ज समझते हैं।ओगड़सिंह तो बेटी का सर काटकर ही थाने ले गया

जयवंती और राजेश की आंखों में
बेटी की विदाई की नमी के साथ-साथ
चमक भी थी...
अपने हिसाब से अपनी बेटी को ब्याह देने की चमक।
उनकी बातों से झलक रहा था
कि वे उनके संस्कार ही थे जो बेटी कहीं 'भटकी' नहीं।
करीब के रिश्तेदार भी
उन्हें कहने से नहीं चूक रहे थे कि
वाह, जयवंती तूने तो गंगा नहा ली।
वरना आजकल के बच्चे मां-बाप को
नाकों चने चबवा देते हैं।
ये निर्मला को ही देख
इसकी बेटी ने क्या कम तांडव किए थे
तू तो बहुत भाग्यशाली है।......
दरअसल निर्मला की बेटी ने
मां-बाप के तय रिश्ते से इनकार कर दिया था।
नहीं मानने पर खाना-पीना छोड़,
उदास बंद कमरों में अपने दिन बिताने लगी थी,
लेकिन एक दिन मां-बाप की धमकी ने उसे डरा दिया,
'अगर तू यही सब करेगी तो हम जहर खा लेंगे।
मत भूल की तेरी एक छोटी बहन भी है।'
उस दिन वह बेटी बहुत डर गई
खुद पर कष्ट तो वह बरदाश्त कर सकती थी
माता-पिता का यह हाल उससे नहीं देखा गया
अपने फैसले को तिरोहित कर
समर्पण की बयार में बह गई।
निर्मला बेटी की अपराधी थी
नाजुक मौकों पर अक्सर वे उसके
साथ गले मिलकर रो पड़ती थी ।
जयवंती को मिल रही शाबाशी
का सिलसिला थमता ही नहीं था।
उसकी मिसालें दे-देकर रिश्तेदार भी
अपने बच्चों की नकेल कसने में लगे हुए थे।
शादी की फिक्र को फक्र में बदलने के प्रयास जारी रहते।
बेटी कहीं प्रेम में है
ये उन्हें बरदाश्त नहीं।
जब उन्हें यही बरदाश्त नहीं
तो फिर ससुराल से घर आकर बैठी बेटी का
किसी और से मेल-जोल कैसे बरदाश्त होता !
काट दिया उसका सिर एक खरबूजे की तरह
एक बेटी को इस तरह काट दिया पिता ने।
यकीन मानिए हाथ कांपते हैं ऐसा लिखते हुए।
बेटी कुर्बान हो गई अपने बाप के झूठे अहम और जिद के आगे।
कोख में मारते हो
गलती से पैदा हो गई
तो न पढ़ातेलिखाते हो
और ना ठीक से खाने को देते हो।
भेड़-बकरी समझ शहनाई बजाकर अनजान जगह भेज देते हो
संपत्ति भी नहीं देते, दहेज देते हो।
कैसा संतान प्रेम है ये,
जहां कुछ भी उसके हित में नहीं।
राजसमंद जिले के चारभुजा क्षेत्र में
अपने बाप के हाथों कत्ल हुई इस लड़की मंजू का
गुनाह चाहे जो हो,
लेकिन उसके बाप को उसके चरित्र पर शक था
वह घर से गायब थी
पुलिस ने उसे बरामद किया
यही बताया कि एक होटल में किसी के साथ मिली है।
बस पिता का गुस्से से सिर फिर गया
और मंजू को बाप की तलवार से कटना पड़ा।
हम में से कई लोग हैं
जो इन घटनाओं को सही ठहराते हैं।
उन्हें लगता है कि
स्त्री की पवित्रता पर
अगर किसी ने हमला किया तो
स्त्री को ही दोषी मानते हुए सजा दो।
यह उसका शरीर है,
उसकी आत्मा निर्णय लेगी -
ऐसा कोई नहीं सोच पाता।
आप यों मालिक बन रहे हैं एक बालिग लड़की के
आपके मन का नहीं होता तो मार रहे हैं उसे
आपके सामाजिक मानदंडों पर खरी नहीं उतरती
तो कत्ल कर दो उसे।
कई बार खयाल आता है
कि हम दानव युग में जी रहे हैं ...
बेकार है विकास की बड़ी-बड़ी बातें करना।
देश को ऐसी कई पंचवर्षीय योजनाएं बनानी होंगी
जिसके तहत
स्त्री-पुरुष को समान नागरिक अधिकार मिल सकें।
संविधान में लिखी बातें कोरी हैं
समाज अब भी अवयस्क है।
दोष न लड़की का है
और न ओगड़सिंह का।
ससुराल से मायके आकर बैठी बेटी के बारे में
वह पहले बहुत कुछ सुन चुका होगा।
लोगों को अपनी आन का सबूत देते हुए
उसने अपनी बेटी का ही सर कलम कर दिया !
ऐसा उसने अपने सम्मान के लिए किया ...
यही 'ऑनर किलिंग है।
मर्यादा पुरुषोत्तम राम ने भी
सीता को अग्नि में समर्पित कर आत्मसम्मान की रक्षा की थी
हमारे समाज में यह आज भी बुरा नहीं है।
चरित्रहीनता पर फैसला सुनाना हम
अपना फर्ज समझते हैं।
ओगड़सिंह आदतन अपराधी नहीं था
वरना वह बेटी का सिर लेकर थाने नहीं जाता।
जब तक संबंध, प्रेम,
ससुराल से घर वापसी को समाज अभिशाप मानेगा
तब तक बेटियां कत्ल होने के लिए
अभिशप्त रहेंगी।
समाज दोषी है और
दोषी हैं समाज की इस सोच को सर-माथे लेने वाले लोग।
जिंदगी बड़ी है
या झूठे कायदे?
क्या फर्क पड़ जाता जो जी लेती बेटी अपनी जि़न्दगी
तुम कटघरे में और वह कब्र में यह तो कोई इन्साफ़ नहीं


वर्षा

6 टिप्‍पणियां:

  1. क्या फर्क पड़ जाता जो जी लेती बेटी अपनी जि़न्दगी
    तुम कटघरे में और वह कब्र में यह तो कोई इन्साफ़ नहीं
    कितनी बेटियों का सच लिख दिया है आपने
    इस अभिव्‍यक्ति .. गहन भाव सार्थक प्रयास उत्‍कृष्‍ट लेखन .. आभार

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  2. दरअसल अपनी इज्जत बचाने के लिये बेटी की भावनाओँ दांव पर लगाते हैँ, सच को उजागर करने का आभार

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  3. यही तो इस समाज की सबसे बडी त्रासदी है।

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  4. समाज में महिला/ बेटी / स्त्री होना ही सबसे बड़ा जुर्म है . अगर किसी पुरुष ने भी कोई जुर्म या गलती की है , तो उसे गाली माँ , बहन या बेटी की दी जाती है !

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  5. दुहरी मानसिकता और झूठे संस्कार को झकझोरती रचना
    बहुत सुन्दर ..

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