शनिवार, 26 दिसंबर 2015

मील के पत्थर (१४)




इस दृष्टिकोण को कहेंगे मील का पत्थर 

डॉ हेमंत कुमार 

सान्ताक्लाज से------।

सबके
दुनिया भर के बच्चों के
प्यारे सान्ताक्लाज़
एक बार आप
हमारी बस्ती में जरूर आओ ।
हमें नहीं चाहिए
कोई उपहार
कोई गिफ्ट
कोई खिलौना रंग बिरंगा
आपसे
हमें तो बस
किसी बच्चे की
पुरानी फटी गुदड़ी
या फ़िर कोई
उतरन ही दे देना
जो इस हाड़ कंपाती
ठंडक में
हमें जिन्दा रख सके ।
हमारी असमय
बूढी हो चली माँ
झोपडी के कोने में
टूटी चरपैया पर पडी
रात रात भर खों खों खांसती है
बस एक बार
आप उसे देख भर लेना
सुना है
आपके
देख लेने भर से
बड़े से बड़े असाध्य
रोग के रोगी
भी ठीक हो जाते हैं ।
हमारी बडकी दीदी
तो अम्मा के हिस्से
का काम करने
कालोनियों में जाते जाते
पता नहीं कब
अचानक ही
अनब्याही माँ बन गयी
पर छुटकी दीदी के हाथ
हो सके तो
पीले करवा देना ।
हमारे हाथों में
साइकिलों स्कूटरों कारों के
नट बोल्ट कसते कसते
पड़ गए हैं गड्ढे (गांठें)
अगर एक बार
छू भर लोगे आप
तो शायद हमारी पीड़ा
ख़तम नहीं तो
कुछ काम तो जरूर हो जाएगी ।
चलते चलते
एक गुजारिश और
प्यारे सान्ताक्लाज़
हमारी बस्ती को तो
रोज़
उजाडा जाता है
हम प्रतिदिन
उठा कर फेंके जाते gSa
फूटबkल के मानिंद
शहर के एक कोने से दूसरे
दूसरे से तीसरे
तीसरे से चौथे
और उजkडे जाने की यह
अंतहीन यात्रा है
की ख़तम ही नहीं होती ।
चलते चलते
भागते भागते
हम हो चुके हैं पस्त/क्लांत/परास्त
सान्ताक्लाज़
हो सके तो हमारे लिए भी
दुनिया के किसी कोने में
एक छोटी सी बस्ती
जरूर बना देना ।
सबके
दुनिया भर के
बच्चों के
प्यारे सान्ताक्लाज़
एक बार आप
हमारी बस्ती में जरूर आना ।
000000

मंगलवार, 15 दिसंबर 2015

मील के पत्थर (१३)



जब मन पर बोझ पड़ा था 
आँसू थमते नहीं थे 
तब सब खामोश थे 
जिस दिन बोझ की आदत पड़ी 
आँसू ही मुस्कान बन गए 
तब सब कुछ न कुछ बोलने लगे 
.... !!!

किरण आर्य



कल मैं मिली 


कल मैं मिली मौत से पहले मरे हुए आदमी से, 
जो पूरी सभ्यता को भद्दी गालियों से गरियाता है, 
और अपने पार्थिव शरीर को ढ़ोता लतियाता है,
वो अपनी ही धुन में रमता हठी सा योगी है, 
घुम्मकड प्रवृति का, रह्गिरी के गुण में माहिर जोगी है I

उसके अन्दर है एक आग, जो जीवित रखे है उसे आज भी,
वो है उसका सतत विचारों से जूझना,
भटकना निरंतर भटकना और भटकना,
फिर एक दिन कवितायेँ फूटतीं है अचानक,
सोतों सी उसके अंतस से,
और वो कविताओं का जखीरा लिए विजयी भाव से,
कोलंबस सा मुस्कुराता है, 
जैसे उसकी खोज हुई पूरी, उसकी बेचैनी को विराम मिला,
और फिर वो हो जाता है रीता सूखे घड़े सा,
बदरंग गरियाता अपनी लाश को लात से ठेलता,
तिल-तिल मरता अपने पार्थिव शरीर को ढ़ोता I

उसके मृत शरीर से एक तीव्र सड़ांध है उठती,
जो नथुनों से है टकराती, नाक के बाल तक है जला जाती,
असहनीय सी दुर्गन्ध जो मन को विचलित कर जाती,
अपान वायु के प्रभाव से उपजे वैराग्य भाव सी,
लेकिन उसके विचारों की उर्जा उस दुर्गन्ध को दबा जाती,
और वो सड़ांध हो विलीन कहीं, यथार्थ के धरातल को है घूरती,
यकायक गड्डों में धंसी वो आंखें है मुस्कुराती,
और तब आता है समझ, कि कैसे मर चुका वो शरीर,
आज भी जीने की चाह को करता पोषित है,
और मौत से नज़रे चुराता है 
गरियाता है लतियाता है लेकिन जब बात आती है जिन्दगी की,
तो पोपले से गालों टूटते हुए दांतों बिखरे बेतरतीब से बालों में,
मुस्कुराता जिन्दगी के नगमे गाता है I

कभी आसमान में धान रोपने में तल्लीन,
कभी अपनी कविताओं में 
उपनिषदों का आत्मवाद, बुद्धिष्ट अनात्मवाद, 
भक्तों का मानवतावाद और कम्युनिष्टों का समतावाद,
समाहित करने की तत्परता के साथ विश्व संस्कृति की बात करता वो, 
कभी ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार कर उसमे लीन होने को आतुर,
कर्मठता का यहीं भाव है, जो उसे मरने नहीं देता I

घूरकर देखना और फिर पागल समझे जाने की बात सोच,
शरमा जाना और फिर हिचकते हुए मन के इस भाव की व्याख्या करना,
और खुलकर मुस्कुराना उसका कर जाता है चकित,
ऐसी निश्चलता सहजता सरलता और विचारो की गूढता,
क्या दिखती है तथाकथित बुद्धिजीवी सभ्य समाज में ?
जो मुखौटों के आवरण ओढे अपने दंभ में आसमां की तरफ मूह कर,
थूकने को अमादा है, इस सत्य से अनभिज्ञ की वो थूक गिरेगा उनके ही मूह पर I

वो मात्र अभिनय है नहीं करता नेता होने का,
केवल चिल्लाकर आश्वासन के टुकड़े नहीं है फेंकता,
वो परचम है लहराता उस विश्वास का, 
जो उसकी धंसी आँखों में जिन्दा है, कि बदलेगा सब,
सिर्फ आग चाहिए, और वो उसी आग को पाने की ललक में,
प्रयास है करता फूंक मारता निरंतर बुझी राख में,
चिंगारी पैदा करने के अथक प्रयास में लीन !

वो संत परंपरा और मौखिक परंपरा का उतराधिकारी कहलाता है,
और इस बात से उसके मन में फैलाव का एक सागर लहराता है,
वो चूहे पर हाथी के सवार होने की बात को जायज़ ठहराता है,
वहीँ चूहे पर हाथ के सवार होने को सिरे से खारिज है करता,
जो ये दर्शाता है, कि उसकी संवेदनाये अभी सजीव है,
और ये जीवंतता जो यकायक उसके मुख पर पसर जाती है, 
शरीर की नश्वरता को ठेंगा दिखाती 
उस मरे हुए आदमी में जीने की ललक जगा जाती है .............

गुरुवार, 10 दिसंबर 2015

मील के पत्थर (१२)




चलते चलते  .... रास्ते सपनों के हों 
या कर्तव्यों के 
ईश्वर का वजूद मिलता है 
प्रार्थना के बोल 
अपनी मनःस्थिति के अनुसार निःसृत होते हैं  ......... 

वंदना गुप्ता 


तुम क्या हो ...एक द्वन्द 
**********************
मैं स्वार्थी
जब भी चाहूँगी
अपने स्वार्थवश ही चाहूँगी
तुम्हारे प्रिय भक्तों सा नहीं है मेरा ह्रदय
निष्काम निष्कपट निश्छल
जो द्रवित हो उठे तुम्हारी पीड़ा में
और तुम उनके लिए नंगे पाँव दौड़े चले आओ
जो तुम्हें दुःख न पहुंचे
इसी सोच के कारण साँस लेते भी डरे 
या फिर तुम्हारे मानवीय अवतार लेने से
पृथ्वी पर दुःख सहने से
खुद भी अश्रु बहाने लगें 
और कहने लगें
प्रभु ! मुझे अधम , पापी के कारण बहुत दुःख पाया आपने
न , न , मोहन ऐसा नहीं चाह सकती तुम्हें
नहीं है मुझमे मेरी चाहतों से परे कुछ भी
जानते हो क्यों
क्योंकि
ज्ञान की डुगडुगी सिर उठाने लगती है
कि तुम तो निराकार , निस्पृह , निर्विकार परम ब्रह्म हो
तो तुम्हें कैसे कोई दुःख तकलीफ पीड़ा छू सकती है
तुम कैसे व्यथित हो सकते हो
और मैं दो नावों में सवार हो जाती हों
जब भी तुम्हारे दो रूप पाती हूँ
साकार और निराकार
और हो जाती हूँ भ्रमित
बताओ ऐसे में कैसे संभव है
तार्किक और अतार्किक विश्लेषण
कैसे संभव है
एक तरफ तुम्हें चाहना
तुम्हारी मोहब्बत में बेमोल बिक जाना
तो दूसरी तरफ
तुम्हारे निराकारी निर्विकारी स्वरुप को आत्मसात करते हुए चाहना
क्योंकि
हूँ तो अज्ञानी जीव ही न
जो तुम्हारा पार नहीं पा सकता
और मेरा प्रेम स्वार्थी है
पहले भी कह चुकी हूँ
आदान प्रदान की प्रक्रिया ही बस जानती हूँ
एकतरफा प्रेम करना और निभाये जाना मेरे लिए तो संभव नहीं
उस पर तुम दो रूपों में विराजमान हों
ऐसे में तुम्हारे भ्रमों की उलझन में उलझे
मेरे दिल और दिमाग दोनों ही
द्वन्द के सागर में अक्सर डूबते उतरते रहते हैं
और मैं इस भंवर में जब खुद को घिरा पाती हूँ
सच कहती हूँ
तुम्हारे अस्तित्व से ही निष्क्रिय सी हो जाती हूँ
कभी तुम्हें तो कभी खुद को बेगाना पाती हूँ
तभी तो कहती हूँ मोहन
तुम्हें चाहना मेरे वश की बात नहीं ..
तुम क्या हो 
एक द्वन्द 
या उससे इतर भी कुछ और 
बता सकते हो ?




मैं कोई अतिश्योक्ति नहीं 
***********************

अभी तो मैं खुद अपने आप को नहीं जानती 
फिर कैसे कर सकते हो तुम दावा 
मुझे पूरी तरह जानने का 
जबकि 
मुझे जानने के लिए 
तुम्हें नहीं पढने कोई कायदे 
फिर वो प्रेम के हों 
या द्वेष के
कभी जानने की इच्छा हो 
तो छील लेना मेरी मुस्कराहट को 
कतरे कतरे में उगी रक्तिम दस्तकारियाँ 
बयां कर जायेंगी ज़िन्दगी के फलसफे
कभी किवाड़ों की झिर्रियों से 
बहती हवा को देखा है 
नहीं न ...... बस वो ही तो हूँ मैं 
क्या फर्क पड़ता है 
फिर वो गर्म हो या ठंडी
जब ढह जाएँ 
तुम्हारी कोशिशों के तमाम पुल 
तब खटखटाना दरवाज़ा 
मेरी नज्मों का 
मेरे लफ़्ज़ों का 
मेरी अभिव्यक्ति का 
जहाँ मिलेगा लिखा 
' मुझे जानने को 
बस जरूरत है तो सिर्फ इतनी 
तुम संजीदा हो जाओ 
और पढ सको 
कर सको संवाद 
मूक अभिव्यक्तियों से '
क्योंकि 
यहाँ कोई दरवाज़ा ऐसा नहीं 
जिसे खोला न जा सके 
फिर वो खुदा ही क्यों न हो
मैं कोई अतिश्योक्ति नहीं 
कि जिसके बाद कोई विकल्प न बचे

मंगलवार, 24 नवंबर 2015

मील के पत्थर (११)




घर में वेद हो,पुराण हो, नवरस की खान हो, 
तो शब्द कई मील के पत्थर बनाते हैं  ....... 

आशीष राय जी की 

युग दृष्टि  कलम से मिलते हैं - 



किसी रोज मैं भी,
दवात में, अम्मा के 
पैरों की धूल,
भर लाऊंगा।
उस दिन लिखेगी,
कलम महाग्रंथ कोई।
मैं भी वाल्मीकि,
बन जाऊँगा।  … हैं न कमाल के एहसास ? :)


विश्व वैचित्र्य


कही अतुल जलभृत वरुणालय
गर्जन करे महान
कही एक जल कण भी दुर्लभ
भूमि बालू की खान

उन्नत उपल समूह समावृत
शैल श्रेणी एकत्र
शिला सकल से शून्य धान्यमय
विस्तृत भू अन्यत्र

एक भाग को दिनकर किरणे
रखती उज्जवल उग्र
अपर भाग को मधुर सुधाकर
रखता शांत समग्र

निराधार नभ में अनगिनती
लटके लोक विशाल
निश्चित गति फिर भी है उनकी
क्रम से सीमित काल

कारण सबके पंचभूत ही
भिन्न कार्य का रूप
एक जाति में ही भिन्नाकृति
मिलता नहीं स्वरुप

लेकर एक तुच्छ कीट से
मदोन्मत्त मातंग
नियमित एक नियम से सारे
दिखता कही न भंग

कैसी चतुर कलम से निकला
यह क्रीडामय चित्र
विश्वनियन्ता ! अहो बुद्धि से
परे विश्व वैचित्र्य.



विश्व छला क्यों जाता ?


तारो से बाते करने 
हँस तुहिन- बिंदु है आते 
पर क्यों प्रभात बेला में 
तारे नभ में छिप जाते ?

शशि  अपनी उज्जवलता से 
जग उज्ज्वल करने आता 
पर काले बादल का दल
क्यों उसको ढकने जाता ?

हँस इन्द्रधनुष अम्बर में 
छवि राशि लुटाने आता 
पर अपनी सुन्दरता खो
क्यों रो -रोकर मिट जाता

खिल उठते सुमन -सुमन जब 
शोभा मय होता उपवन 
पर तोड़ लिए जाते क्यों 
खिल कर खोते क्यों जीवन ?

दीपक को प्यार जताने 
प्रेमी पतंग है जाता 
पर हँसते  हँसते उसको 
क्यों अपने प्राण चढ़ाता ?

सहृदय जीव  ही आखिर क्यों 
तन मन की बलि चढ़ाता 
विश्वास शिराओं में गर बहता 
फिर  विश्व छला क्यों  जाता ? 


शनिवार, 21 नवंबर 2015

मील के पत्थर (१०)





किसी की बेहतरीन रचना मुझे वैसे ही लुभाती है
जैसे चॉकलेट्स 
फूल 
झरने 
किसी की बेहतरीन नम रचना मुझे वैसे ही रोकती है 
जैसे -
कोई रोता बच्चा उँगली पकड़के खींचे  … 

आइये आज यहाँ रुकते हैं  … 
Alive Hopes


१) 

ये जो देह है 
कुदरत के लिफ़ाफ़े हैं 
.
.
अंदर दो चार तहों में लिपटी चिठ्ठी सी आत्मा 
उम्र भर बांचनी होती हैं 
पते ठिकाने के लिए नाम दर्ज़ है 
और धर्म /मज़हब की मोहर का ठप्पा 
बाख़ूब पैबस्त 
.
.
किन्हीं सादे लिफाफों में खूबसूरत संदेशे हैं 
कहीं लिपे पुते लिफ़ाफ़े महज भरमाते हैं 
कोई चिट्ठी देह की खिड़की से झांकती 
कोई निर्दोष मुस्कानों में से 
कोई अंदर चिंदी चिंदी हो चुकी 
तो कोई गुमसुम मायूस है 
कोई लिफ़ाफे तो बहुत बड़े हैं 
जिनमें नन्हीं सी चिट्ठी होते हुए भी नदारद है 
और कहीं चिट्ठियां देहों को ओछा कर देती हैं
इन चिट्ठियों में सुन्दर लेखे से भाग्य सिमटे हैं 
कहीं इबारतों में दर्द के मुल्कों के हलफनामे हैं 
कहीं प्रेम के तराने हैं 
कहीं उम्मीदों के पंख बिंधे पंछी फड़फड़ाते हैं
ये देह 
कुदरत के लिफ़ाफ़े हैं
लिफाफो के बर ख़िलाफ़ 
एक कौम पोस्टकार्ड के फ़क़ीरों की है 
अंदर -बाहर की जद्दोजेहद से अलग 
एक दम सरल , सहज , स्पष्ट !
कई डाकिये के क़िरदार हैं 
लिफ़ाफ़ा देख मज़नून जान लेते हैं 
कई तमाम उम्र संग करती देहों की वेदना से बहरे हैं
कई सरे वक़्त देह आचमनों के लोलुप हैं 
कई मौहब्बत के फाहे लिए बेहद फिक्रमंद हैं 
कई चाक़ू कैंचियों की स्टेनगनों से लिफाफों को भूनने को आतुर 
कई आँखों की पनियाली आग से चिट्ठिओं को सुलगा रहे हैं 
कई सफ़र के संग के वादों के इंतज़ार में हैं
ये देह 
कुदरत के लिफ़ाफ़े हैं
पूरी दुनिया एक डाकघर 
जिसमें बहुत सारी चिट्ठिओं की सॉर्टिंग बाकी है 
कुछ बंटने को बाकी हैं 
कुछ बैरंग टीसों के शोकेस में महफूज़ हैं 
कुछ जरुरी रजिस्ट्रियां हैं 
कोई कबीर भी हैं 
लिफाफे की सूरत 
जस की तस धर देने के हुनरबाज !
ये देह 
कुदरत के लिफ़ाफ़े हैं




2)

कितना महान है !
तिनका होना !!!
तिनका यानि कि डूबते हुए की आख़िरी इकलौती उम्मीद !
किसी का सहारा बनना है तो पहले तिनका होना पड़े
तिनका है ही तीन का -- खुद का , खुदा का , उम्मीदों बाधें दूसरों का
तिनका अर्थात बित्ता से वज़ूद लिए किसी का किसी के लिए खुदा होना
तिनका होना अर्थात उस बित्ते से वज़ूद का भी ग़रूर न होना
गर वज़ूद का ग़रूर होगा 
तो उस के बोझ से भारी से हो ख़ुद ही न डूब जायेंगें
और डूबने का ख़ौफ़ लिए कोई कैसे किसी का सहारा हो सके !
सहारा बनने के लिए कोई भी ग़रूर काम न आ सके 
ग़रूर छोड़ते ही , मुर्दा भी तिनका सा तैरने लग जाता है
.
सवाल ये भी है 
कि जिसका ख़ुद कोई वज़ूद ही न हो 
वो कैसे किसी का सहारा बन सकेगा !
ज़वाब सवाल में ही कहीं समाया हुआ कहता है 
कि जो ख़ुद किसी सहारे (आधार ) का मोहताज़ नहीं 
वही सहारा बन सकता है !
डूबने वाला भी सारे अपने डूब गए सामान की फिक्र से खुद को जुदा कर 
ख़ुद के डूबते जाते शरीर की भी परवाह किये बग़ैर 
अपनी ही साँसों की रस्सियों को हाथों से पकडे रहने की हरचंद कोशिश करता 
जेहन में किन्हीं भूले बिसरे खुदाई मिसरों को हड़बड़ाहट में बुदबुदाता
तिनके को तैरते देख लेता है तो हिम्मत बंधती है 
तिनके का कुछ और खोने के ख़ौफ़ से परे हल्का हो तैर पाते देखना ही उसका सहारा पाना है

तिनका होना अलग बात है 
तिनका होकर सहारा बनना अलग
********************************.


बुधवार, 18 नवंबर 2015

मील के पत्थर (९)





कभी प्यार किया है शब्दों से
जो जेहन में उभरते हैं
और पन्नों पर उतरने से पहले गुम हो जाते हैं
उन शब्दों से रिश्ता बनाया है
जो नश्तर बन
दिल दिमाग को अपाहिज बना देते हैं ...
इन शब्दों को श्रवण बन कितना भी संजो लो
इन्हें जाने अनजाने मारने के लिए
कई ज़हरी्ले वाण होते हैं
लेकिन शब्द = फिर भी पनपते हैं
क्योंकि उन्हें खुद पर भरोसा होता है ……
इंसान जन्म ना ले,शब्द ना जन्म लें - तो न सृष्टि की भूमिका होगी,नहीं जागेगा सत्य और ना ही होगा कोई उत्थान या अवसान, ना होगा कहीं मील का पत्थर !

पनपते शब्द भावों के धागों में आज पिरोती हूँ मैं आपको चंचला पाठक की सोच से  


1)

प्रेम में
जब 
देह पर 
बांचा जा रहा होगा
"गरूड़पुराण" 
तुम्हारी आँखों से 
झर रहे 
"तर्पण" के
स्वरों का 
जलाशय 
उत्ताल तरंगों में 
विस्फारित हो रहा होगा
.........................
रोम -रोम के दाह को
संस्कार में 
नहीं गिना जाता
और 
बेकल करवटें 
युगवर्तन का परिसाध्य भी नहीं
अरी ओ युगार्थिनी!
"शीतांग" से लथपथ 
तुम्हारी ज्वाला का 
मर्मभेदी पुरुष 
आखिर किस 
अघोर निद्रा में 
लीन -विलीन
हुआ पड़ा है ...........?
आखिर कौन 
गतिबद्ध है
प्रेम के बंधन में
मुक्ति के अद्वैत को 
साधने के निहितार्थ ...............!!!



2)

किसी 
उत्ताल लहर पर
लिखा होगा 
'आग'
और 
तुम्हारी 
चिता की
अग्नि शिखा पर 
विलाप करता 
अंजुरी भर
'झरना'
तुम्हारे 
निर्भय
मौन पर
हहराती 
ठाठें मारती
अघोर रौरव पर
सम्मोहन छिड़कती 
काशी के 
नीरव का अर्थ
बघारती .........
ओ मेरे पिता !
इस 'मणिकर्णिका' का
उदात्त वैभव
तुम्हारे शवासन में
समाधिलीन
मेरी
अमलीन
स्मृतियाँ हैं.........


3)

तुम इतने मुमुग्ध 
क्यों हो मरुगंध !
सहज तो न थी
तुझ तक की 
सुदीर्घ यात्रा
अब
जब लौट आई हूँ 
मैं
तो निकलते क्यूँ नहीं. .....
नागौरण की 
विष-प्रवास तंद्रा से
महकना था मुझे. ...
पोर-पोर से झरती 
विषम्भरी की 
असांद्र बूंदों से 
उतर जाना था 
उस तल तक 
जहाँ गाते हो 
तुम
अनाहत सुगंध
हमारे मिलन के स्वर में
अक्षर -अक्षर उन्मुक्त 
मंद्र - मन्थर 
पिघल जाता है 
जब
हिमनद का चरम
नदी की 
शिराओं में

सोमवार, 16 नवंबर 2015

मील के पत्थर (८)




मन की कई परतें होती हैं 
चेहरे की शुष्कता में 
नमी हाहाकार करती है 
खुदाई करो, अवशेषों से पहचान होगी 
कुछ कथा ये लिखेंगे 
कुछ कथा वे लिखेंगे 
कुछ अनकहे,अनपढ़े रह जायेंगे  .... 

मेरी यात्रा की कोशिश है, हर पड़ाव पर एक विशेष मुलाकात हो  - आज मैं लाई हूँ विमला तिवारी 'विभोर' जी की कल्पनाओं को http://vimlatiwari.blogspot.in/


पीड़ा तेरे रूप अनेक


कौन बताये क्या है भेद
पीड़ा तेरे रूप अनेक 
पहले पता खोजती फिरती
फिर है मिलती निमित्त विशेष
हाथ पकड़ करती आलिंगन
बनती स्वयं का ही प्रतिवेष
पीड़ा तेरे रूप अनेक

पहले तो करती हो स्वागत
बढ़ कर फिर करती हो अभिषेक
पीड़ा तेरे रूप अनेक

पहली लगती हो रोमांचक
फिर हो जाती हो अभिप्रेत
पहले अनदेखी अनजानी
चहुँदिशि अब तुम ही सर्वेश
पीड़ा तेरे रूप अनेक

वाष्प मेघ जल, वाष्प मेघ जल
अद्भुत विश्व रचयिता एक
यह कैसा अनिकेत निकेतन
दृष्टि एक और दृश्य अनेक
पीड़ा तेरे रूप अनेक

सिन्धु सिमिट कर बिन्दु
पलक में सुन्दर है मुक्तेश
प्रति पद घात बिलखती फिरती
अब सुन्दर मूरत सुविशेष
जाग्रत स्वप्न देखती पलकें
परिचित परिचय में क्या भेद
पीड़ा तेरे रूप अनेक



मधुर नाम है राम तुम्हारा


मधुर नाम है राम तुम्हारा।
परम मंत्र है नाम तुम्हारा॥

राम नाम है, राम राह है, राम लक्ष्य है, राम मंत्र है।
सुन्दर नाम है राम तुम्हारा, सुन्दरतम है रूप तुम्हारा।
मधुर नाम है राम तुम्हारा।

राम भाव है, राम स्तोत्र है, राम आदि है, राम अन्त है।
दिव्य नाम है राम तुम्हारा, दिव्य रूप है राम तुम्हारा।
मधुर नाम है राम तुम्हारा।

राम शक्ति है, राम विजय है, राम प्रेम है, राम इष्ट है।
शुभारम्भ है नाम तुम्हारा, इष्टमंत्र है राम तुम्हारा।
मधुर नाम है राम तुम्हारा।

दिव्य गान है नाम तुम्हारा, जन्म दिवस है नाम तुम्हारा।
आज धन्य लिख लिख नाम तुम्हारा।
आज मुग्ध लख रूप तुम्हारा।
मधुर नाम है राम तुम्हारा।
परम मंत्र है नाम तुम्हारा।।