रविवार, 16 जून 2013

मेरी नज़र से कुछ मील के पत्थर - 1 )



शब्दों को ओस में भिगोकर ईश्वर ने सबकी हथेलियों में रखे .... कुछ बर्फ हो गए,कुछ नदी बन जीवन के प्रश्नों की प्यास बुझाने लगे .................. शब्दों की कुछ नदियाँ, कुछ सागर मेरी नज़र से = 


कुछ मेरी कलम से kuch meri kalam se **: वर्जित यादें



कुछ लफ्ज़ ज़िन्दगी के
सिर्फ खुद से ही पढ़े जाते हैं
वही लफ्ज़ जो दिल की गहराइयों में
दबे गए कभी सोच कर 
कभी भूल से 
जैसे ...........
कुछ भूली हुई सभ्यताएं
जो  नजर आती है 
सिर्फ जमीनों के खोदने से
ठीक वैसे ही
"कुछ यादें  "जो दबी हैं
ज़िन्दगी के उन पन्नो में
जो वर्जित है सच जानने से पहले
दुनिया की नजरों में आना
और वो पन्ने पढ़े हैं सिर्फ उन्ही ने
जो जानते हैं  कि
" कहाँ क्या दफ़न हुआ था ?"

रंजू भाटिया 

कुछ मेरी कलम से 




एक अंगारा उठाया था कर्तव्यों का
जलती हुई जिन्दगी की आग से,
हथेली में रख फोड़ा उसे
फिर बिखेर दिया जमीन पर...
अपनी ही राह में, जिस पर चलना था मुझे
टुकड़े टुकड़े दहकती साँसों के साथ और
जल उठी पूरी धरा इन पैरों के तले...
चलता रहा मैं जुनूनी आवाज़ लगाता
या हुसैन या अली की!!!
ज्यूँ कि उठाया हो ताजिया मर्यादाओं का
पीटता मैं अपनी छाती मगर
तलवे अहसासते उस जलन में गुदगुदी
तेरी नियामतों की,
आँख मुस्कराने के लिए बहा देती
दो बूँद आँसूं..
ले लो तुम उन्हें
चरणामृत समझ
अँजुरी में अपनी
और उतार लो कंठ से
कह उठूँ मैं तुम्हें
हे नीलकंठ मेरे!!
-सोच है इस बार
कि अब ये प्रीत अमर हो जाये मेरी!!

-समीर लाल ’समीर’



ज़ख़्मी जुबान  
मिटटी में नाम लिखती है 
कोई जंजीरों की कड़ियाँ तोड़ता  है
दर्द की नज़्म लौट आती है समंदर से
दरख्त फूल छिड़क कर 
मुहब्बत का ऐलान करते हैं 
मैं रेत से एक बुत तैयार करती  हूँ 
और हवाओं से कुछ सुर्ख रंग चुराकर
रख देती हूँ उसकी हथेली पे 
मुझे उम्मीद है 
इस बार उसकी आँखों  से 
आंसू जरुर बहेंगे ....!!

हरकीरत हीर .

हरकीरत ' हीर'

.



सुनो 
मत खाना तरस मुझ पर 
नहीं करना मेरे हक़ की बात 
न चाहिए कोई आरक्षण 
नहीं चाहिए कोई सीट बस ,ट्रेन या सफ़र में 
मैंने तुमसे कब ये सब माँगा ?
जानते हो क्यों नहीं माँगा 
क्योंकि 
तुम कभी नहीं कर सकते मेरी बराबरी 
तुम कभी नहीं पहुँच सकते मेरी ऊँचाईयों पर 
तुम कभी नहीं छू सकते शिखर हिमालय का 
तो कैसे कहते हो 
औरत मांगती है अपना हिस्सा बराबरी का 
अरे रे रे ..............
फ़िलहाल तो 
तुम डरते हो अन्दर से 
ये जानती हूँ मैं 
इसलिए आरक्षण , कोटे की लोलीपोप देकर 
अपने कर्त्तव्य की इतिश्री करते हो 
जबकि मैं जानती हूँ 
तुम मेरे बराबर हो ही नहीं सकते 
क्योंकि 
हूँ मैं ओत-प्रोत मातृत्व की महक से 
जनती हूँ जीवन को ......जननी हूँ मैं 
और जानते हो 
सिर्फ जनते समय की पीड़ा का 
क्षणांश भी तुम सह नहीं सकते 
जबकि जनने से पहले 
नौ महीने किसी तपते रेगिस्तान में 
नंगे पाँव चलती मैं स्त्री 
कभी दिखती हूँ तुम्हें थकान भरी 
ओज होता है तब भी मेरे मुख पर 
और सुनो ये ओज न केवल उस गर्भिणी 
गृहणी के बल्कि नौकरीपेशा के भी 
कामवाली बाई के भी 
वो सड़क पर कड़ी धूप  में 
वाहनों को दिशा देती स्त्री में भी 
वो सड़क पर पत्थर तोडती 
एक बच्चे को गोद में समेटती 
और दूजे को कोख में समेटती स्त्री में भी होता है 
और सुनना ज़रा 
उस आसमान में उड़ने वाली 
सबकी आवभगत करने वाली में भी होता है 
अच्छा न केवल इतने पर ही 
उसके इम्तहान ख़त्म नहीं होते 
इसके साथ निभाती है वो 
घर परिवार और बच्चों की जिम्मेदारी भी 
पूरी निष्ठां और ईमानदारी से 
जरूरी तो नहीं न 
हर किसी को उपलब्ध हों वो सहूलियतें 
जो एक संपन्न घर में रहने वाली को होती हैं 
कितनी तो रोज बस ट्रेन की धक्कामुक्की में  सफ़र कर 
अपने गंतव्य पर पहुँचती हैं 
कोई सब्जी बेचती है तो कोई होटल में 
काम करती है तो कोई 
दफ्तर में तो कोई कारपोरेट ऑफिस में 
जहाँ उसे हर वक्त मुस्तैद भी रहना पड़ता है 
और फिर वहां से निकलते ही 
घर परिवार की जिम्मेदारियों में 
उलझना होता है 
जहाँ कोई अपने बुजुर्गों की सेवा में संलग्न होती है 
तो कोई अपने निखट्टू पति की शराब का 
प्रबंध कर रही होती है 
तो कोई अपने बच्चों के अगले दिन की 
तैयारियों में उलझी होती है 
और इस तरह अपने नौ महीने का 
सफ़र पूरा करती है 
माँ बनना आसान नहीं होता 
माँ बनने के बाद संपूर्ण नारी बनना आसान नहीं होता 
तो सोचना ज़रा 
कैसे कर सकते हो तुम मेरी बराबरी 
कैसे दे सकते हो तुम मुझे आरक्षण 
कैसे दे सकते हो कोटे में कुछ सीटें 
और कर सकते हो इतिश्री अपने कर्त्तव्य की 
जबकि तुम्हारा मेरा तो कोई मेल हो ही नहीं सकता 
मैंने तुमसे कभी ये सब नहीं चाहा 
चाहा तो बस इतना 
मुझे भी समझा जाए इंसान 
मुझे भी जीने दिया जाए 
अपनी इच्छाओं आकांक्षाओं के साथ 
बराबरी करनी हो तो 
आना मेरी ऊँचाई तक 
मेरी जीवटता तक 
मेरी कर्मठता तक 
मेरी धारण करने की क्षमता तक 
जब कर सको इतना 
तब कहना बराबर का दर्जा है हमारा 
जानना हो तो इतना जान लो 
स्त्री हूँ .........कठपुतली नहीं 
जो तुम्हारे इशारों पर नाचती जाऊं 
और तुम्हारी दी हुयी भीख को स्वीकारती जाऊं 
आप्लावित हूँ अपने ओज से , दर्प से 
इसलिए नही स्वीकारती दी हुयी भीख अब कटोरे में 
जीती हूँ अब सिर्फ अपनी शर्तों पर
और उजागर कर देती हूँ स्त्री के सब रहस्य बेबाकी से 
फिर चाहे वो समाजिक हों या शारीरिक संरचना के 
तोड देती हूँ सारे बंधन तुम्हारी बाँधी
वर्जनाओं के , सीमाओं के 
और कर देती हूँ तुम्हें बेनकाब
इसलिय नवाजी जाती हूँ "बेबाक महिला " के खिताब से 
और यदि इसे तुम मेरी बेबाकी समझते हो तो 
गर्व है मुझे अपनी बेबाकी पर 
क्योंकि 
ये क्षमता सिर्फ मुझमे ही है 
जो कर्तव्यपथ पर चलते हुए 
दसों दिशाओं को अपने ओज से नहला सके 
और अपना अस्तित्व रुपी कँवल भी खिला सके 

वंदना गुप्ता 

ज़ख्म…जो फूलों ने दिये



रास्ते लम्बे हैं ... कई शहर,कई गाँव .............. अभी तो कई मील के पत्थर हैं - धीरे धीरे मिलते हैं,बस साथ रहिये 

14 टिप्‍पणियां:

  1. मील के पत्थर ...सभी रचनाएँ ....
    आभार रश्मि दी पढ़वाने हेतु ...
    बधाई ...रंजू जी,समीर जी ,हरकीर्त जी और वंदना जी ...

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  2. आप ये सराहनीय कार्य कर के एक मील का पत्थर खुद बन रही हैं जो आगे आने वालों को एक नयी दिशा देगा …………बहुत बहुत आभार दी

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  3. वाकई रश्मि जी मील के पत्थर तो आपके यह सुन्दर प्रयास है जो निरन्तर हमें भी उत्साहित करते रहते हैं ...आपके यह कार्य बहुत ही प्रशंसनीय हैं ..बहुत बहुत शुक्रिया आपका ...

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  4. बहुत सुन्दर रश्मि जी , चुन चुन कर कर नगीने लायीं हैं .

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  5. वाह, जैसे 4 ब्‍लॉग पोस्‍ट एक ही जगह पढ़ने को मि‍ल गईं

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  6. प्रशंसनीय कार्य ..
    शुभ-कामनाएँ ..

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  7. -रंजू भाटिया अपना स्थान बनाने में कामयाब हैं
    -समीर लाल जी हमेशा प्रेरणादायक रहे हैं ..
    -हरकीरत हीर , मुहब्बत की पहचान हैं ..
    और वंदना विद्रोही हैं !!

    आभार आपका इन मील के पत्थरों की याद दिलाने के लिए ..

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