चलते चलते .... रास्ते सपनों के हों
या कर्तव्यों के
ईश्वर का वजूद मिलता है
प्रार्थना के बोल
अपनी मनःस्थिति के अनुसार निःसृत होते हैं .........
वंदना गुप्ता
तुम क्या हो ...एक द्वन्द
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मैं स्वार्थी
जब भी चाहूँगी
अपने स्वार्थवश ही चाहूँगी
तुम्हारे प्रिय भक्तों सा नहीं है मेरा ह्रदय
निष्काम निष्कपट निश्छल
जो द्रवित हो उठे तुम्हारी पीड़ा में
और तुम उनके लिए नंगे पाँव दौड़े चले आओ
जो तुम्हें दुःख न पहुंचे
इसी सोच के कारण साँस लेते भी डरे
या फिर तुम्हारे मानवीय अवतार लेने से
पृथ्वी पर दुःख सहने से
खुद भी अश्रु बहाने लगें
और कहने लगें
प्रभु ! मुझे अधम , पापी के कारण बहुत दुःख पाया आपने
न , न , मोहन ऐसा नहीं चाह सकती तुम्हें
नहीं है मुझमे मेरी चाहतों से परे कुछ भी
जानते हो क्यों
क्योंकि
ज्ञान की डुगडुगी सिर उठाने लगती है
कि तुम तो निराकार , निस्पृह , निर्विकार परम ब्रह्म हो
तो तुम्हें कैसे कोई दुःख तकलीफ पीड़ा छू सकती है
तुम कैसे व्यथित हो सकते हो
और मैं दो नावों में सवार हो जाती हों
जब भी तुम्हारे दो रूप पाती हूँ
साकार और निराकार
और हो जाती हूँ भ्रमित
बताओ ऐसे में कैसे संभव है
तार्किक और अतार्किक विश्लेषण
कैसे संभव है
एक तरफ तुम्हें चाहना
तुम्हारी मोहब्बत में बेमोल बिक जाना
तो दूसरी तरफ
तुम्हारे निराकारी निर्विकारी स्वरुप को आत्मसात करते हुए चाहना
क्योंकि
हूँ तो अज्ञानी जीव ही न
जो तुम्हारा पार नहीं पा सकता
और मेरा प्रेम स्वार्थी है
पहले भी कह चुकी हूँ
आदान प्रदान की प्रक्रिया ही बस जानती हूँ
एकतरफा प्रेम करना और निभाये जाना मेरे लिए तो संभव नहीं
उस पर तुम दो रूपों में विराजमान हों
ऐसे में तुम्हारे भ्रमों की उलझन में उलझे
मेरे दिल और दिमाग दोनों ही
द्वन्द के सागर में अक्सर डूबते उतरते रहते हैं
और मैं इस भंवर में जब खुद को घिरा पाती हूँ
सच कहती हूँ
तुम्हारे अस्तित्व से ही निष्क्रिय सी हो जाती हूँ
कभी तुम्हें तो कभी खुद को बेगाना पाती हूँ
तभी तो कहती हूँ मोहन
तुम्हें चाहना मेरे वश की बात नहीं ..
तुम क्या हो
एक द्वन्द
या उससे इतर भी कुछ और
बता सकते हो ?
मैं कोई अतिश्योक्ति नहीं
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अभी तो मैं खुद अपने आप को नहीं जानती
फिर कैसे कर सकते हो तुम दावा
मुझे पूरी तरह जानने का
जबकि
मुझे जानने के लिए
तुम्हें नहीं पढने कोई कायदे
फिर वो प्रेम के हों
या द्वेष के
कभी जानने की इच्छा हो
तो छील लेना मेरी मुस्कराहट को
कतरे कतरे में उगी रक्तिम दस्तकारियाँ
बयां कर जायेंगी ज़िन्दगी के फलसफे
कभी किवाड़ों की झिर्रियों से
बहती हवा को देखा है
नहीं न ...... बस वो ही तो हूँ मैं
क्या फर्क पड़ता है
फिर वो गर्म हो या ठंडी
जब ढह जाएँ
तुम्हारी कोशिशों के तमाम पुल
तब खटखटाना दरवाज़ा
मेरी नज्मों का
मेरे लफ़्ज़ों का
मेरी अभिव्यक्ति का
जहाँ मिलेगा लिखा
' मुझे जानने को
बस जरूरत है तो सिर्फ इतनी
तुम संजीदा हो जाओ
और पढ सको
कर सको संवाद
मूक अभिव्यक्तियों से '
क्योंकि
यहाँ कोई दरवाज़ा ऐसा नहीं
जिसे खोला न जा सके
फिर वो खुदा ही क्यों न हो
मैं कोई अतिश्योक्ति नहीं
कि जिसके बाद कोई विकल्प न बचे
वंदना की रचनाएँ बेहतरीन होती हैं
जवाब देंहटाएंतुम्हें पसंद आती हैं मेरे लिए यही काफी है मुकेश .....आभार
हटाएंआपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" शुक्रवार 11 दिसम्बर 2015 को लिंक की जाएगी............... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंदी आप कब कहाँ कहाँ से कवितायें खोजकर निकाल लेती हैं ये तो जब खुद को आपकी नज़र से देखो तब पता चलता है ............दिल से आभार दी :) :)
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी रचनाएँ ....बधाई
जवाब देंहटाएंवंदना जी का लेखन सदैव दिल को छूता रहा है...बधाई
जवाब देंहटाएंवंदना जी का लेखन सदैव दिल को छूता रहा है...बधाई
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी कवितायें ।
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी कवितायें ।
जवाब देंहटाएंUttam Bhaav _((()))_
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी रचनाएं हैं आपकी...
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