बुधवार, 4 दिसंबर 2013

मेरी नज़र से ओल्ड इज़ गोल्ड - 4





















भगत सिंह करीब १२ वर्ष के थे जब जलियाँवाला बाग हत्याकाण्ड हुआ था। इसकी सूचना मिलते ही भगत सिंह अपने स्कूल से १२ मील पैदल चलकर जलियाँवाला बाग पहुँच गये। इस उम्र में भगत सिंह अपने चाचाओं की क्रान्तिकारी किताबें पढ़ कर सोचते थे कि इनका रास्ता सही है कि नहीं ? गांधी जी का असहयोग आन्दोलन छिड़ने के बाद वे गान्धी जी के अहिंसात्मक तरीकों और क्रान्तिकारियों के हिंसक आन्दोलन में से अपने लिये रास्ता चुनने लगे। गान्धी जी के असहयोग आन्दोलन को रद्द कर देने के कारण देश के तमाम नवयुवकों की भाँति उनमें भी रोष हुआ और अन्ततः उन्होंने देश की स्वतन्त्रता के लिये क्रान्ति का मार्ग अपनाना अनुचित नहीं समझा। उन्होंने जुलूसों में भाग लेना प्रारम्भ किया तथा कई क्रान्तिकारी दलों के सदस्य बने। कुछ समय बाद भगत सिंह करतार सिंह साराभा के संपर्क में आये जिन्होंने भगत सिंह को क्रांतिकारी गतिविधियों में शामिल होने की सलाह दी और साथ ही वीर सावरकर की किताब 1857 प्रथम स्वतंत्रता संग्राम पढने के लिए दी, भगत सिंह इस किताब से बहुत प्रभावित हुए और उन्होंने इस किताब के बाकी संस्करण भी छापने के लिए सहायता प्रदान की, जून 1924 में भगत सिंह वीर सावरकर से येरवडा जेल में मिले और क्रांति की पहली गुरुशिक्षा ग्रहण की, यही से भगत सिंह के जीवन में क्रांतिकारी परिवर्तन आया, उन्होंने सावरकर जी के कहने पर आजाद जी से मुलाकात की और उनके दल में शामिल हुए| बाद में वे अपने दल के प्रमुख क्रान्तिकारियों के प्रतिनिधि भी बने। उनके दल के प्रमुख क्रान्तिकारियों में चन्द्रशेखर आजाद, भगवतीचरण व्होरा, सुखदेव, राजगुरु इत्यादि थे।
 भगतसिंह ने देश की आज़ादी के लिए जिस साहस के साथ शक्तिशाली ब्रिटिश सरकार का मुक़ाबला किया, वह आज के युवकों के लिए एक बहुत बड़ा आदर्श है। इन्होंने केन्द्रीय संसद (सेण्ट्रल असेम्बली) में बम फेंककर भी भागने से मना कर दिया। जिसके फलस्वरूप इन्हें २३ मार्च, १९३१ को इनके दो अन्य साथियों, राजगुरु तथा सुखदेव के साथ फाँसी पर लटका दिया गया। सारे देश ने उनके बलिदान को बड़ी गम्भीरता से याद किया। उनके जीवन ने कई हिन्दी फ़िल्मों के चरित्रों को प्रेरित किया। कुछ फ़िल्में तो उनके नाम से बनाई गयीं जैसे - द लीज़ेंड ऑफ़ भगत सिंह। मनोज कुमार की सन् १९६५ में बनी फिल्म शहीद भगत सिंह के जीवन पर बनायीं गयी अब तक की सर्वश्रेष्ठ प्रामाणिक फिल्म मानी जाती है। काकोरी काण्ड में ४ क्रान्तिकारियों को फाँसी व १६ अन्य को कारावास की सजाओं से भगत सिंह इतने अधिक उद्विग्न हुए कि उन्होंने १९२८ में अपनी पार्टी नौजवान भारत सभा का हिन्दुस्तान रिपब्लिकन ऐसोसिएशन में विलय कर दिया और उसे एक नया नाम दिया हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन। पहले लाहौर में साण्डर्स-वध और उसके बाद दिल्ली की केन्द्रीय असेम्बली में चन्द्रशेखर आजाद व पार्टी के अन्य सदस्यों के साथ बम-विस्फोट करके ब्रिटिश साम्राज्य के विरुद्ध खुले विद्रोह को बुलन्दी प्रदान की। इन सभी बम धमाको के लिए उन्होंने वीर सावरकर के क्रांतिदल अभिनव भारत की भी सहायता ली और इसी दल से बम बनाने के गुर सीखे
"मैं नास्तिक क्यों हूँ" - यह आलेख भगत सिंह ने जेल में लिखा - अपने इस आलेख में भगत सिंह ने ईश्वर को लेकर अनेक तर्क दिए हैं ! उसके कुछ अंश =

मैं पूछता हूँ तुम्हारा सर्वशक्तिशाली ईश्वर हर व्यक्ति को क्यों नहीं उस समय रोकता है जब वह कोई पाप या अपराध कर रहा होता है? यह तो वह बहुत आसानी से कर सकता है। उसने क्यों नहीं लड़ाकू राजाओं की लड़ने की उग्रता को समाप्त किया और इस प्रकार विश्वयुद्ध द्वारा मानवता पर पड़ने वाली विपत्तियों से उसे बचाया? उसने अंग्रेजों के मस्तिष्क में भारत को मुक्त कर देने की भावना क्यों नहीं पैदा की? वह क्यों नहीं पूँजीपतियों के हृदय में यह परोपकारी उत्साह भर देता कि वे उत्पादन के साधनों पर अपना व्यक्तिगत सम्पत्ति का अधिकार त्याग दें और इस प्रकार केवल सम्पूर्ण श्रमिक समुदाय, वरन समस्त मानव समाज को पूँजीवादी बेड़ियों से मुक्त करें? आप समाजवाद की व्यावहारिकता पर तर्क करना चाहते हैं। मैं इसे आपके सर्वशक्तिमान पर छोड़ देता हूँ कि वह लागू करे। जहाँ तक सामान्य भलाई की बात है, लोग समाजवाद के गुणों को मानते हैं। वे इसके व्यावहारिक न होने का बहाना लेकर इसका विरोध करते हैं। परमात्मा को आने दो और वह चीज को सही तरीके से कर दे। अंग्रेजों की हुकूमत यहाँ इसलिये नहीं है कि ईश्वर चाहता है बल्कि इसलिये कि उनके पास ताकत है और हममें उनका विरोध करने की हिम्मत नहीं। वे हमको अपने प्रभुत्व में ईश्वर की मदद से नहीं रखे हैं, बल्कि बन्दूकों, राइफलों, बम और गोलियों, पुलिस और सेना के सहारे। यह हमारी उदासीनता है कि वे समाज के विरुद्ध सबसे निन्दनीय अपराध – एक राष्ट्र का दूसरे राष्ट्र द्वारा अत्याचार पूर्ण शोषण – सफलतापूर्वक कर रहे हैं। कहाँ है ईश्वर? क्या वह मनुष्य जाति के इन कष्टों का मज़ा ले रहा है? एक नीरो, एक चंगेज, उसका नाश हो!

क्या तुम मुझसे पूछते हो कि मैं इस विश्व की उत्पत्ति तथा मानव की उत्पत्ति की व्याख्या कैसे करता हूँ? ठीक है, मैं तुम्हें बताता हूँ। चाल्र्स डारविन ने इस विषय पर कुछ प्रकाश डालने की कोशिश की है। उसे पढ़ो। यह एक प्रकृति की घटना है। विभिन्न पदार्थों के, नीहारिका के आकार में, आकस्मिक मिश्रण से पृथ्वी बनी। कब? इतिहास देखो। इसी प्रकार की घटना से जन्तु पैदा हुए और एक लम्बे दौर में मानव। डार्विन की ‘जीव की उत्पत्ति’ पढ़ो। और तदुपरान्त सारा विकास मनुष्य द्वारा प्रकृति के लगातार विरोध और उस पर विजय प्राप्त करने की चेष्टा से हुआ। यह इस घटना की सम्भवतः सबसे सूक्ष्म व्याख्या है।

तुम्हारा दूसरा तर्क यह हो सकता है कि क्यों एक बच्चा अन्धा या लंगड़ा पैदा होता है? क्या यह उसके पूर्वजन्म में किये गये कार्यों का फल नहीं है? जीवविज्ञान वेत्ताओं ने इस समस्या का वैज्ञानिक समाधान निकाल लिया है। अवश्य ही तुम एक और बचकाना प्रश्न पूछ सकते हो। यदि ईश्वर नहीं है, तो लोग उसमें विश्वास क्यों करने लगे? मेरा उत्तर सूक्ष्म तथा स्पष्ट है। जिस प्रकार वे प्रेतों तथा दुष्ट आत्माओं में विश्वास करने लगे। अन्तर केवल इतना है कि ईश्वर में विश्वास विश्वव्यापी है और दर्शन अत्यन्त विकसित। इसकी उत्पत्ति का श्रेय उन शोषकों की प्रतिभा को है, जो परमात्मा के अस्तित्व का उपदेश देकर लोगों को अपने प्रभुत्व में रखना चाहते थे तथा उनसे अपनी विशिष्ट स्थिति का अधिकार एवं अनुमोदन चाहते थे। सभी धर्म, समप्रदाय, पन्थ और ऐसी अन्य संस्थाएँ अन्त में निर्दयी और शोषक संस्थाओं, व्यक्तियों तथा वर्गों की समर्थक हो जाती हैं। राजा के विरुद्ध हर विद्रोह हर धर्म में सदैव ही पाप रहा है।
ईश्वर की उत्पत्ति के बारे में मेरा अपना विचार यह है कि मनुष्य ने अपनी सीमाओं, दुर्बलताओं व कमियों को समझने के बाद, परीक्षा की घड़ियों का बहादुरी से सामना करने, स्वयं को उत्साहित करने, सभी खतरों को मर्दानगी के साथ झेलने तथा संपन्नता एवं ऐश्वर्य में उसके विस्फोट को बाँधने के लिए - ईश्वर के काल्पनिक अस्तित्व की रचना की। अपने व्यक्तिगत नियमों और अविभावकीय उदारता से पूर्ण ईश्वर की बढ़ा-चढ़ाकर कल्पना एवं चित्रण किया गया। जब उसकी उग्रता तथा व्यक्तिगत नियमों की चर्चा होती है तो उसका उपयोग एक डरानेवाले के रूप में किया जाता है, ताकि मनुष्य समाज के लिए एक खतरा न बन जाए। जब उसके अविभावकीय गुणों की व्याख्या होती है तो उसका उपयोग एक पिता, माता, भाई, बहन, दोस्त तथा सहायक की तरह किया जाता है। इस प्रकार जब मनुष्य अपने सभी दोस्तों के विश्वासघात और उनके द्वारा त्याग देने से अत्यंत दुखी हो तो उसे इस विचार से सांत्वना मिल सकती है कि एक सच्चा दोस्त उसकी सहायता करने को है, उसे सहारा देगा, जो कि सर्वशक्तिमान है और कुछ भी कर सकता है। वास्तव में आदिम काल में यह समाज के लिए उपयोगी था। विपदा में पड़े मनुष्य के लिए ईश्वर की कल्पना सहायक होती है।
 मैं नहीं जानता कि ईश्वर में विश्वास और रोज-बरोज की प्रार्थना - जिसे मैं मनुष्य का सबसे अधिक स्वार्थी और गिरा हुआ काम मानता हूँ - मेरे लिए सहायक सिद्ध होगी या मेरी स्थिति को और चौपट कर देगी। मैंने उन नास्तिकों के बारे में पढ़ा है, जिन्होंने सभी विपदाओं का बहादुरी से सामना किया, अतः मैं भी एक मर्द की तरह फाँसी के फंदे की अंतिम घड़ी तक सिर ऊँचा किए खड़ा रहना चाहता हूँ।
मेरे एक दोस्त ने मुझे प्रार्थना करने को कहा। जब मैंने उसे अपने नास्तिक होने की बात बतलाई तो उसने कहा, ‘देख लेना, अपने अंतिम दिनों में तुम ईश्वर को मानने लगोगे।’ मैंने कहा, ‘नहीं प्रिय महोदय, ऐसा नहीं होगा। ऐसा करना मेरे लिए अपमानजनक तथा पराजय की बात होगी। स्वार्थ के लिए मैं प्रार्थना नहीं करूँगा।’ पाठकों और दोस्तो, क्या यह अहंकार है? अगर है, तो मैं इसे स्वीकार करता हूँ।

तर्क-प्रमाण से परे मेरी नज़र में भगत सिंह युवा शक्ति का अमोघ अस्त्र था  .... आज भी कानों में गूंजती हैं ये पंक्तियाँ -
"बड़ा ही गहरा दाग है यारों जिसका गुलामी नाम है
उसका जीना भी क्या जीना जिसका देश गुलाम है
सीने में जो दिल था यारों
आज बना वो शोला"

"वक़्त आने पर दिखा देंगे तुझे ओ आसमां 
हम अभी से क्या बताएं क्या हमारे दिल में है  …"

भगत सिंह का नाम आए और उनकी माँ का ज़िक्र न हो -
भगत सिंह की माँ होना, ऐसी माँ का बेटा होना सौभाग्य तथा गौरव की बात है |”


भगत सिंह की माँ विधावती जी अदालतमे कुछ खिलाने को कुछ ले आती थी तो भगत सिंह कहते कि पहले बटुकेश्वर को खिलाओ,बटुकेश्वर ­ कहता की माँ पहले भगत सिंह को खिलाओ,अंत मे माँ दोनों को एक साथ खिलाती थी,एक बार अरुणा आसफजेल में गयी तो
एक कोठरी मे से बहुत सुरीलेगीत की आवाज आई,पता चला की भगत सिंह और उनके साथी मस्त होकर गीत
गा रहे थे और
ताल दी जा रही थी
हथकड़ीयोँ से ।
इँकलाब जिन्दाबाद

माँ की छवि को उभारा है अपनी लेखनी में श्रीकृष्ण सरल ने 

शान्ति के वरदान-सी, तुम धवल-वसना कौन?
संकुचित है मौन लख कर तुम्हारा मौन।
दूध की मुस्कान से संपृक्त ये सित केश,
सौम्यता पर शुभ्रता ज्यों विमल परिवेश।

साधुता की, सरल जीवन के लिए यह देन,
उल्लसित मंथित अमल ज्यों ज्योत्स्ना का फेन।
भव्यता धारण किये शुचि धवल दिव्य दुकूल,
या खिले जीवन-लता पर ये सुयश के फूल।

कलुषता निर्वासिनी, यह धवलता की जीत,
संवरित है शीष पर, यह स्नेह का नवनीत।
प्रस्फुटित है भाल पर मानो हृदय का ओप,
साधना पर, सिद्धि का मानो सुखद आरोप।

और मुख पर स्निग्ध अंतर की झलकती क्रांति
लग रही, ज्यों साँस सुख की ले रही हो शांति।
भावनाओं की, मुखाकृति सहज पुण्य-प्रसूति,
झुर्रियों में युग-युगों की सन्निहित अनुभूति।

देह पर चित्रित त्वचा की संकुचित हर रेख,
लग रही वय-पत्र पर ज्यों एक सुन्दर लेख।
या कि जीवन-भूमि पर-डण्डियों का जाल,
चल रहा वय का पथिक संध्या समय की चाल।

कौन हो इस भाँति अपने आप मे तुम लीन?
कौन हो तुम पुण्य-प्रतिमा-सी यहाँ आसीन?
कौन स्नेहाशीष की तुम मूर्ति अमित उदार?
कौन श्रद्धा-भावना ही तुम स्वयं साकार?

कौन तुम, मन में तुम्हारे कौन-सी है व्याधि?
अर्चना हित खींच लाई तुम्हें दिव्य समाधि।
है कृती वह कौन, किसका समाधिस्य कृतित्व?
वन्दना से स्वयं वन्दित, कौन वन व्यक्तित्व?

कौन माँ! ममता-मयी तुम? क्यों नयन में नीर?
उच्छ्वसित उर में तुम्हारे, कौन-सी है पीर?
पूछता हूँ मैं अकिंचन एक कवि अनजान,
भाव-मग्ना कर रहीं तुम किस व्रती का ध्यान?

`बस करो अब वत्स! अपना सुन लिया स्तुति गान,
अब नहीं अपराध आगे कर सकेंगे कान।
बात हौले से करो, स्वर को सम्हाल-सम्हाल,
सो रहा इस भूमि में बरजोर मेरा लाल।

सो रहा है यहाँ, मेरी कोख का भूचाल,
सो रहा इस भूमि से निज शत्रुओं का काल।
सो रहा है मातृ-मन का यहाँ शाश्वत गर्व,
सो रहा सुख से, मना कर वह यहाँ बलि-पर्व।

सो रहा वंशानुक्रम से पुष्ट रक्तोन्माद,
जो कि वातावरण में ढल, बन गया फौलाद।
सो रहा है यहाँ, मेरी आग का प्रिय फूल,
स्वर्ग का सुख दे रही, उसको धरा की धूल।

धूम धरती पर मचा, विद्रोह का वरदान,
यहाँ मेरे दूध का सोया अजस्र उफान।
सो गया उल्लास मेरा, सो गया आमोद,
एक माँ की गोद तज कर, दूसरी की गोद।

ओज अन्तस् का, यहाँ पर कर रहा विश्राम,
वत्स! क्या तुमको बतादूँ उस हठी का नाम?
लाल वह मेरा भगत, था सिंह ही साकार,
जन्म से ही था कहाया गया वह सरदार।

गर्जना उसकी विकट सुन, काँपते थे लाट,
पूत चरणों की तनिक ले लूँ सुशीतल धूल।
सुन लिया, क्या और परिचय रह गया कुछ शेष?
यहाँ मेरी भावना का सो रहा आवेश?

``तनिक ठहरो माँ! हुई वरदान मेरी भूल,
पूत चरणों की तनिक ले लूँ सुशीतल धूल।
इन पगों पर ही रहे युग-युग नमित यह माथ,
फेर दो इस शीष पर माँ! स्नेह-प्रश्लथ हाथ।

सिंह जननी धन्य हो तुम, कोटि बार प्रणम्य,
धन्य निश्चय ही तुम्हारा लाल वीर अदम्य।
किन्तु माँ! शंका तनिक मेरी अभी है शेष,
बात हौले से करूँ, यह क्यों मिला आदेश?

``अरे! इतनी-सी न समझे तुम सरल सी बात,
मानवी मन के कहाते पारखी निष्णात।
सत्य है, शंका तुम्हारी है नहीं निर्मूल,
अर्थ मेरे भाव का तुमने लिया प्रतिकूल।

वार्ता के तीव्र स्वर से जागने का खेद,
शान्ति के संकेत का मेरा नहीं यह भेद।
वार्ता का विषय कर सकता है उसे त्रस्त,
निज प्रशंसा-श्रवण का, वह था नहीं अभयस्त।

वत्स! दो बातें न की उसने कभी स्वीकारा,
स्वयं का गुण-गान, या फिर शत्रु की ललकार।
देख पाता था न मेरा लाल, आँखें लाल,
निज प्रशंसा भी उसे करती रही बे-हाल।

किन्तु तुमने पूर्ण करने स्वल्प शिष्टाचार,
था `कृती' या `व्रती' शब्दों का किया व्यवहार।
संकुचन के क्षोभ को, उसके लिए यह बात,
है बहुत छोटी, कदाचित् हो बड़ा व्याघात।

आज तक है याद मुझको एक दिन की शाम,
एक दिन आये कहीं से वे, न लूँगी नाम।
साथ उनके आ गये थे मित्र उनके एक,
वार्ता से ही प्रकट अति बुद्धि और विवेक।

प्रस्फुटित वातावरण में हास्य और विनोद,
पा रहे थे हम सभी, वह सरल निश्छल मोद।
किया उपक्रम, मैं करूँ जलपान का उपचार,
सिंह-शावक आ गया मेरे हृदय का हार।

प्रणत होकर अतिथि का, उसने किया सम्मान,
अतिथि की वाणी बनी वरदान का तूफान।
``तुम प्रणत मुझको, प्रणत हो तुम्हें सब संसार,
जियो युग-युग, तुम करो निज सुयश का विस्तार।

देख मेरी और बोले अतिथिवर सप्रयास,
कह रहा जो बात, भाभी! तुम करो विश्वास।
है अडिग विश्वास मन में, यह तुम्हारा लाल,
विश्व में ऊँचा करेगा मातृ-भू का भाल।

आत्मा कहती, बनेगा वीर यह सम्राट,
इस धरा की दासता की बेड़ियों को काट।
पूत के लक्षण प्रकट हैं पालने में आज,
सिंहनी का सुअन होगा विश्व का सरताज।

अल्प वय, इतनी विनय, इतना पराक्रम, ओज,
सिंह-शावक सी ठवनि, ये नयन रक्तंभोज।
देह सुगठित, विक्रमी चितवन समुन्नत भाल,
शत्रुओं का शत्रु होगा यह कठोर कराल।

अतिथिवर की बात में व्यति-क्रम हुआ तत्काल,
विनत होकर बाल ने स्वर में मधुरता ढाल।
कहा-`चाचाजी! अनय यदि मैं करूँ, हो क्षम्य,
बात मुझको लग रही अनपेक्ष और अगम्य।

कह मुझे सम्राट, देते स्वप्न का क्यों जाल?
स्वप्न में राजा बना सकते सदा कंगाल।
मातृ-भू का ही अकिंचन बन सका यदि भृत्य,
सफल समझूँगा सभी मैं साधना के कृत्य।

और यदि गुण-गान आवश्यक, निवेदन एक,
देश के सम्मान का, स्वर में रहें उद्रेक।
सुन प्रशंसा, आदमी कर्तव्य जाता भूल,
अनधिकृत श्लाघा, पतन के लिये पोषक मूल।

जो न करता निज प्रशंसा सुन कभी प्रतिवाद,
अंकुरित उर में हुआ करता प्रमत्त प्रमाद।
विकस यह अंकुर बने जब एक वृक्ष विशाल,
पतन के परिणाम का फिर कुछ न पूछो हाल।

फिर निवेदन विज्ञवर! हो क्षम्य यह व्याघात,
क्षम्य मेरी, आज छोटे मुँह बड़ी यह बात।
अनवरत अपनी प्रशंसा सुन हुआ कुछ क्षोभ,
प्रतिक्रमण का, संवरण मैं कर न पाया लोभ।'

``वार्ता का वत्स! अब मैं क्या करूँ विस्तार,
वह प्रशंसा का सदा करता रहा प्रतिकार।
शान्ति के संकेत का मेरा यही था अर्थ,
और भी शंका रही कुछ शेष सुकवि समर्थ?

``धन्य हो माँ! और क्या शंका रहेगी शेष?
धन्य ऐसे पुत्र पाकर माँ! हमारा देश।
धन्य हूँ मैं, आज सुन कर ये प्रबुद्ध विचार,
है नहीं सामर्थ्य, जो अभिव्यक्त हो आभार।

जानकर यह बात, जिज्ञासा बढ़ी कुछ और,
किन विचारों में पला था देश का सिर-मौर?
किस तरह विकसित हुआ मन में विकट बलिदान?
माँ! करो उपकृत, सुना कुछ और भी प्रतिमान।

वत्स तुम कितने चतुर, कितने उदार विचार,
स्वयं उपकृत का कथन कर, कर रहे उपकार।
मातृ-मन का जानते हो तुम मनोविज्ञान,
बात कर यह, कह रहे प्रमुदित मुझे मतिमान।

लाल मेरा, बालपन में था बहुत शैतान,
हम नहीं केवल,पड़ौसी भी रहे हैरान।
जब झगड़ता, साथियों के केश लेता नोंच,
चिह्न बनते गाल पर, लेता प्रकुप्त खरोंच।

फूल चुनना आग के, थे प्रिय उसे ये खेल,
घोर विपदाएँ विहँस कर लाल लेता झेल।
तोड़ता यह, फोड़ता वह, जोड़ता कुछ और,
थे कुएँ या बावड़ी सब खेलने के ठौर।

क्षमा करता, यदि कभी छोटे करें अपराध,
पर, सबल की धृष्टता का दण्ड था निर्बाध।
चौगुना भी क्यों न हो, वह माँगता था द्वन्द्व,
नम्र था व्यवहार में, संघर्ष में स्वच्छन्द।

मित्र की रक्षार्थ, वह बनता स्वयं था ढाल,
जो उसे नीचा दिखाए, किस सखी का लाल।
बाहुओं का जोर था उसके लिए उन्माद,
मोम-सा तन, किन्तु बनता द्वन्द्व में फौलाद।

स्नेह में भी, बैर में भीं, वह न था परिमेय,
दण्ड था उद्दंडता का, साधुता का श्रेय।
नीति दुश्मन की सही पर स्वजन की न अनीति,
व्यक्ति पर उसकी नहीं, व्यक्तित्व पर थी प्रीति।

और हाँ, पूछी अभी तुमने हृदय की पीर,
पूछते थे तुम, लिये मैं क्यों नयन में नीर।
तो सुनो, है सहज ही सुत, व्यथा का सन्ताप,
सुन न पाती आज मैं निज तात का संलाप।

वह न मेरे पास, मेरी मोद का श्रृंगार,
आज सूना है हृदय, खोकर हृदय का हार।
हैं तड़पते कान सुनने लाल के प्रिय बोल,
हैं कहाँ वे चूम लूँ जो मधुर स्निध कपोल।

अंक में भर लूँ जिसे, वह कहाँ कोमल गात,
वह न मेरे पास, उसकी रह गई है बात।
मातृ-मन्दिर पर हुआ अर्र्पित सुकोमल फूल,
शत्रुओं से जूझ, फाँसी पर गया वह झूल।

सांत्वना देता मुझे है लाल का सन्देश,
``शीघ्र ही स्वाधीन होगा माँ! हमारा देश।
तुम न समझो माँ! तुम्हारी गोद से मैं दूर,
तुम न समझो, आज तुम पर है विधाता क्रूर।

माँ! हमारे देश के जितने हठीले बाल,
वे तुम्हारे ही भगत हैं, वे तुम्हारे लाल।
देख छवि उनकी, किया करना मुझे तुम याद,
विसर्जन मेरा, न बन जाये तुम्हें अवसाद।

स्वर्गं भी है जिस धरा के सामने अति रंक,
जो सभी की माँ हमारी, ले रही वह अंक।
व्यर्थ जायेगा नहीं माँ! एक यह बलिदान,
है निकट स्वाधीनता का सुखद पुण्य-विहान।

मुक्ति की मंगल प्रभाती सुनें जिस दिन कान,
ले नया उत्साह, खग-कुल कर उठें कल गान।
जिस सुबह हो देश का वातावरण स्वच्छन्द,
गा उठें कवि-कण्ठ जिस दिन गीत नव, नव-छंद।

मुक्ति के दिन बाल-रवि की रश्मियों का जाल,
इस धरा पर कुंकुमी आभा अलभ्य उछाल।
पुण्य-भारतवर्ष का जिस दिन करे अभिषेक,
देश के नर-नाहरों की पूर्ण हो जब टेक।

जब उठे दीवानगी की लहर चारों ओर,
गगन-भेदी घोष चूमे जब गगन के छोर।
जब दिशाओं में तरंगित हो हृदय का हर्ष,
विश्व अभिनन्दन करे-जय देश भारतवर्ष!

तब मिलूंगा तुम्हें फूलों की सुरभि के संग,
तुम्हें किरणों में मिलूंगा मैं लिये नव-रंग।
तब पवन अठखेलियाँ कर, करे तुमको तंग,
तब समझना, ये भगत के ही निराले ढंग।

तब लगेगा माँ, दुपट्टा मैं रहा हूँ खींच,
तब लगेगा मैं तुम्हारे दृग रहा हूँ मींच।
भास परिचित स्पर्श का जब हो पुलक के साथ,
हाथ मेरा खींचने, अपना बढ़ा कर हाथ।

जब कहोगी-कौन हे रे ढीठ! तू है कौन?
तब तुम्हें उत्तर मिलेगा एक केवल मौन।
तुम चकित हो, चौंक देखोगी वहाँ सब ओर,
सुन सकोगी हर्ष-ध्वनियाँ और जय का शोर।

एक ही क्यों भगत, देखोगी अनेकों वीर,
नमित नयनों से तुम्हारे चू पडेग़ा नीर।
घुल सकेगा, धुल सकेगा रोष का उन्माद,
गर्व से प्रतिफल करोगी माँ मुझे तुम याद।

तो यही सन्देश सुत का, कर रहा परितोष,
है सराहा भाग्य मैंने, दे न विधि को दोष।
वत्स! अन्तर का बताया है तुम्हें सब हाल,
तुम बताओ, क्यों बने जिज्ञासु तुम इस काल?

``लग रहा माँ! मुझे जैसे आज जीवन धन्य,
आज मुझ-सा भाग्य-शाली कौन होगा अन्य?
कर न पाया तप कि पहले मिल गया वरदान,
पूर्ण होता दिख रहा अपना बड़ा अरमान।

भावनाओं ने हृदय से है किया अनुबन्ध,
क्रान्ति के इस देवता पर लिखूँ छन्द प्रबन्ध।
आ गया इस ओर लेने प्रेरणा मैं आज,
माँ! तुम्हारे लाल की जैसे सुनी अवाज।

लगा जैसे कह रहा हो सिंह आज दहाड़,
लेखनी से कवि निराशा का कुहासा फाड़।
तुम सुकवि हो, मिला वाणी का तुम्हें वरदान,
तुम जगा दो निज स्वरों से देश में बलिदान।

लेखनी की नोंक में भर दो हृदय की शक्ति,
और कह दो धर्म केवल है धरा की भक्ति।
देश की मिट्टी इधर, उस ओर सौ साम्राज्य,
ग्रहण मिट्टी को करो, साम्राज्य हों सौ त्याज्य।

शीष पर धर देश की मिट्टी, करो प्रण आज,
प्राण देकर भी रखेंगे, हम धरा की लाज।
सह न पायेंगे कभी हम, देश का अपमान,
देश का सम्मान है प्रत्येक का सम्मान।

जो उठाये इस हमारी मातृ-भू पर आँख,
रोष की ज्वाला भने, हर फूल की हर पाँख।
भूल कर भी जो छुए इस देश का सम्मान,
कड़कती बिजली बने हर कली की मुस्कान।

लक्ष्य इस आदर्श का, सब को बता दो आज,
सो रहे जो, कवि! जगा दो दे उन्हें आवाज।
आज कवि की लेखनी उगले कुटिल अंगार,
साधना का, रक्त की लाली करे श्रृंगार।

गर्जना का घोष हो, हर शब्द की झंकार,
रोष की हुँकार हो गाण्डीव की टंकार।
शान्ति का सरगम बने संघर्ष का उत्कर्ष,
आज भारतवर्ष का हर वीर हो दुर्द्धर्ष।

कवि! भरो पाषाण में भी आज पागल प्राण,
चाहता युग कवि-स्वरों का आज सत्य प्रमाण।
कर सके यह, लेखनी का तो सफल अस्तित्व,
सफल, वाणी का मिला जो आज तुमको स्वत्व।

``माँ! इसी सन्देश की उर ने सुनी आवाज,
खींच लाई है यही आवाज मुझको आज।
क्रांति के जो देवता, मेरे लिये आराध्य,
काव्य साधन मात्र, उनकी वन्दना है साध्य।

और यह सौभाग्य मेरा, जो यहाँ तुम प्राप्त,
क्या न शुभ संकल्प का संकेत यह पर्याप्त?
तुम करो माँ! आज मुझ पर और भी उपकार,
सिंह-सुत की वार्ता कह, आज सह-विस्तार।

``वत्स! तुमने विवश मुझको कर दिया है आज,
रह न पायेगा हृदय में आज कोई राज।
पर समय का भी हमें रखना पड़ेगा ध्यान,
क्यों न घर चल हम विचारों का करें प्रतिपादन?

दे सकूँगी क्या तुम्हें आतिथ्य का आह्लाद?
और रूखी रोटियों में क्या मिलेगा स्वाद?
किन्तु तुमको पास बैठा, स्नेह का ले रंग,
लाल के चित्रित करूँगी, मैं अनेक प्रसंग।

``माँ! तुम्हारा मान्य है साभार यह प्रस्ताव,
रोटियाँ रूखी भले, रूखा न होगा भाव।
वस्तु में क्या, भावना में ही निहित आनन्द,
काव्य शोभित भाव से, हो भले कोई छन्द।

तो चलो माँ! आज मुझको दो दिशा का दान,
आज मेरी भावनाओं को करो गतिवान।
मुक्त स्नेहाशीष का खोलो अमित भण्डार,
विश्व-जीवन को बने आलोक, माँ का प्यार।

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भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु के बलिदान

भगत सिंह प्रायः यह शेर गुनगुनाते रहते थे-
जबसे सुना है मरने का नाम जिन्दगी है
सर से कफन लपेटे कातिल को ढूँढ़ते हैं।। 

२३ मार्च १९३१ को सायंकाल ७ बजकर २३ मिनट पर भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु फाँसी के फंदे पर झूल गए। श्रीकृष्ण सरल द्वारा लिखी गई कविता उनके ग्रंथ क्रान्ति गंगा से साभार यहाँ दी जा रही है।

आज लग रहा कैसा जी को कैसी आज घुटन है
दिल बैठा सा जाता है, हर साँस आज उन्मन है
बुझे बुझे मन पर ये कैसी बोझिलता भारी है
क्या वीरों की आज कूच करने की तैयारी है?

हाँ सचमुच ही तैयारी यह, आज कूच की बेला
माँ के तीन लाल जाएँगे, भगत न एक अकेला
मातृभूमि पर अर्पित होंगे, तीन फूल ये पावन,
यह उनका त्योहार सुहावन, यह दिन उन्हें सुहावन।

फाँसी की कोठरी बनी अब इन्हें रंगशाला है
झूम झूम सहगान हो रहा, मन क्या मतवाला है।
भगत गा रहा आज चले हम पहन वसंती चोला
जिसे पहन कर वीर शिवा ने माँ का बंधन खोला।

झन झन झन बज रहीं बेड़ियाँ, ताल दे रहीं स्वर में
झूम रहे सुखदेव राजगुरु भी हैं आज लहर में।
नाच नाच उठते ऊपर दोनों हाथ उठाकर,
स्वर में ताल मिलाते, पैरों की बेड़ी खनकाकर।

पुनः वही आलाप, रंगें हम आज वसंती चोला
जिसे पहन राणा प्रताप वीरों की वाणी बोला।
वही वसंती चोला हम भी आज खुशी से पहने,
लपटें बन जातीं जिसके हित भारत की माँ बहनें।

उसी रंग में अपने मन को रँग रँग कर हम झूमें,
हम परवाने बलिदानों की अमर शिखाएँ चूमें।
हमें वसंती चोला माँ तू स्वयं आज पहना दे,
तू अपने हाथों से हमको रण के लिए सजा दे।

सचमुच ही आ गया निमंत्रण लो इनको यह रण का,
बलिदानों का पुण्य पर्व यह बन त्योहार मरण का।
जल के तीन पात्र सम्मुख रख, यम का प्रतिनिधि बोला,
स्नान करो, पावन कर लो तुम तीनो अपना चोला।

झूम उठे यह सुनकर तीनो ही अल्हण मर्दाने,
लगे गूँजने और तौव्र हो, उनके मस्त तराने।
लगी लहरने कारागृह में इंक्लाव की धारा,
जिसने भी स्वर सुना वही प्रतिउत्तर में हुंकारा।

खूब उछाला एक दूसरे पर तीनों ने पानी,
होली का हुड़दंग बन गई उनकी मस्त जवानी।
गले लगाया एक दूसरे को बाँहों में कस कर,
भावों के सब बाँढ़ तोड़ कर भेंटे वीर परस्पर।

मृत्यु मंच की ओर बढ़ चले अब तीनो अलबेले,
प्रश्न जटिल था कौन मृत्यु से सबसे पहले खेले।
बोल उठे सुखदेव, शहादत पहले मेरा हक है,
वय में मैं ही बड़ा सभी से, नहीं तनिक भी शक है।

तर्क राजगुरु का था, सबसे छोटा हूँ मैं भाई,
छोटों की अभिलषा पहले पूरी होती आई।
एक और भी कारण, यदि पहले फाँसी पाऊँगा,
बिना बिलम्ब किए मैं सीधा स्वर्ग धाम जाऊँगा।

बढ़िया फ्लैट वहाँ आरक्षित कर तैयार मिलूँगा,
आप लोग जब पहुँचेंगे, सैल्यूट वहाँ मारूँगा।
पहले ही मैं ख्याति आप लोगों की फैलाऊँगा,
स्वर्गवासियों से परिचय मैं बढ, चढ़ करवाऊँगा।

तर्क बहुत बढ़िया था उसका, बढ़िया उसकी मस्ती,
अधिकारी थे चकित देख कर बलिदानी की हस्ती।
भगत सिंह के नौकर का था अभिनय खूब निभाया,
स्वर्ग पहुँच कर उसी काम को उसका मन ललचाया।

भगत सिंह ने समझाया यह न्याय नीति कहती है,
जब दो झगड़ें, बात तीसरे की तब बन रहती है।
जो मध्यस्त, बात उसकी ही दोनों पक्ष निभाते,
इसीलिए पहले मैं झूलूं, न्याय नीति के नाते।

यह घोटाला देख चकित थे, न्याय नीति अधिकारी,
होड़ा होड़ी और मौत की, ये कैसे अवतारी।
मौत सिद्ध बन गई, झगड़ते हैं ये जिसको पाने,
कहीं किसी ने देखे हैं क्या इन जैसे दीवाने?

मौत, नाम सुनते ही जिसका, लोग काँप जाते हैं,
उसको पाने झगड़ रहे ये, कैसे मदमाते हें।
भय इनसे भयभीत, अरे यह कैसी अल्हण मस्ती,
वन्दनीय है सचमुच ही इन दीवानो की हस्ती।

मिला शासनादेश, बताओ अन्तिम अभिलाषाएँ,
उत्तर मिला, मुक्ति कुछ क्षण को हम बंधन से पाएँ।
मुक्ति मिली हथकड़ियों से अब प्रलय वीर हुंकारे,
फूट पड़े उनके कंठों से इन्क्लाब के नारे ।

इन्क्लाब हो अमर हमारा, इन्क्लाब की जय हो,
इस साम्राज्यवाद का भारत की धरती से क्षय हो।
हँसती गाती आजादी का नया सवेरा आए,
विजय केतु अपनी धरती पर अपना ही लहराए।

और इस तरह नारों के स्वर में वे तीनों डूबे,
बने प्रेरणा जग को, उनके बलिदानी मंसूबे।
भारत माँ के तीन सुकोमल फूल हुए न्योछावर,
हँसते हँसते झूल गए थे फाँसी के फंदों पर।

हुए मातृवेदी पर अर्पित तीन सूरमा हँस कर,
विदा हो गए तीन वीर, दे यश की अमर धरोहर।
अमर धरोहर यह, हम अपने प्राणों से दुलराएँ,
सिंच रक्त से हम आजादी का उपवन महकाएँ।

जलती रहे सभी के उर में यह बलिदान कहानी,
तेज धार पर रहे सदा अपने पौरुष का पानी।
जिस धरती बेटे हम, सब काम उसी के आएँ,
जीवन देकर हम धरती पर, जन मंगल बरसाएँ।।

2 टिप्‍पणियां:

  1. सरल जी को पढवाने के लिए आभार !!

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  2. भगत सिंह और उनकी माता जी का सन्देश तथा श्री कृष्ण सरल जी की रचना पढ़ना सुखद लगा. धन्यवाद.

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