शब्दों को ओस में भिगोकर ईश्वर ने सबकी हथेलियों में रखे .... कुछ बर्फ हो गए,कुछ नदी बन जीवन के प्रश्नों की प्यास बुझाने लगे .................. शब्दों की कुछ नदियाँ, कुछ सागर मेरी नज़र से =
बहुत मन होता है .....
हाँ ...कभी कभी .....
कुछ कहने ..सुनने का ...
फडफडाते पंछी की तरह
तोड़ कर पिंजरा ...
एक ही श्वास की उड़ान में
पहुँच जाना चाहती हूं
तुम तक ......!!!
मस्तिष्क की शिराएं
खिंचती हैं
सिकुड जाता है हृदय ...
चोपर (choper) पर चलते चाकू सा
गूंजता है स्पंदन ......
शुष्क बुदबुदाहट
चीरती हैं होंठ .....!!!
अंतत: ठंडी
गहरी सांस के साथ
छौंक देती हूं सब कुछ
दो बूँद मौन में ....................!!!!!
अंजू अनन्या
प्रथम पहर ... जीवन का जन्म
सीखने की ..कहने की ... समझने की
सारी कलाएं सीखने से पहले भी
माँ समझती रही मौन को
मेरी भूख को मेरी प्यास को
बढ़ते कदमों की
लड़खड़ाहट को थामती उंगली
मेरे आधे-अधूरे शब्दों को
अपने अर्थ देती मॉं
बोध कराती रिश्तों का
दिखलाती नित नये रंग
मुझे जीवन में
दूजा प्रहर ... मैं युवा किशोरी
मेरी आंखों में सपने थे
कुछ संस्कारों के
कुछ सामाजिक विचारों के
कुछ जिदें थी कुछ मनमानी
माँ समझाती ...
इसमें क्या है सत्य और मिथ्या क्या
समझना होगा ...
ऐसे में हम हो जाते हैं अभिमानी
स्नेह ... समर्पण .. त्याग भी जानो
अपनी खुशियों के संग औरों का
सुख भी तुम पहचानो ....
आंखों की भाषा ... मौन को सुनना
सिखलाती माँ ने मुझे
एक दिन ... गले से लगाकर
अपने नयनों में आंसू भरकर
विदाई की बेला में ...
पाठ पढ़ाया तीजे प्रहर ...का
बेटी से बहू बनाया
माँ ने इक दूजी माँ से मिलवाया
हर रिश्ते का मान किया
सबके निर्णय का सम्मान किया
मेरी गोद में भी
इक नव जीवन आया
यह जीवन यात्रा ... इसके पड़ाव
कभी इतनी सहज़
कभी विषम और दुर्गम
विश्वास का मंत्र
बचपन से ही मेरे कानों में
पढ़ा था माँ ने
मैं उसी महामंत्र के सहारे
आगे बढ़ रही हूं ..
इस जीवन यात्रा मे
नवजीवन का हाथ थामे हुए .... !!!
सीमा सिंघल 'सदा'
SADA
कलम जवाब देती है...
क्या-क्या लिखवाना चाहते हो तुम
मुझसे
देश और दुनिया की तुमको है
क्या पड़ी
अपनी-अपनी देखो, और देखो
कितनी सुखद है ज़िन्दगी
कितना घिसते हो मुझको
सिवाय मुझे बदलने के
और मिलता है
क्या तुमको
कुछ भी तो नहीं बदला
कितना लिखा तुमने
न्याय और अन्याय पर
दरकते विश्वासों और
समाजी सियासत पर
और हर बार थक के बैठ गए
कि अब नहीं उठाऊंगा लेखनी
फिर भी मेरा साथ नहीं छोड़ पाए
अपने ज़ज्बात नहीं छोड़ पाए
अब भी
मुझे छाती से लगाये घूमते हो
ज़माने के गम दिल में समाये घूमते हो
दिल की धड़कन और
बी.पी. बढ़ाये घूमते हो
कभी मेरा भी ख्याल करो
मेरे भी कुछ ख्वाब हैं
कुछ कल्पनाएँ हो आसमानी
लिखूं मै भी कुछ रूमानी
पर हर बार
तुम हो कि उतर आते हो
यथार्थ के धरातल पे
बिना मेरी परवाह किये
डूब जाते हो दुनिया कि हलचल में
माना
तुम्हारे दिल का गुबार है
मुझे क्या, मेरी मर्ज़ी के बिना
मेरे साथ ये तो बलात्कार है
है ना...
- वाणभट्ट