बुधवार, 30 अप्रैल 2014

गुंजन झाँझरिया और शब्द




मन की मुखरता शब्द
शब्द से भावों का सिंचन 
जो ख़ामोशी में भी कहते हैं अनवरत 
वह सबकुछ 
जो हमारे अतीत की,
पूरे दिन की कटी हुई 
या छीन ली गई फसल होते हैं  … नहीं मिलता सबको ऐसा मन 
नहीं होता हर कोई शब्दों का धनी 
शब्द भी तलाशता है एक शरीर 
जिसके भीतर-बाहर 
वह अपनी पर्ण कुटी बना सके 
और खींच सके उन राहगीरों को 
जो भावनाओं की शीतलता तलाशते हैं !
भावनाएँ कितनी भी उदास क्यूँ न हो
उसकी उदासी छू लेती है उनको 
जो ज़िन्दगी के मायने जानते हैं 
जो गंगा को कुछ दूर तक रोक लेते हैं  
जो बिना पक्षपात किसी भी बच्चे को मुस्कान दे सकते हैं  … 

       ऐसी ही भावों की साम्राज्ञी गुंजन झाँझरिया को अपनी नज़रों का काजल बना मैँ उपस्थित हूं - 
https://www.facebook.com/gjhajharia

मुझे हर कहीं शब्द ही क्यों नज़र आते हैं।
सब कुछ बोलता दिखाई पड़ता है।
इस पृथ्वी की धुरी पर,
सब चीखता,
अपनी गाथा सुनाता नज़र आता है।
जैसे हो हर किसी के पास,
बुद्धि का तोहफ़ा,
हरेक कण सोचता-समझता लगता है।
रोते हुए लगते हैं जैसे उस गाय के नयन,
कभी खिलखिलाता है पहाड़ का भी मन,
स्वांस लेती हैं शहर की गलियां,
गवाह बनता है हर मोड़ का चौराहा,
खम्बों पर लगी रौशनी कभी कभी,
ऑपरेशन थिएटर की रौशनी जैसा अहसास कराती,
नंगे पांव कचरा बीनता बचपन शर्म से जमीन में गड़ जाता,
उडती हवाई-जहाज सफ़ेद धुएं के साथ,
वृक्षों की कतार गीत गाती चलती जाती ,
नालों में बहता रक्त उठ-उठ कर नाचने लगता,
देवियाँ जब हॉस्पिटल के पिछवाड़े थैलियों में अस्त हो रही होती,
भरोसा जब आंख के सामने विलाप कर रहा होता,
बम विस्फूटित हो उठता घर की चारदीवारी के भीतर,
उस समय बाहर की तरफ दौड़ जाते गृह निवासी,
सब एक एक हो,
खोजने लगते सुकून भरा कोना,
खो देते हाथ अपना पहले,
फिर दर्द में कराहते उम्र भर,
मुझे हर एक के चेहरे पर,
भाग-दौड़ ही क्यों नज़र आती है।
उंचाई सा उठता हर कोई,
फिर ज्यादा हवा के बहाव से दूर चला जाता,
अन्दर-बाहर के वायुदाब में अंतर होते ही फूट पड़ता।
हर पत्थर अकेला हो,
तो कैसे पहाड़ बने?
फिर हरेक कहता ,
कोई मुझसे मिले तो मैं पहाड़ बनूँ।
मुझे हर कहीं शब्द ही क्यों नज़र आते हैं।

सोमवार, 28 अप्रैल 2014

ये मानोगे तुम एक उम्र के बाद




मसि कागद 

दीपक मशाल की शाब्दिक मशाल है, जिसकी रौशनी नए अर्थ देती

 है - मेरी नज़र से नज़रें मिलाते हुए इसने बेबाक सत्य के द्वार खोले हैं  … 



ये मानोगे तुम एक उम्र के बाद

ये दुनिया वो नहीं थी 
जो देखी तुमने
बिन सूरज वाली 
आँखों की खुद की रौशनी में 

ये दुनिया वो नहीं थी 
जो सोची तुमने देकर के जोर दिल पे
ये मानोगे तुम एक उम्र के बाद

अगर नहीं है ये 
शोर से, उमस और पसीने की बू से भरी रेलगाड़ी 
तो आसमानों के बिजनेस क्लास का केबिन भी नहीं 
ये मानोगे तुम एक उम्र के बाद 

तुलसी, ताड़ 
कभी तेंदू पत्तों के बीच से 
हौले से कभी खड़खड़ाकर 
गुजरती हवा जैसा साया ये
आम, चन्दन, नीम या सोंधी मिट्टी में सिमटता है
ये मानोगे तुम एक उम्र के बाद  

ये मानोगे तुम एक उम्र के बाद
ये धुआँ जो हिल सकता है 
हिला नहीं सकता 
ज्यों फूल खिलता है 
खिला नहीं सकता 
इतना कमज़ोर भी नहीं 
ख्वाब देखे चाँद के 
और चाँद पा न सके 
उतना मजबूर भी नहीं 

मगर मूँद लेता है आँखें 
जब सहेजता है सूरज कल के लिए 
रेत सितारों की बिखेरता है
और सितारों को झाड़ देता है फूँक से अपनी 
फिर धरत़ा है सूरज उसी चबूतरे पर 

बेवजह तैरता, रेंगता, दौड़ता, फिसलता 
नाचता- कूदता, चलता और उड़ता बेवजह साया है दुनिया 
ये गाता है बेवजह, खाता है बेवजह 
जाने क्या-क्या और कैसे कराता है बेवजह
ये मानोगे तुम एक उम्र के बाद

दीपक मशाल

शुक्रवार, 25 अप्रैल 2014

परिवर्तन बेहतर हो तो प्रशंसनीय है




वक़्त बदलता है
रिश्ते क्यूँ बदल जाते हैं ?
क्या इतना नशा है प्राप्य का 
कि कर्तव्य-अधिकार शेष न रहे? 
परिवर्तन बेहतर हो तो प्रशंसनीय है 
पर बेबाक, अर्थहीन परिवर्तन ???

आज मेरी नज़र की प्रस्तुति हैं रामाकांत सिंह 


अब सिद्धार्थ बुद्ध नहीं बनेगा
शुद्धोधन अपने पुत्र पर
यशोधरा अपने त्याग पर
कभी गर्व नहीं कर सकेंगे।
क्यों अवतरित होगा भगीरथ
तर्पण करने पूर्वजों के
नहीं बहेगी चन्द्रशेखर की 
जटाओं से गंगा की धारा।

निरपराध बर्बरीक 
अब अपनी गर्दन बचा लेगा
कृष्‍ण के सुदर्शन चक्र से
ठहाका मारेगा स्वजनों के वध पर
परम आनंद लेगा 
सशरीर युद्ध की विभीषिका का।
धृतराष्‍ट प्रसन्न है अपनी दृष्टिटहीनता पर
गांधारी की नंगी आंखों में कोई क्लेष नहीं
दुर्योधन पारंगत हो गया है
युद्ध और राजनीति में।
समय और चक्र!

काट लेगा एकलव्य गुरु द्रोण का अंगूठा
प्रवीण क्यों होगा
अर्जुन
छल से धर्नुविद्या में
किन्तु समर भूमि मे 
कर्ण ही बलि और महानायक होगा।
गोपियों का मोह भंग हो गया
गोकुल का ग्वाला अपंग हो गया
नाग कालिया दह से बाहर निकल

राजपथ पर विष उगल गया
लाक्षागृह का निर्माण पांण्डव करायेंगे
यशोदानंदन कदंब पर बैठे बंशी बजायेंगे
पॉचजन्य धरा रह जायेगा।
परीक्षित बच जायेगा
खण्ड-खण्ड होगा भरत का भरतखण्डे
संजय बदला-बदला धृतराष्‍ट संजय बन गया
समय और च्रक!

अब दशरथ का शब्दभेदी बाण भोथरा हो गया है
श्रवन मरेगा ही नहीं, न मां बाप श्राप देंगे
न होगा पुत्र शोक, न रावण का नाश।
न बाली का वध न सुग्रीव की मित्रता
राघवेद्र सरकार भी अब मर्यादित हो गये हैं
उर्मिला द्वार पर प्रतीक्षा करे
शनै-शनै रामराज्य की कल्पना मे
ऋषियों के साथ जनपद भी आत्मदाह कर लेंगे
गर्व से रावण राज करेगा लंका पर
विभीषण आज्ञाकारी अनुज बन राज-सुख भोगेगा
समय और चक्र!

शकुन्तला अब धर पर नहायेगी
तब ही अंगूठी अंगुली में बच पायेगी
दुष्‍यंत हर पल याद करता रहेगा
राज काज में भी दिया हुआ वादा
भरत निर्भीक खेलेगा सिंह की जगह न्याय से।
हरबोलवा गायेगा झांसी की रानी?
देश की खातिर भगत चढेगा फांसी?
वतन फरोशी के बिस्मिल गीत गायेगा?
चारों पहर बह रही है खून की नदियां
दिल और दिमाग जैसे कुंद हो गया
समय और चक्र!

बुधवार, 9 अप्रैल 2014

आकाश को छूने से पहले (अशोक लव)





तुमने तो सपनों की सम्पूर्ण थाती मुझे दी 
पर मेरा हाथ छोड़ दिया 
अभी तो मैंने उड़ने की कला सीखी ही थी 
कर्तव्यों का अथाह सागर मेरे आगे कर दिया 
कुशल तैराक की क्या बात 
मैं तो तैरना ही नहीं जानता था 
जिम्मेदारियों के पानी में डूबते-उतराते 
बस यही ख्याल आया 
कि 
आकाश को छूने से पहले 
धरती की नमी समझ लेता 
तो अच्छा था ! …   

मेरी नज़रों से गुजरते हुए अशोक लव जी की रचना कुछ ऐसे ही भाव दे गई - रश्मि प्रभा




किशोरावस्था की सपनीली रंगीन दुनिया
गडमडगड हो गई 
कुवारे कच्चे सपनों का काँच तड़क गया 
चुभ गई किरिचें मन-पंखुड़ियों पर
पिता ! क्यों छोड़ दिया तुमने अपना संबल

इतनी जल्दी 
अभी तो उतरी ही थीं आँखों में कल्पनाएँ
कैनवस बाँधा ही था
इकट्ठे क्र रहा था रंग 
तूलिका कहाँ उठा पाया था बिखर गया सब.

उतर आया पहाड़-सा बोझ कंधों पर
आ खड़ी हुई 
जीवन की पगडंडियों में एवरेसटी चुनौतियाँ
छिलते गए पाँव
होते गए खुरदरे करतल
धंसते गए गाल 
स्याह होते गए आँखों के नीचे धब्बे.

गमले में अंकुरित हो
पौधे के आकाश की ओर बढ़ने की प्रक्रिया 
आरंभ ही हुई थी
कहाँ संजो सका सपने पौधा
आकाश को छूने के.

किशोरावस्था ओर वृद्धावस्था के मध्य
रहता है लंबा अंतराल
जीवन का स्वर्ण-काल 
फिसल गया 
मेरी हथेलियों में आते-आते.

तुम छोड़ गए मेरे कंधों पर
अपने कंधों का बोझ 
इसलिए नहीं चढ़ पाया
यौवन की दहलीज पर
तुम भी नहीं छू पाए थे मेरी भांति 
यौवन की चौखट
तुम भी धकेल दिए गए थे
किशोरावस्था से वृद्धावस्था के आँगन में .

तुम्हारे रहते जानता तो पूछता—
क्यों आ जाता है हमारे हिस्से
पीढ़ी –दर-पीढ़ी इतनी जल्दी
यह बुढापा ,
क्यों रख दिया जाता है
बछड़े के कंधों पर
बैल के कंधों का बोझ .

पिता ! तुमने बता दिया होता
तो नहीं उगाता किशोर मन में 
यौवन की फसलों के
लहलहाते खेत.

अशोक लव 

शनिवार, 5 अप्रैल 2014

समाधान




कुछ शब्द तुम्हारे हैं
कुछ मेरे 
भावनाओं की धूप दिखाकर 
इसे कागज की संदूक में रख देते हैं 
एक दिन हमारे बच्चों के काम आएगी  … 

                             रश्मि प्रभा
 - अपर्णा भागवत का सफ़र, और समाधान मेरी नज़र में -



कुछ ढीले से शब्दों का अनमना लिबास
भटकती सांसें
पथराई आँखें
मुंह में बेवजह रेंग रही मीठे कडवे की सीमा रेखा पर सीली सी कडवाहट।

जाने क्या लेकिन कुछ छूटा सा लगता है।

एक अधूरा सपना
कानों में फुसफुसाए गाने के बोल सा कोई अधूरा अरमान
कहीं राह चलते उठाये रंगीन पत्थर से लिखे कुछ भूले से नाम
सूर्योदय से सूर्यास्त तक चलता सफ़र।

इन्हीं दो किनारों के बीच कहीं अपने ही खोये हिस्से की तलाश में -

एक बार किताबें छोड़
खुदके अन्दर ही तलाशती हूँ मैं वो अथाह गहराई
टटोलती हूँ मकसदों और संभावनाओं का कसैला पानी
शायद मिल जाऊं मैं पूरी की पूरी मेरे ही अक्स के मकसद को।

और पाती हूँ भीतर ही कहीं दबे पड़े हैं जवाब सारे।


दिन से रात, रात से दिन
धरती से नीलाम्बर, और आसमां से वापस
रोज़ अपने ही किनारे से क्षितिज तक का चलना एक तरफ़ा
सफ़र सुहाना है, और  संतुष्ट हूँ मैं।

अपर्णा आर भागवत
http://aparna-insearchofself.blogspot.in/

बुधवार, 2 अप्रैल 2014

कुछ देर तो ठहरो …




कुछ रचनाएँ रोककर
सोचने पर मजबूर करती हैं 
कि शब्द यूँ हीं नहीं रचे गए 
मन की कोठरी में कभी अँधेरा हुआ होगा 
कभी उजाला 
कभी प्यास लगी होगी 
कभी मरीचिका से मुलाकात हुई होगी 
....... 
थोडा ठहरो 
आराम करो 
वृक्ष की पत्तियों पर एक नज़र ही डालो 
और क्षणभर के लिए सोचो 
जलती धूप का सामना करके 
ये तुम्हें छाँव दे रही हैं 
बहुत कुछ ये पत्तियाँ कह जाएँगी 
कुछ देर तो ठहरो  …

                         आज मेरी नज़र में तासीर है कनुप्रिया गुप्ता के ब्लॉग 'परवाज़' का - 

फ़ोन की लम्बी लम्बी  बातें कभी वो सुकून नहीं दे  सकती जो चिट्ठी के चंद शब्द देते हैं .तुम्हे कभी लिखने का शौक नहीं था और पढने का भी नहीं तो मेरी न जाने कितनी चिट्ठियां मन की मन में रह गई न उन्हें कागज़ मिले न स्याही .तुम्हारे छोटे छोटे मेसेज भी मैं कितनी बार पढ़ती थी तुमने सोचा भी न होगा ,ये लिखते  टाइम तुमने ये सोचा होगा ,ये गाना अपने मन में गुनगुनाया होगा शायद  परिचित सी मुस्कराहट तुम्हारे होठों पर होगी जब वो सब यादें आती है तो बड़ा सुकून सा मिलता है ..और एक ही कसक रह जाती है काश तुमने कुछ चिट्ठियां भी लिखी होती मुझे तो ये सूरज जो कभी कभी अकेले डूब जाता है,ये चाँद जो रात में हमें मुस्कुराते न देखकर उदास हो जाता है तुम्हारे पास होने पर भी जब तुम्हारी यादें आ कर मेरे सरहाने बेठ जाती हैं इन सबको आसरा मिल जाता ..ये अकेलापन भी इतना अकेला न महसूस करता ....अब तो सोचती हु तुमने न लिखी तो में कुछ चिट्ठियां लिख लू  पर जिस तरह  तुम खो रहे हो दुनिया की भीड़ में तुम्हारे दिल का सही सही पता भी खोने लगा है  तुम तक पहुँच भी  गई गई तो जानती हु  तुम पढोगे नहीं .....पर फिर भी मेरी विरासत रहेगी किसी प्यार करने वाले के लिए ..

तुम्हे चिट्ठियां लिखने की तमन्ना होती है कई बार
पर तुम्हारे दिल की तरह तुम्हारे घर  का पता भी
पिछली  राहों पर छोड़ दिया कहीं भटकता सा 
अब बस कुछ छोटी छोटी यादों की चिड़िया हैं 
जो अकेले  में कंधे पर आ बैठती  है 
उनके साथ तुम्हारा नाम आ जाता है होठों पर
और कुछ देर उन चिड़ियों के साथ खेलकर 
तुम्हारा नाम भी फुर्र हो जाता है 
अगली बार फिर मिलने का वादा करके......
पर सब जानते है कुछ चिट्ठियां कभी लिखी नहीं जाती
कुछ नाम कभी ढाले नहीं जाते शब्दों में  
कुछ लोग बस याद बनने के लिए ही आते है जिंदगी में 
और कुछ वादें अधूरे ही रहे तो अच्छा है.....


 हमें नहीं चाहिए इतिहास की उन किताबों में नाम
जिनमें त्याग की देवी बनाकर स्त्री-गुण गाए जाए
त्याग हमारा स्त्रिय गुण है जो उभरकर आ ही जाता है 
पर इसे बंधन बनाकर हम पर थोपने का प्रपंच बंद करो......

नहीं चाहिए तुम्हारी झूठी अहमतुष्टि के लिए अपनी आत्मा से प्रतिपल धिक्कार....
तुम अपने आहत अहम के साथ जी सकते हो पर हम बिखरी आत्मा के साथ नही....
तुम अगर नर हो तो हमारे जीवन में नारायण का किरदार निभाना बंद करो....

ये सारे घटनाक्रम जो कल इतिहास में लिखे जाने हैं
लिखे जाएंगे तुन्हारे अनुयायियों द्वारा, तुम्हारे गुणगान के लिए
हमेशा की तरह किसी द्रोपदी को महाभारत का कारण सिद्ध करते हुए...
या किसी सीता पर किए गए अविश्वास को धर्म का चोगा पहनाते हुए...

तुमहारे इतिहास के पदानुक्रम में हमें ऊपर या नीचे
कहीं कोई स्थान नहीं चाहिए
हम अपने हिस्से के पन्ने स्वयं लिख लेंगे .....
हो सकता है उन्हें धर्मग्रंथ का मान न मिले
पर तुम्हारे इतिहास में मानखंड़न से बेहतर है
अपनी क्षणिकाओं में सम्मान के साथ लिखा जाना.....