गुरुवार, 31 मई 2012

खामोशियों का सफ़र...



खामोशियाँ हमेशा से थी बाहर - भीतर, आस-पास और भीड़ में कहीं ज्यादा.. अपने पिछले जन्म में किसी और रूप में....वो खफा-खफा, मायूस, विरक्त, क्षुब्ध, उपेक्षित ... आपेक्षाओं और सहिष्णुता के जाल में फंसी... खामोशियाँ काले कपड़े पहन, अंगूठा दिखाते हुए डर, द्वंद और निराशाओं के बादल लिए आसपास मंडराती थी...वो कुहासे की तरह घुप्प और सर्द .. उन्हे शीशे पर जमते हुए देखा जा सकता था... अंगुली से छुआ जा सकता था .... वो हर पल कंकर की तरह चुभती, यादों में, यतार्थ में, सोच में, सपनों में, पैरों में, नाड़ियों में, आँखों में.... नाड़ियों का खून जम जाता और आँखे लाल रहती.. वो धड्कनों पर फाइव लीवर के ताले और अपने इर्द-गिर्द दीवारें ऊँची करने में मसरूफ थी... सुरज के उजालों में बाँधे रहती आंखों पर पट्टि और जीवन के अंधेरों को भरने के लिए बटोरती रहती इंतज़ार, मायूसी, दर्द, दिल के टुकड़ों के लिए जंग का खुरदरा रंग...रोबाट बने हाथ-पावों को सहलाती और उन्हे बहलाने के लिए पकड़ा देती हाथों में शापिंग की ट्रोली और पाँव के नीचे क्लच....खामोशियाँ एक सी सी टी वी के तरह पीछा करती... उसे गुनाह करते पकड़ने के लिए... कटघरे में खड़ा करने के लिए... गांधारी बनाए रखने के लिए .. आंखों से निकाल खामोशी के कंकड़ को जब भी उछाल कर पानी में फेंका... ना तो पानी उछला और ना ही उसनें हलचल हुई ... हाँ आसमान से जरूर कुछ बरसा आँखों के साथ- साथ...

जिस पल आत्मा पर खामोशियों का बोझ शरीर के वज़न से अधिक हो गया और दोनों का एक दुसरे को झेलना दूभर हो गया...खामोशियों ने एक दिन खुली हवा में सांस लेने का साहस बटोरा और बस फिर क्या... सिर्फ एक हवा के झोंके से ... खटाक.!..खटाक.!..भीतर के सभी बंद दरवाज़े और खिड़की हवा में झूलने लगे... खामोशियों ने अमावस्या के रोज़ चांदनी पी... अब खामोशियों को समय की धारा में डूबने से बचने के लिए तिनके की तलाश नहीं थी... उनकी निगाह आसमान पर थी... खामोशियाँ को कदमो की आहट सुनाई दी,पत्तियों के हिलने से उत्पन्न संगीत से दिल पर कसे तार ढीले होने लगे...हरियाला जंगल आँखों में क्या इस तरह झांकता है? और चाँद खिड़की पर उतर आवाज़ देता है... खुली हवा में खामोशियों के पंख खुदबखुद खुल जाते... वो घर लौटते परिंदों का पीछा करती तो कभी आसमान में हवाई जहाज़ के पीछे खींची लाइन को एक फूक से मिटा देती... आइना चेहरे से बतियाते हुए पहरन के भीतर झांकता, गोरय्या हर सुबह बिजली के तार पर चहकती, गिलहरी ठिठक कर खड़ी फिर फुदक कर झाड़ियों में गायब हो जाती, भाग्य खामोशियों के हक़ में खड़ा था और तभी स्रष्टि ने आसमान के कान में कुछः कहा... वो ब्रुश लिए सपनों में इन्द्रधनुषी रंग घोलने लगा, वजूद खामोशियों की रूह बन इतराने लगा ... खामोशियाँ कभी सुनहरी धूप, कभी सोलह साल की अल्हड़ लड़की, कभी पतंग, कभी सीप, कभी ओस की बूंद, कभी नदी, कभी कविता, कभी पत्ती तो कभी फोटोसिन्थेसिस..... दो सिरों से बंधे आज और अभी के तार पर चलने के लिए हवा में संतुलित ... खामोशियों के लिखे बैरंग ख़त सरहदों को पार कर उनके पते ढूँढने लगे जिनसे मिलना खामोशियों के भाग्य में दशकों से दर्ज था.. खामोशियाँ को जादू आता था वो जब चाहे जेठ की धूप, घर के पिछवाड़े अमरुद का बाग़, दादी का खजाने भरा संदूक, कालेज के गेट पर खड़ा उसका इंतज़ार, बंद रेलवे फाटक पर बिकती नारियल की गिरी... जो भी चाहो वो बन जाती ...

खामोशियाँ तलाशने लगी थी एक खामोश कोना जहाँ रोज मरने से पहले कुछः देर जिया जा सके..... वो बस स्टाप के शेड और आसमान छूती इमारत की छत के नीचे, रसोई और बेडरूम की नजदीकियों के बीच, अलार्म और बत्ती बुझाने के बीच, बिल और रिपोर्ट की डेडलाइन के बीच, जिम्मेदारियों और कर्तव्यों के बीच, प्यार और नफरत के बीच, किसी को भूलने और माफ़ करने के बीच सांस लेने लगी थी.. उन्होंने पेड़ों, परिंदों, पर्दों, प्रथ्वी और प्रक्रति को अपना राजदार बना लिया था ... खामोशियों के अपने सुख, दुःख थे... उनकी अपनी एक दुनिया थी नियति थी... जो खामोशियों ने ओस के धागे से पत्तियों पर लिखी थी, खामोशियाँ खामोशियों में जीती थी, एक दुसरे को सुबह-शाम पीती थी, उन्ही में सोती थी, उन्ही में जागती थी, खामोशियों दिन में सपने देखती और नींद में उन्हे सच कर देती.... .वो अचम्भित थी ... खामोशियाँ टूट कर पहले से अधिक साबुत और सार्थक हो गई ... उन्हे बड़ी राहत थी.... मंजिल का पता उनकी बंद मुठ्ठी में था और उनका सफ़र जारी था...


नीरा

रविवार, 27 मई 2012

गौरी ग्रसन



क्या शक्ति क्या नारी-मन,
कर में पहन कंचन-कंगन,
है साध रही हर संचित स्वप्न
हर दमन से उत्पन्न उप-रत्न
क्या नहीं सजा नारी कंठमाल?
मणि बना शॊषण का काल ?
क्या नहीं हुई नियति से हार ?
प्रारब्ध बना मुखौटा हर बार
हर मनीषी का मृदु मधुदान,
बिका हाट ,प्रमदा का मान
पाथर हुआ हर पॊर हर पाथ
शुष्क हुआ हर आद्रित साथ
हर संघर्ष सिर्फ नारी की पारी
हर बार बनी श्रृंगारिक सहचारी
न हुआ अंत ,हाला का हाय!
प्रारबध बना कटु पर्याय

स्वाति

शुक्रवार, 25 मई 2012

जैसे सांस




धूप के कटोरे में पड़ी पानी की बूंदें
भाप बन जाती हैं जैसे
हवा बन जाते हैं मेरे शहर के लोग

शहर एक बुरी हवा था
मुहल्ले-पाड़े जैसे आंच के थपेड़े
बुख़ार के फेफड़ों से निकली
उसांसें थीं गलियां

इन गलियों में
जीवाणुओं की तरह रहते थे लोग
जिनकी आबादी का पता
दंगों, भूकंपों और बम-विस्फोटों में मारे गयों
की तादाद से चलता था

बरामदों में टंगे कपड़े
कपड़े नहीं मनुष्य थे दरअसल
सूखते हुए
इसी तरह जोड़े से छूट गई अकेली चप्पलों, टूटी साइकिलों, बुझ चुकी राहबत्तियों
सेंगदाने की पुल्लियों, गिरकर आकार खो चुके टिफिन बक्सों, उड़ते हुए पुर्जों
चलन खो चुके शब्दों-सिक्कों
और अपने गिरने को बार-बार स्थगित करते
अनाम तारों को भी
मनुष्य मानना चाहिए

सुने जाने के इंतज़ार में हवा में भटकती सिसकियों को भी

इस तरह करें मर्दुमशुमारी
तो उन लोगों की तादाद कहीं ज़्यादा है
जिन्हें हमें मनुष्य मानना है

जितने लोग मरते थे
उतने ही पैदा हो जाते
आम बोलचाल में इसे उम्मीद का
समार्थी कहा जाता

पर जैसा कि मैंने बताया
शहर एक बुरी हवा है
(पानी का जि़क्र तो मैंने किया ही नहीं
पाड़े के नलके पर सिर फूटा करते हैं पानी पर
वो अलग
भले उसे सूखकर हवा बन जाना हो एक दिन
अच्छी, बुरी जैसी भी)

जाने कौन सदी से बह रही है ये हवा
जिसमें ऐसे उखड़ते हैं लोग
जैसे सांस उखड़ती है.


Geet Chaturvedi

मंगलवार, 22 मई 2012

काम वाली बाई



मेरी काम वाली बाई
सुबह आती है/काम पे
नखरे बहुत बताती है
हफ़्ते दस दिन में
पगार बढाने का
रट्टा लगाती है
साथ में लाती है
4 बच्चे अपने पीछे
जब तक वह बर्तन करती है
तब तक बच्चे हंगामा करते हैं
मजबूरी है हमारी/सहते हैं
दफ़्तर जाने की जल्दी में
हम और मियां रहते हैं
घर का काम अधिक है
इसलिए काम वाली बाई
के नखरे सहते हैं
चाय नास्ता रोटी खाना
खूब मजे उड़ाती है
4 घरों में और जाती है
धड़ल्ले से खूब कमाती है
जिस दिन मेहमान आते हैं
उस दिन छुटटी कर जाती है
तब मेरा पारा चढ जाता है
मन करता है उसे भगा दूँ
मै और मियां मिलके
सारे बर्तन घिसते हैं
काम वाली बाई के कारण
दोनो खटते पिसते हैं।
दो महीने की तनखा
एडवांस में जाती है
काम बताओ तो हमको
आँखे दिखलाती है
यूनियन का रौब जमाती है
इसे भगा दें तो
दूसरी बाई नहीं आती है
ये काम वाली बाई
इठलाती/इतराती है
प्याज के भाव से
अधिक रुलाती है।


सुधा प्रजापति
http://mitteekimahak.blogspot.in/

शनिवार, 19 मई 2012

सिंह हो तो



सिंह हो तो उठो गर्जना करो
और सियार हो, तो कुछ कहना नही है ।
दुष्मन के वार पर पलट वार तो करो
गर कायर हो, तो कुछ करना नही है ।

अपनी संख्या पर गर नाज़ है तुम्हें
उस नाज़ जैसा कुछ तो कर गुजरो
वरना तो कीडे भी जन्मते हैं करोडों
मरना है जो कीडों सा, कुछ कहना नही है ।

जिनके बाजू मे है ताकत और हिम्मत
एक बार जोश से उनकी जयकार तो करो
भरलो स्वयं में उनका ये जज्बा जोश का
कमजोर ही रहना है, तो कुछ कहना नही है ।

घर और पाठशाला बने केंद्र नीति का
राष्ट्र प्रेम से बच्चों को कर दो ओत प्रोत
हर बच्चा बनें एक आदर्श सैनिक भी
सिखाओ ये पाठ कभी डरना नही है ।

समय पडे तो खुद ललकारो दुश्मन को
एक दिन तो हम सबको मरना यहीं है
डिस्को नही, हमको है तांडव की जरूरत
वरना हम जैसों की फिर सजा यही है ।




आशा जोगळेकर

गुरुवार, 17 मई 2012

क्या प्यार ऐसा होता है ?



क्या प्यार ऐसा होता है
अंधेरों में रास्ता दिखाता
जब तुम सोचो कि तुम्हारे
पैरों के नीचे से धरती
खिसकी जा रही है
तब तुम्हारे पैरों के नीचे
अपने हाथ को रखता
सहारा देता
पीठ थपथपाता
सराहता
गुनगुनाता
जब नींद ना आए
तो लोरी सुनाता
बहलाता
सहलाता
जब तुम दर्द से
चीखना चाहो
तब होंठों पर
मुस्कान बिखराता
दर्द पर मरहम लगाता
जलते मन पर
हिम का फाहा बन
बिछ जाता
टूटे हृदय के
टुकड़ों को सहेजता
जोड़ता
नया बनाता
जब मृत्यु की चाहत हो
तब जिजीविषा जगाता
जीने के कारण गिनाता
बिखरे सपनों को
फिर से बुनता
दुःस्वप्नों में बन
एक मुस्कान है आता
आँखों में बन चमक
छा जाता
बन वर्षा की बूँदें
वीरान जीवन की
बंजर धरती पर
बौछारों सा आता
प्रेम से नहलाता
जीवन सजाता
आशाएँ छिटकाता
भटकन में
राहें दिखलाता
प्यासी आत्मा को
बन सुधा बूँदें
तृप्त कर जाता
यदि प्यार यह सब है
तो प्यार ही
जीवन का अमृत है।

घुघूती बासूती
http://ghughutibasuti.blogspot.in/

बुधवार, 16 मई 2012

ये मैंने 31st दिसम्बर को लिखा था


ये मैंने 31st दिसम्बर को लिखा था



आज अलसुबह जब चाँद को देखा
तो अलसाया हुआ सा था
आँखें थीं नींद से बोझिल
पलकें भी सूजी हुई
मैंने पूछा ,क्यों भाई सोये नहीं हो क्या
चाँद उबासी लेता हुआ बोला

क्या बताऊ दोस्त,नए साल की रात थी
तारों ने खूब धमाचौकड़ी की
खुद भी जागते रहे मुझे भी सारी रात जगाया
रात भर लुकाछिपी खेलते रहे
मेरे पीछे आ आकर छिपते रहे
रात भर मुझसे झालरें लगवाते रहे
कभी गुब्बारे फुलवाते रहे
तंग आकर मैं भी छिप गया एक बादल के पीछे
पर आवारा कहीं का
उसे कहाँ चैन था एक जगह
भाग गया थोडी ही देर में

फिर से मैं और मेरे तारे...
झुंझला कर एक तारे को डांट दिया
बेचारा सहमा सा रोकर भागा
और टूट कर बिखर गया
फिर मैं किसी को डांट भी नहीं पाया

बस,रात भर जागता रहा
देखो तो ज़रा..
नटखट तारे कितने मज़े से सो रहे हैं
पर एक दिल की बात बताऊँ
भले ही शैतानों ने रात भर जगाया
पर मुझे भी दोस्त,मज़ा बहुत आया.

सोमवार, 14 मई 2012

ये आँसू भी कितने अजीब होते हैं !



ये आँसू भी कितने अजीब होते हैं !
कभी दर्द में बहते हैं
कभी यादो से उभरते हैं
कभी ख़ुशी से छलकते हैं
तो कभी गम में गीला करते हैं

ये आँसू भी कितने अजीब होते हैं !

दिल के बोझ को बूंदों में ढोते हैं
भावनाओ के गुबार को पानी से धोते हैं
फिर गीली पलकों से, गुलाबी गालो से
नाज़ुक हथेलियों से जाने कहा गायब हो जाते हैं !

ये आँसू भी कितने अजीब होते हैं !

कभी गैरो की ख़ुशी से छलक जाते हैं
कभी अपनों के गम में उभर आते हैं
लग जाये बस दिल को जब बात कोई
फिर कहाँ ये रोके जाते हैं !

ये आँसू भी कितने अजीब होते हैं !

ये शरीर रोते समय बस बुत बन जाते हैं
आँख, कान, जीभ सब मुर्दा हो जाते हैं
हैं भाषा जो इन आँसुओ की बस ,
आँसू ही बोल पाते हैं, आँसू ही सुन पाते हैं !

ये आँसू भी कितने अजीब होते हैं !

जो अकेले में बहे तो साथ देते हैं
अपनों में बहे तो सहारा बनते हैं
और गलती से गैरो में बहे
तो मजाक बना देते हैं !

ये आँसू भी कितने अजीब होते हैं !

जिनकी आँखों में रहते हैं वो भावुक होते हैं,
कमज़ोर कहलाते हैं
और जिनकी आँखों से न बहे वो कठोर कहलाते हैं,
निर्दयी बन जाते हैं !

ये आँसू भी कितने अजीब होते हैं !

हर ना को हाँ में बदलने की ताक़त रखते हैं
पत्थर को भी पिघलाने का होसला रखते हैं
फिर भी ये सदियों से लाचारी, बेबसी
और मजबूरी की ही निशानी माने जाते हैं

ये आँसू भी कितने अजीब होते हैं !

जो औरत बहाए तो इसे उसकी आदत कहते हैं !
जो आदमी बहाए तो उसे औरत का दर्जा देते हैं !
न जाने ये दुनिया इन आसुओं में बस
कमजोर को ही क्यों पाते हैं !

ये आँसू भी कितने अजीब होते हैं !



कोई आँसू बहाकर अपना काम बनाते हैं
तो कोई आँसू बहाकर हाल-ए-दिल सुनाते हैं
हैं मज़ा पर रोने का हे तब ही जब
शब्द गले से ना निकल पाते हैं !

ये आँसू भी कितने अजीब होते हैं !

आँसू मगरमच्छ के भी होते हैं
आँसू खून के भी होते हैं
कहे चाहे कुछ भी ये दुनिया
हमें तो बस दिल के ही मालूम होते हैं

ये आँसू भी कितने अजीब होते हैं !

रोता आदमी क्यों अपने नसीब को कोसता हैं
जबकि कुछ हाथ उसके पलकें भी पोछते हैं
नाज़ुक मोतियों को अपने कंधे पर सहेजते हैं
खुशनसीब हे वो लोग जो किसी से लिपट कर बरसते हैं !

ये आँसू भी कितने अजीब होते हैं !

आँखों में लिए ये मोती हम दुनिया में आते हैं
और जाते वक़्त दुनिया की आँखों में दे जाते हैं
ये ज़िन्दगी हे कर्जा इन मोतियों का
जो मरकर ही चुका पाते हैं !



अंकित सोलंकी
संजोया हैं समय से चुराकर, कुछ पलों को पन्नो पर!

शनिवार, 12 मई 2012

लिखती हुई लड़कियां





यह नितांत मेरी ही कविता है। कविता है या नही पता नही। दिल पर जो गुजरी है, नजरों से जो गुजरा है
उसी से बुनी गुनी.....



बहुत खूबसूरत होती हैं
लिखती हुई लड़कियां
अपने भीतर रचती हैं ढेरों सवाल
अपने अन्दर लिखती हैं
मुस्कुराहटों का कसैलापन
जबकि कागजों पर वे बड़ी चतुराई से
कसैलापन मिटा देती हैं
कविता मीठी हो जाती है
वे लिखती हैं आसमान
पर कागजों पर आसमान जाने कैसे
सिर्फ़ छत भर होकर रह जाता है
वे लिखती हैं
सखा साथी, प्रेम
कागजों पर व्ओ हो जाता है
मालिक, परमेश्वर और समर्पण।
वे लिखती हैं दर्द, आंसू
वो बन जाती हैं मुस्कुराहटें
वे अपने भीतर रचती हैं संघर्ष
बनाना चाहती हैं नई दुनिया
वो बोना चाहती हैं प्रेम
महकाना चाहती हैं सारा जहाँ
लेकिन कागजों से उड़ जाता है संघर्ष
रह जाता है, शब्द भर बना प्रेम.
वे लिखना चाहती हैं आग
जाने कैसे कागजों तक
जाते-जाते आग हो जाती है पानी
लिखती हुई लड़कियां
नही लिख पाती पूरा सच
फ़िर भी सुंदर लगती है
लिखती हुई लड़कियां.


प्रतिभा कटियार

शुक्रवार, 11 मई 2012

एक होना, यानि पूर्ण होना।



जैसे ही दो लोग मिलते हैं,
एका होने से, खुशी होती है।
जब वो कुछ कहने लगते हैं,
वो अपनी-अपनी ”बात“ होती है,
किसी ”बात“ का मतलब ही होता है
दो चीजें।
इस तरह दो चीजों में बंटते ही
खुशी काफूर हो जाती है,
इसलिए
चुप रहो।

जब कुछ महसूस किया जाता है
खो जाता है सबकुछ
वक्त भी।
जब फिर से मांगा जाता है वही महसूसना,
तो वक्त लौट आता है
अतीत, वर्तमान और भविष्य के
तीन सिरों में कटा हुआ।
कटी-फटी-टुकड़ों में बंटी चीजें
अशुभ होती हैं।
इसलिए
महसूस करो और
चुप रहो।

याद करो
उन दिनों हम कितने खुश थे
जब ना कोई बोली थी
ना कोई भाषा
मौजूदगी को महसूसने की
थी
अपनी ही अबूझ परिभाषा।
जब से हमने
अहसासों को बांधने की कोशिश की है-
बोलियों-भाषाओं में,
शब्दों-स्मृतियों में।
हम बेइन्तहा बंट गये हैं।
इतने कि
एक छत और
एक बिस्तर को
एक साथ महसूसने के बाद भी
हम एक नहीं हो पाते।
इसलिए हो सके तो
कुछ ना कहो
चुप रहो।

प्रार्थना
कैसे की जा सकती है?
क्योंकि जैसे ही प्रार्थना की जाती है,
एक खाई बन जाती है
प्रार्थना करने वाले, और
जिससे प्रार्थना की जारी रही
उसमें।
इसलिए चुप रहो।

सहज खामोशी में हम
एक हो सकते हैं।
खामोश होने के लिए
जरूरी है कि हम
वही रहें, जो हैं।
और कुछ होना ना चाहें
उसके सिवा
जो है।
जो हैं,
बस वही भर रह जाने से
हम एक हो जाते हैं।
खामोशी रह जाती है।
एक होना, यानि पूर्ण होना
मृत्यु रहित होना।


राजे_शा
http://rajey.blogspot.in/

बुधवार, 9 मई 2012

मतलब..



शब्द नही है प्यार है मेरा,शब्दों का संसार है मेरा, अगणित बातें कहने को(कलम)ब्लॉग ही अब आधार है मेरा.




मतलब,
मतलब ये है कि दुनिया में जो भी कुछ हो रहा है, वो सिर्फ मतलब के लिए ही हो रहा है,
मतलब ये कि आप अगर इस लेख को पढ़ रहे है तो मतलब से ही पढ रहे होंगे
और अगर नही पढेंगे तो भी मतलब से ही नही पढेंगे,
पढ़ने का मतलब नई जानकारी प्राप्त करना, ना पढ़ने का मतलब बिजली बचाना, समय बचाना...
खैर मेरा मतलब तो मतलब के बारे में लिखने से है..सो मै तो अपना मतलब पूरा किये लेता हूँ,
आप भी तो अपना कर रहे है...
सब कहते है दुनिया मतलब की है, पहले मै नही समझता था,
पर अब समझने लगा हूँ, कि संसार का सारा सार बेमतलब नही है,
विवाह मतलब से,
बच्चे मतलब से,
बच्चों की पढाई मतलब से,
दोस्तों से दोस्ती और लड़ाई मतलब से,
गाना मतलब से,
खाना मतलब से,
हंसना मतलब से,
रोना मतलब से,
जागना मतलब से,
सोना मतलब से,
बैठना मतलब से,
चलना मतलब से,
गिरना मतलब से,
सम्हलना मतलब से,
यानी कम शब्दों में ये समझिए कि समझना भी मतलब से
ना समझना भी मतलब से, कभी कभी सोंचता हूँ कि क्या निस्वार्थ कुछ भी नही,
फिर ये समझ में आता है कि सोंचना भी तो बेमतलब नही,
बिलकुल पक्का है कि मतलब के बारे में लिखने में भी तो मतलब है,
किसी को नाम का मतलब होता है किसी को दाम का मतलब होता है,
और मेरा तो मानना यहाँ तक है कि, जो लोग अन्ना हजारे या बाबा रामदेव नही बन पाते,
वो ब्लोगर बन जाते है, मतलब कुछ हुआ तो ठीक, नही तो प्रचार तो हो ही जाता है,
या फिर शौक पूरा करने का मतलब तो है ही,
अच्छा आप ही बताईये बिना मतलब भी कुछ होता है क्या?
बिना मतलब के तो पत्नी बात भी नही करती,
बिना मतलब के गाय घास भी नही चरती,
बिना मतलब के बेटा बाप से नही डरता,
बिना मतलब के सैनिक सीमा पे नही मरता,
बिना मतलब ब्लोगर ब्लॉग नही लिखता,
बिना मतलब के मतलब नही दिखता,
मेरे शहर की सारी सड़कें खोद डाली गई है, अब आप सोचोगे कि सड़कों की खुदाई
से किसी को क्या मतलब,
मतलब है जी, बहुत बड़ा मतलब है, सड़के खुदेंगी लोग गिरेंगे, चुटहिल होंगे,
रिक्शा या आटो से अस्पताल जाएंगे, बहुतेरे ग़रीबों का भला होगा,
नर्सिंगहोम और डॉक्टरों की चांदी हो जाएगी,
नगर निगम के अफसरों का कमीशन पक्का होगा,
वाहन जल्दी खराब होंगे, गरीब मकेनिकों का धंधा चल निकलेगा,
सड़क खुदाई के विरोध में नेता आंदोलन करेंगे,नेतागीरी की दुकान चल जाएगी,
मतलब ये कि सड़क खुदाई से हजारों लोगों का मतलब पूरा हो जाएगा,
मतलब ये कि हर,
बात में मतलब,
मुक्का लात में मतलब,
मतलब में मतलब,
बेमतलब में मतलब,
मतलब ये कि बे मतलब कुछ भी नही,
मुझे लगता है कि अब मेरा भी मतलब हो गया है, और मुझे कुछ दूसरे मतलब भी देखने है,
इसलिए अब आप भी अपने मतलब को मतलब से देखिये, मेरा मतलब तो आप समझ ही गए होंगे..
यहाँ मतलब से रोटी है मतलब से दाना है,
सच है दोस्तों बड़ा मतलबी जमाना है...


राजेंद्र अवस्थी
http://harkand.blogspot.in/

मंगलवार, 8 मई 2012

बेवक्त बरसती हैं बारिशें उसकी



खुश्क मिट्टी है
दरारें पड़ चली हैं
आडी टेढ़ी...चौरस लकीरें
यूँ छप गयी हैं
जैसे पहली जमात की
गणित की कॉपी
कदम दर कदम
नंगे पांव
अपने बच्चों की भूख प्यास का
हिसाब करता हूँ
जेठ की दोपहरी सी
तपती है भादों की सांझ
अबके भी नहीं बरसा

नहीं, ऐसा तो नहीं है
के बरसता ही नहीं
पिछले बरस तो खूब बरसा था
फागुन में
जब सरसों पकी खड़ी थी
मेरे खेतों में
और मिट्टी में मिल गया था
एक एक दाना

यूँही बेवक्त बरसती हैं
बारिशें उसकी
और बेवक्त इन खेतों में
सूखा पड़ता है

कोई खुदा से ज़रा कहना
घड़ी अपनी कभी मिलाले
हम किसानों से...!!

सोमवार, 7 मई 2012

::वापस घर को जाना है.:::...





मैं मस्तो गौरव श्रीवास्तव . ..उम्र 24 साल .थेअटर करता हूँ ...हिदायतकार बनने की ख्वाहिश ..,कुछ अफ़साने कहे हैं ... इन सब से पहले नज्मों का शायर !!

कमरों से दिल उब गया..,
वापस घर को जाना है...
अम्मा की याद आती है..
वापस घर को जाना है....

कितना वक़्त बीत गया..,
'पापा' ने न टोका है..
'पापा' की डाँट सुनने..,
वापस घर को जाना है...

गर्मी की थकी दोपहर में,
ग़ौरैया आंगन में आती होगी..?
चिड़ियो को दाना-पानी देने..,
वापस घर को जाना है॥

दशहरा का मेला देखने
बाबा पैसे देते थे..
कई बार के पैसे लेने,
वापस घर को जाना है

अष्टमी की रातों में..,
रसियाव-पुडियाँ बनती थी.
दादी के गीतों को सुनने..,
वापस घर को जाना है

उस छोटी अलमारी में..,
मेरी किताबें रखी होंगीं ?
किताबों की धूल झाड़ने..
वापस घर को जाना है

चौक की दुकान पे..
इक शाम हम बैठे थे..
सूरज अब डूब गया है,
वापस घर को जाना है...

चौड़ी-चौड़ी सड़कों में,
घर का रास्ता भूल गये..
अम्मा की याद आती है..
वापस घर को जाना है....

..मस्तो...

रविवार, 6 मई 2012

फ़ितूर



पियूष मिश्रा , एक प्रतिभाशाली लड़का .... सच्चा और कल्पनाशील , कडवी सच्चाई को झेल नहीं पाया है ,
बीमार बहुत बीमार है , मन की बीमारी दवाओं से नहीं ठीक होती . आइये हम मिलकर उसे अपना स्नेहिल आशीष दें
जो उसके चेहरे पर एक मुस्कान दे जाए -



फ़ितूर

उस रेस्टोरेंट में
तुम जब भी मुझसे मिलने आती थी
जान बूझ कर
मुझे सताने को
देर कर जाती थी
अब भी कभी यूँही
मैं उसी रेस्टोरेंट में
चला जाता हूँ
देर बहुत देर शाम तक
रहता हूँ
तुम नहीं आती
मैं उठ कर चला आता हूँ...

एक शनिवार
जब तुम मुझसे मिलने नहीं आ पाई थी
अपनी एक सहेली के हाथों तुमने
एक गुलाब और एक चिठ्ठी
भिजवाई थी
शनिवार को मैं अब भी
तुम्हारा इंतज़ार करता हूँ
तुम तुम्हारी चिठ्ठी
कोई नहीं आता
और मैं अपने ही बाग़ीचे से
एक गुलाब तोड़ लाता हूँ अपने लिए ...

याद है
अक्सर शाम ढले
हम नदी किनारे जाया करते थे
कुछ देर बैठ कर
मैं कहता था तुमसे-
"कुछ कहो ना..तुम्हारी खामोशी बहुत चुभती है"
अब भी कभी
मैं वहाँ चला जाता हूँ
कुछ देर बैठ कर
कहता हूँ-
"कुछ कहो ना...."
फिर चुप हो जाता हूँ

exam का वक़्त था वो
मैं पढ़ता रहूं
इस लिए तुमने सारी रात
मेरा फ़ोन बजाया था
अब भी कभी
जब exam आता है
मैं यूँही
आँखें बंद कर लेट जाता हूँ
कुछ देर में ख़ुद ही उठ जाता हूँ
फ़ोन बंद करके
पढ़ने लग जाता हूँ ...

जब भी तुम नाराज़ होती थी
तुम्हें हँसाने के लिए
मैं बड़ा ही बेसुरा गाता था
" बड़े सिंगर बनते हो"
कह कर तुम
हँसने लग जाती थी
आईने के सामने कभी कभी
मैं वही गाने गाता हूँ
कोई कुछ नहीं कहता
गला रूँध जाता है
मैं चुप हो जाता हूँ ...

और उस दिन
जब तुम जाने लगी
"मैने कहा मैं मर जाऊंगा
तुम रुक जाओ"
तुमने कहा
"जाओ मर जाओ"
तुम्हें पाने के लिए अब भी
वही सारे पुराने नये
फ़ितूर करता हूँ
तुम नहीं मिलती
अब मैं हर रोज़ मरता हूँ


पियूष कुमार मिश्रा
पटना
बस यही है खासियत कि कुछ नहीं है ख़ास मुझमें ...

शनिवार, 5 मई 2012

मौन का महाकाव्य



मैं स्त्री
एक किताब सी
जिसके सारे पन्ने कोरे हैं
कोरे इसलिए
क्योंकि पढ़े नहीं गए
वो नज़र नहीं मिली
जो ह्रदय से पढ़ सके

बहुत से शब्द रखे हैं उसमे
अनुच्चरित.
भावों से उफनती सी
लेकिन अबूझ .
बातों से लबरेज़
मगर अनसुनी.
किसी महाकाव्य सी फैली
पर सर्ग बद्ध
धर्मग्रन्थ सी पावन
किन्तु अनछुई .

तुम नहीं पढ़ सकते उसे
बांच नहीं सकते उसके पन्ने
क्योंकि तुम वही पढ़ सकते हो
जितना तुम जानते हो .
और तुम नहीं जानते
कि कैसे पढ़ा जाता है
सरलता से,दुरूहता को
कि कैसे किया जाता है
अलौकिक का अनुभव
इस लोक में भी ....



तूलिका शर्मा
चित्रकार

"कई लोगों को ईश्वर कहीं रखकर भूल जाता है, पर मैं खुद ही अपने आप को कहीं रखकर भूल गयी हूँ ...अब मैं ये भी नहीं जानती कि मैं कहाँ हूँ ...कोई है जो मेरा अपना आप खोजकर मुझे दे जाए " अमृता प्रीतम इन पंक्तियों में मेरा जीवन कह गयी हैं ...अब मैं हर पल खुद को ढूंढ रही हूँ ...गढ़ रही हूँ अपने मन को प्रिज्म सा .....कि जब भी पहुंचूं सूरज की किरणों तक ...तो सारा प्रकाश परावर्तित हो सके ...सात रंगों में .

शुक्रवार, 4 मई 2012

हे सखी ...



पुराण-मन्त्र लादे
गाँठ जोड़े
बैठी रहती हो , अलंकृत,
लिए ठोस जड़ कीमियागिरी
पाँव के नाख़ून से
सिर के बाल तक ,
अनुष्ठानकर्ताओं के
निवेश यज्ञों में दुष्चक्रित,
और अनजाने ही लेती रहती हो
अपने ही निजत्व के
विगलन का सेवामूल्य
सेवाधर्मिता और सतीत्व के
रुग्ण खंभ से कसी बंधी
कसमसाती 'सेविका '
तुमको करनी होगी
हाड़ तोड़ मशक्कत
खोलने होंगे स्वयं ही,
अपने कीलित हाथ पाँव
त्यागना होगा
मेनकाओं की
छद्म काया में
जबरन मोहाविष्ट कराया गया
अपना ही प्राण ...
हे सखी -
अपनी अभिमंत्रित आँखे खोलो
और करो -
अपनी ही
काया में प्रवेश ,
पीछे पड़े
फांसी के फंदों पर लटके
सिर कलम हुए
नाख़ून उखड़ी उँगलियों वाले
अँधेरी स्मृतियों में दफ़न
अनाम क्रांतिकारियों की बीजात्मा
बड़ा तड़फड़ाती है
छाती कूटती है
और पुकारती है तुम्हे -
उठाओ अंत्येष्टि घट
काटना ही होगा तुमको
उपनिवेशी चिताओं का फेरा
मुखाग्नि का हक
सिर्फ तुम्हारा है ....



....हेमा

गुरुवार, 3 मई 2012

दर्द का रिश्ता...



दर्द का रिश्ता...

(संपादक "श्री अम्बुज शर्मा" के अनुरोध पर -
उन्होंने इस कविता को माँगा था, अपनी पत्रिका "नैन्सी " के लिए (हिन्दी दिवस विशेषांक) )



राष्ट्र कवि दिनकर ने लिखा हैं-
"प्रभु की जिसपर कृपा होती हैं
दर्द उसके दरवाज़े
दस्तक देता हैं....."

पंक्तियों के मर्म की जब परतें खुली,
अंतस के निविड़ अन्धकार मे,
किरणें कौंधी!
मैं अवाक्! निश्चेष्ट !
अप्रतिम छवि को
पलकों मे भरती रही....
भीतर से विगलीत आवाज़ आई -
"दाता तेरी करुणा का जवाब नही"
सहसा महसूस हुआ ,
दर्द का रिश्ता
हमारे अन्दर जीता हैं
दर्द की मार्मिक लय
आस-पास गूंजती हैं
दर्द का कड़वा धुआं ,
साँसों मे घुटन भरता हैं
ओह!
अनदेखा, गुमनाम होकर भी
अन्तर की गहराइयों मे बेबस बैठा
कोई फूट-फूट कर रोता हैं!
रिश्तों की डोर
मेरी आत्मा से बंधी हैं ,
अपना हो या और किसी का -
चाहे - अनचाहे मैं भंवर मे फँस जाती हूँ !
छाती की धुकधुकी बढ़ जाती हैं,
घबरा कर ,
अनदेखे , अनजाने को
बाँहों मे भर कर ,
सिसकियों मे डूब जाती हूँ !
लोग कहते हैं-
मुझे सोचने की बीमारी हैं,
मैं लोगों की बातों का उत्तर
नहीं दे पाती!
अचानक, ये मुझे क्या हो गया हैं,
शायद....
दर्द के इसी रिश्ते को लोग
"विश्व-बंधुत्व " की भावना कहते हैं,
तो देर किस बात की बंधु ?
दो कदम तुम चलो ,
दो कदम हम....
और इसी रिश्ते के नाम पर
पथ बंधु बन जाएँ !
जीवन की डगर को
सहयात्री बन काट लेंगे...
दर्द को हम बाँट लेंगे.....!


सरस्वती प्रसाद
मैं वट-वृक्ष हूँ..तुम नव अंकुर..यही मान जीती हूँ..तेरे हित मैं स्वर्ण पात्र का हलाहल पीती हूँ... कुछ सपने बाकी हैं अपने..जिन्हें हैं पूरा होना..इसके बाद ही इस पंथी को गहरी नींद हैं सोना.. बचपन से मैं अपनी सोच को शब्दों का रूप देती आई... कवि पन्त ने मुझे अपनी बेटी माना...और तभी संकलन निकालने का सुझाव दिया, इस आश्वासन के साथ की भूमिका वे लिखेंगे.. मेरा काव्य -संग्रह "नदी पुकारे सागर" प्रकाशित तो हुआ ... पर मेरे मान्य पिता कवि पन्त इसकी भूमिका नहीं लिख सके पर उनकी अप्रकाशित कविता जो उन्होंने मेरे प्रयाग आगमन पर लिखी थी..इस संकलन में हैं जो भूमिका की भूमिका से बढ़कर हैं...

बुधवार, 2 मई 2012

कई टुकड़े मैं ...



कई टुकड़े मैं ...
(लीना मल्होत्रा की यह कविता दैनिक जागरण(जम्मू) २२ अगस्त २०११ में प्रकाशित हुई थी ).


एक टुकड़ा
मेरे मन की उदासियों के द्वीप पर रहता है
सैलाब में डूबता उतरता भीगता रहता है
उसे नौका नहीं चाहिए

एक टुकड़ा
थका मांदा
चिंता में घुलता है पार उतर जाने की
चालाकियों की तैराकी सीखता है
युक्तियों में गोते लगाता है
फिर भी
भीगना नही चाहता
सैलाब से डरता है डरता है

एक टुकड़ा
जिद्दी
अहंकारी
सपनो की मिटटी लगातार खोदता है
सोचता है
डोलता है
डांवा डोल
भटकता है

एक टुकड़ा विद्रोही है
वह तोड़ता है वर्जनाये
ठहरे हुए पानी को खड्डों में से उडाता है
छपाक छपाक

एक टुकड़ा स्वार्थी है
सुवर्ण लोम को फंसाता है
उसकी पीठ पर सवार करता है समंदर पार
फिर उसी सुवर्णलोम की हत्या कर नीलाम करता है उसकी खाल

एक टुकड़ा वीतरागी
किनारे पर खड़ा देखता है
उसकी आसक्ति दृश्य से है
वह धीरे धीरे टेंटालस के नरक की सीढियां उतरता है

एक टुकड़ा
भेज देती हूँ तुम्हारे पास
तुम्हारे सीने पर मेरा हाथ है
और तुम सो रहे हो
वह भी सोता है तुम्हारे स्पर्शों में बहता है
साँसों में जीता है
उसे बाढ़ से बहुत प्रेम है

इन्ही टुकड़ों के संघर्ष, विरोध और घर्षण में
बची रहती हूँ मैं
अपने पूरे अस्तित्व के साथ
एक रेत का समंदर मेरे भीतर पलता है
जिस पर कोई निशान शेष नही रहते.

-लीना मल्होत्रा