मन की मुखरता शब्द
शब्द से भावों का सिंचन
जो ख़ामोशी में भी कहते हैं अनवरत
वह सबकुछ
जो हमारे अतीत की,
पूरे दिन की कटी हुई
या छीन ली गई फसल होते हैं … नहीं मिलता सबको ऐसा मन
नहीं होता हर कोई शब्दों का धनी
शब्द भी तलाशता है एक शरीर
जिसके भीतर-बाहर
वह अपनी पर्ण कुटी बना सके
और खींच सके उन राहगीरों को
जो भावनाओं की शीतलता तलाशते हैं !
भावनाएँ कितनी भी उदास क्यूँ न हो
उसकी उदासी छू लेती है उनको
जो ज़िन्दगी के मायने जानते हैं
जो गंगा को कुछ दूर तक रोक लेते हैं
जो बिना पक्षपात किसी भी बच्चे को मुस्कान दे सकते हैं …
ऐसी ही भावों की साम्राज्ञी गुंजन झाँझरिया को अपनी नज़रों का काजल बना मैँ उपस्थित हूं -
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मुझे हर कहीं शब्द ही क्यों नज़र आते हैं।
सब कुछ बोलता दिखाई पड़ता है।
इस पृथ्वी की धुरी पर,
सब चीखता,
अपनी गाथा सुनाता नज़र आता है।
जैसे हो हर किसी के पास,
बुद्धि का तोहफ़ा,
हरेक कण सोचता-समझता लगता है।
रोते हुए लगते हैं जैसे उस गाय के नयन,
कभी खिलखिलाता है पहाड़ का भी मन,
स्वांस लेती हैं शहर की गलियां,
गवाह बनता है हर मोड़ का चौराहा,
खम्बों पर लगी रौशनी कभी कभी,
ऑपरेशन थिएटर की रौशनी जैसा अहसास कराती,
नंगे पांव कचरा बीनता बचपन शर्म से जमीन में गड़ जाता,
उडती हवाई-जहाज सफ़ेद धुएं के साथ,
वृक्षों की कतार गीत गाती चलती जाती ,
नालों में बहता रक्त उठ-उठ कर नाचने लगता,
देवियाँ जब हॉस्पिटल के पिछवाड़े थैलियों में अस्त हो रही होती,
भरोसा जब आंख के सामने विलाप कर रहा होता,
बम विस्फूटित हो उठता घर की चारदीवारी के भीतर,
उस समय बाहर की तरफ दौड़ जाते गृह निवासी,
सब एक एक हो,
खोजने लगते सुकून भरा कोना,
खो देते हाथ अपना पहले,
फिर दर्द में कराहते उम्र भर,
मुझे हर एक के चेहरे पर,
भाग-दौड़ ही क्यों नज़र आती है।
उंचाई सा उठता हर कोई,
फिर ज्यादा हवा के बहाव से दूर चला जाता,
अन्दर-बाहर के वायुदाब में अंतर होते ही फूट पड़ता।
हर पत्थर अकेला हो,
तो कैसे पहाड़ बने?
फिर हरेक कहता ,
कोई मुझसे मिले तो मैं पहाड़ बनूँ।
मुझे हर कहीं शब्द ही क्यों नज़र आते हैं।