डा. गायत्री गुप्ता 'गुंजन'
मुझे उनकी काया पाषाण की तरह लगती थी हमेशा। क्योंकि उस काया में सोच के ही बवंडर उठते थे, वो सोच जिसका रास्ता सिर्फ मस्तिष्क से होकर जाता था। उस रास्ते पर दूर-2 तक कोई पगडंडी नहीं दिखाई देती थी, जो दिल को छू कर भी गुजरती हो। जिन्दगी के हर फलसफे को तराजू में तौल कर देखते थे। प्लस-माइनस में ही फिट होते थे, उनके गणित के हर फार्मूले। कभी-2 लगता है कि क्या पाषाण इतना कठोर होता है कि जिस घटना का आवेग करोड़ों लोगों के आँसुओं का समन्दर बना कर बहा दे, वह उस व्यक्ति को तिल भर भी डिगा ना पाई। क्या जिन्दगी सिर्फ लाभ-हानि का खेल भर है? क्या आपको नहीं लगता कि कभी-2 हमें माइनस वाले पलड़े पर बैठ कर भी जिन्दगी का नये सिरे से विश्लेषण करना चाहिये।
दो बेटे थे उनके।
आज सुबह ही उनके बड़े बेटे का फोन आया था। खुशखबरी सुना रहा था, पर कुछ दर्द के साथ। बेटी हुयी थी उसकी, पर दर्द की वजह बेटी नहीं थी। उसे रह-2 कर याद आ रही थीं डॉक्टर की कही बातें।
‘‘ मस्तिष्क में पानी भर गया है, ऑपरेशन करना पड़ेगा, बचने की संभावना काफी कम है। अगर बच भी गयी, तो मानसिक रुप से विकलांग हो सकती है आपकी बेटी।‘'
अचानक पिता की आवाज से बेटे की तंद्रा टूटी। डॉक्टर के कहे अन्तिम वाक्य को उसने ज्यों का त्यों दोहरा दिया।
‘‘ हमें आपकी राय की जरुरत है, तभी हम कोई निर्णय ले सकते हैं।''
‘‘ दिमाग तो नहीं खराब हो गया है तुम्हारा? जिन्दगी भर एक अपाहिज को सीने से लगा कर रखोगे? ''
‘‘ और फिर डॉक्टर ने क्या कहा कि मरने की सम्भावना ज्यादा है, तो क्यों बेवजह ऑपरेशन में लाखों रुपये बरबाद कर रहे हो? वैसे भी इस महंगाई में घर का खर्च चलाना मुश्किल पड़ता है। और मुझसे तो कोई उम्मीद भी मत रखना तुम।''
चेहरा सफेद पड़ गया प्रशान्त का अपने पिता की बात सुनकर। शायद आखिरी आशा भी खत्म हो गई थी उसकी, दिल बैठ गया उसका। बेमन से डॉक्टर को मना कर दिया उसने, अनमने भाव से उस फूल सी गुड़िया को घर ले आया।
सुबह से शाम हो गई, पर वो उसके झूले के पास से नहीं हटा। पूरा कमरा खिलौनों से भरा हुआ था। कितने नाजों से सजाया था उसने ये कमरा, अपनी आने वाली सन्तान के लिए। और वो तो एक बेटी ही चाहता था।
एकटक देखे जा रहा था उसके चेहरे को वो। अचानक उसने देखा, उस फूल सी नाजुक बच्ची का चेहरा एक ओर लुढ़क गया है। चली गयी थी वह परी इस दुनिया से, एक पाषाण हृदय की कठोरता का शिकार होकर।
अपने पिता को तो वो माफ नहीं ही कर पाया, साथ ही साथ खुद भी टूटता रहा वो अन्दर ही अन्दर। शायद कहीं भीतर अपने आप को भी दोषी मान रहा था वह। कुछ ही दिनों में हड्डी का ढाँचा हो गया था, शरीर एकदम पीला पड़ गया था।
आज पता नहीं क्यों सुबह से वह अपनी बेटी के कमरे में था। दीवार का सहारा लेकर एकटक उस झूले को ताके जा रहा था, जिसमें उसकी बेटी ने अपनी ज़िन्दगी के कुछ क्षण बिताये थे। झूले को ताकते-2 कब उसकी आत्मा अपनी बेटी से मिलने के लिए प्रस्थान कर गई, खुद उसे भी उसका अहसास नहीं हुआ।
उसके मृत शरीर को उसके पिता अपने साथ ले गये, अन्तिम क्रिया-कर्म के लिये। उनके छोटे बेटे को तो अब तक इस स्थिति का भान ही नहीं था, होता भी कैसे; वो तो एक जरुरी मीटिंग के लिए बाहर गया था।
अचानक कुछ शब्द गूँजे,
‘‘ जल्दी कीजिए, ‘बॉडी' को ले जाने का इन्तजाम कीजिए। अभी थोड़ी देर में सूरज सिर पर चढ़ आएगा और मुझसे धूप में चला नहीं जाता।''
ये शब्द थे उसके पिता के, जो उन्होंने अपने घर के सामने इकट्ठा लोगों से कहे थे।
‘‘ लेकिन आपका छोटा बेटा, वो तो अभी तक आया नहीं, उसका इन्तजार नहीं करेंगे आप? '' - पीछे से किसी की आवाज आई।
‘‘ नहीं, बेवजह उसका नुकसान क्यों करवाउँ। ''
‘‘ वैसे भी, कौन सा, उसके आने से जाने वाला लौट आयेगा। ''
माहौल में निस्तब्धता छायी है, लोग उनके चेहरे को देख रहे हैं।
नेपथ्य से कुछ लोगों के रोने की आवाजें आ रही हैं......................