रविवार, 1 नवंबर 2015

मील के पत्थर (२)





भावनायें अहले सुबह सूर्य नमस्कार के साथ, सपनों की निशब्द साँसों की दुनिया में अलख जगाती चलती हैं, कोई उन्हें पिरो लेता है, कोई आँखों में भर लेता है, कोई जीने का सम्पूर्ण सबब बना लेता है  … कागज़ पर कब क्या उतर आए, ये उतारनेवाला भी नहीं जानता।  पढ़नेवाले की नज़रों में कब कौन लेखन मुखर हो, सुकून दे जाये, सब अचानक होता है  - 

आज मेरी नज़र में मीलों तक फैली वंदना बाजपेयी हैं -


घर वापसी



रोटी की तलाश में घर से दूर गए लोग
हर रोज देते हैं दिलासा खुद को
बस कुछ समय और
कि एक दिन लौट जायेंगे घर की ओर
गाते हुए राग मल्हार 
जैसे लौट आते है पखेरू
अपने घोंसलों में मीलों उड़ने के बाद

पर घर वापस आना
सदा घर वापस आना नहीं होता...........
कभी-कभी समय की चाक पर पक कर
रिश्ते ले चुके होते है
कोई दूसरा आकार
या उम्र के साथ हो जाता है दृष्टि भ्रम
दूर से जो नज़र आते थे पास
अब पास से नज़र आते हैं दूर
कभी- कभी टूट चुका होता है
खुद काही कोई कोना
चटके दरके कई टुकड़ों में
कहाँ आ पाते हैं साबुत
..
.
या कभी -कभी जिनकी तलाश में
आते हैं लौटकर
ढूढ़ते हैं जिन्हें बदहवास
वो लोरियां छुप गयी होती हैं
फ्रेम में जड़ी तस्वीर पर चढ़ी माला में
या दिन -रात खटकती हुई लाठी
मात्र रह जाती है टंग कर अलगनी पर
अनछुई सी
जब भी घर से बाहर निकलों
येसोच लेना
कि घर वापस आना
सदा घर वापास आना नही होता...........


                ।भीड़ का मनोविज्ञान।


बहुत कठिन है समझना
भीड़ का मनोविज्ञान
जब ये साथ चलती है
उसमे आ जाता है
सौ हाथियों का बल
बड़ी-बड़ी सत्ताएं
हिल जाती हैं
ये जिसे चाहे राजा
बना सकती है
ये जिसे चाहे धूल
चटा सकती है

भीड़ चलते-चलते
रास्ते से एक
पत्थर उठाती है
उसे हीरा बताती है
अचानक सहस्त्र स्वर
स्वर में स्वर मिलाने लगते हैं
वो पत्थर भी खुद बदलने लगता है
और हीरा बनने लगता है

असली हीरे चिल्लाते हैं
पड़े-पड़े धूल खाते हैं
पर भीड़ मानने को
तैयार नहीं होती
उसमें वाद-विवाद
या तकरार नहीं होती
फिर हीरे भी भीड़ में मिल जाते हैं
और पत्थरों को हीरा बताते हैं

अलग ही होता है
भीड़ का हर काम
बहुत कठिन है समझना
भीड़ का मनोविज्ञान


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