मंगलवार, 14 मई 2013

दिया बन जल रहा हूँ रात के किनारे पर ....




दिशाएँ अनगिनत 
पर रुकावट भी सहस्त्र 
ईश्वर देता है 
पर प्रयास का अर्घ्य भी माँगता है 
कोई इसे हां मान लेता है 
कोई जीत की आहटें पाता है 
दुनिया दो है ....... एक प्रत्यक्ष 
दूसरा अप्रत्यक्ष - जिसमें प्रवेश निशेध नहीं 
बस सामर्थ्य और विश्वास की ज़रूरत है ....

                 रश्मि प्रभा 


दिया बन जल रहा हूँ
रात के किनारे पर 
पर एक परिधि है मेरी  
जहाँ तक पहुँच कर 
रुक जाता हूँ 
थम जाता हूँ 
और तिमिर आकाश का विस्तार 
मुझे संघर्ष करने को 
मजबूर कर रहा होता है

मैंने आँखें खोल रखी हैं 
मगर कहाँ कुछ दिखता है 
एक सीमा के बाहर

दो अलग अलग दुनिया हैं 
मेरे लिए  
एक दृश्य 
एक अदृश्य ....
(जिसका अपना अस्तित्व है)
मैं किसे अपना जानूँ  
किसे सच मानूँ

जहाँ एक ओर 
शून्य विस्तार पाता जा रहा है 
वहीं मेरी दृष्टि 
(शायद शून्य से भी अधिक विस्तृत)
सीमाओं में सिमटी जा रही है

मैं किसे सच मानूँ 
उस शून्य को 
या फिर अपनी दृष्टि को ?

मैं आज भी ...
दिया बन जल रहा हूँ 
रात के किनारे पर 


शिवनाथ कुमार