फ़िल्म वही अच्छी होती है- जिसमें ज़िन्दगी के ख़ास हिस्से यानि नौ रस होते हैं और रस को 'काव्य की आत्मा' या 'प्राण तत्व' माना जाता है .
शृंगार रस
हास्य रस
करुण रस
वीर रस
रौद्र रस
भयानक रस
वीभत्स रस
अद्भुत रस
शांत रस
वात्सल्य रस
भक्ति रस
………… किस रस के सागर में हम हैं,
यह लेखक और पाठक,
कलाकार और द्रष्टा-श्रोता ही जानते हैं . आज मैं पुरानी कलम की नवीनता लिए आपके बीच हूँ - किसी के सन्दर्भ में कुछ कहना छोटा मुंह,बड़ी बात जैसी बात होगी,और यह धृष्टता मैं नहीं कर सकती ! श्रद्धा भावना लिए मैं बस ले चलती हूँ आपको कविता,गीत,कहानी .... के घेरदार ओस से भीगे रास्तों पर,जहाँ शाख से जुड़ी पारिवारिक,प्राकृतिक,आध्यात्मि क,प्रेम से रंगी हरी,जर्जर,उगती पत्तियाँ हैं .... है उनकी सरसराहट,उनका सौंदर्य,उनका स्पर्श
तो बढ़ाते हैं कदम उस नाम के साथ,जिनके द्वारा नाम पाकर मैं धन्य हुई - जी हाँ,
कवि सुमित्रानंदन पंत
बाँध दिए क्यों प्राण प्राणों से
तुमने चिर अनजान प्राणों से
गोपन रह न सकेगी
अब यह मर्म कथा
प्राणों की न रुकेगी
बढ़ती विरह व्यथा
विवश फूटते गान प्राणों से
यह विदेह प्राणों का बंधन
अंतर्ज्वाला में तपता तन
मुग्ध हृदय सौन्दर्य ज्योति को
दग्ध कामना करता अर्पण
नहीं चाहता जो कुछ भी आदान प्राणों से
अब सुनते हैं वह गीत - जिसे अश्रुओं के बगैर कभी सुन न सकी . पंडित नरेंद्र शर्मा के लिखे किस गीत को कम कहूँ !- पर यह गीत माँ' के लिए बच्चे के रोम रोम से निकली भावना है
दर भी था थी दीवारें भी
तुमसे ही घर घर कहलाया
तुमसे ही घर घर कहलाया
सूना मंदिर था मन मेरा
बुझा दीप था जीवन मेरा
प्रतिमा के पावन चरणों में
मैं दीपक बनकर मुस्काया
तुमसे ही घर घर कहलाया
देवालय बन गया सुहावन
माँ तुमसे मेरा घर आँगन
आँचल की ममता माया में
पाई सुख की शीतल छाया
तुमसे ही घर घर कहलाया
कैसे हो गुणगान तुम्हारा
जो कुछ है वरदान तुम्हारा
तुमने ही मेरे जीवन के
सपनों को सच कर दिखलाया
तुमसे ही घर घर कहलाया
आँखें मेरी ज्योति तुम्हारी
रह न गई राहें अंधियारी
रहने दो मेरे माथे पर
माँ तुमने जो हाथ बढ़ाया
तुमसे ही घर घर कहलाया
तुमसे ही घर घर कहलाया
कालजयी रचनाएं !!
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