शनिवार, 17 नवंबर 2012

तुम सुधर नहीं सकतीं सिंड्रेला...


हमको जहां से क्‍या... 

शायदा


सर्दी बढ़ रही है...सुधर जाओ सिंड्रेला।
ज़रा ख़याल करो। 
अपने पांव देखो...कितने खुरदरे और रूखे हैं,जैसे कभी कोमल थे ही नहीं। 
कब तक राजकुमार पर बोझ बनी रहोगी...?
खिड़की पर सिर टिकाए, राह देखोगी कि वह आकर तुम्‍हारा हाल पूछे...?
बहुत समय बीता  उस बात को , जब उसने कांच के नाजु़क सैंडल लेकर लोगों को तुम्‍हारी तलाश में दौड़ा दिया था।  
मत सोचो कि वो सिर्फ तुम्‍हारे लिए बने थे, इत्‍तेफा़क़ भी तो हो सकता है, उनके नाप का सही होना। 
चलो मान लिया, राजकुमार ने तुम्‍हें पांव ज़मीन पर न रखने की ताक़ीद की थी...
पर ये तो नहीं कहा था कि ज़मीन और पांव के बीच की सारी तकलीफों की किताब उसे ही पढ़नी होगी हमेशा...। 
क्‍या ये याद रखना बहुत मुश्किल है कि पांव तुम्‍हारे हैं, इसलिए उनकी फटी बिवाइयों का दुख भी तुम्‍हें ही जानना चाहिए....। 
जाओ सिंड्रेला अपने लिए एक जोड़ी जूते खरीद लो, राजकुमार के पास कुछ और नहीं है तुम्‍हारे लिए, और यूं भी नंगे पांव रहना, तुम्‍हें शोभता है क्‍या...?  
सिंड्रेला, इस बात का भी अब कोई भरोसा है क्‍या... कि राजकुमार के पास तुम्‍हारे साथ नाच लेने का वक्‍़त होगा ही। 

सुनो, हो सके तो सीख लो, सर्दी को सहना, यही दरअसल सर्द नज़र को सीख लेने का पहला सबक़ है। 
लेकिन मुझे पता है, तुमसे कुछ भी नहीं होगा....तुम सुधर नहीं सकतीं सिंड्रेला... क्‍या अब भी नहीं! 

मंगलवार, 6 नवंबर 2012

पाषाण हृदय.....!




डा. गायत्री गुप्ता 'गुंजन' 

 मुझे उनकी काया पाषाण की तरह लगती थी हमेशा। क्‍योंकि उस काया में सोच के ही बवंडर उठते थे, वो सोच जिसका रास्‍ता सिर्फ मस्‍तिष्‍क से होकर जाता था। उस रास्‍ते पर दूर-2 तक कोई पगडंडी नहीं दिखाई देती थी, जो दिल को छू कर भी गुजरती हो। जिन्‍दगी के हर फलसफे को तराजू में तौल कर देखते थे। प्‍लस-माइनस में ही फिट होते थे, उनके गणित के हर फार्मूले। कभी-2 लगता है कि क्‍या पाषाण इतना कठोर होता है कि जिस घटना का आवेग करोड़ों लोगों के आँसुओं का समन्‍दर बना कर बहा दे, वह उस व्‍यक्‍ति को तिल भर भी डिगा ना पाई। क्‍या जिन्‍दगी सिर्फ लाभ-हानि का खेल भर है? क्‍या आपको नहीं लगता कि कभी-2 हमें माइनस वाले पलड़े पर बैठ कर भी जिन्‍दगी का नये सिरे से विश्‍लेषण करना चाहिये। 

दो बेटे थे उनके। 

आज सुबह ही उनके बड़े बेटे का फोन आया था। खुशखबरी सुना रहा था, पर कुछ दर्द के साथ। बेटी हुयी थी उसकी, पर दर्द की वजह बेटी नहीं थी। उसे रह-2 कर याद आ रही थीं डॉक्‍टर की कही बातें। 

‘‘ मस्‍तिष्‍क में पानी भर गया है, ऑपरेशन करना पड़ेगा, बचने की संभावना काफी कम है। अगर बच भी गयी, तो मानसिक रुप से विकलांग हो सकती है आपकी बेटी।‘' 

अचानक पिता की आवाज से बेटे की तंद्रा टूटी। डॉक्‍टर के कहे अन्‍तिम वाक्‍य को उसने ज्‍यों का त्‍यों दोहरा दिया। 

‘‘ हमें आपकी राय की जरुरत है, तभी हम कोई निर्णय ले सकते हैं।'' 

‘‘ दिमाग तो नहीं खराब हो गया है तुम्‍हारा? जिन्‍दगी भर एक अपाहिज को सीने से लगा कर रखोगे? '' 

‘‘ और फिर डॉक्‍टर ने क्‍या कहा कि मरने की सम्‍भावना ज्‍यादा है, तो क्‍यों बेवजह ऑपरेशन में लाखों रुपये बरबाद कर रहे हो? वैसे भी इस महंगाई में घर का खर्च चलाना मुश्‍किल पड़ता है। और मुझसे तो कोई उम्‍मीद भी मत रखना तुम।'' 

चेहरा सफेद पड़ गया प्रशान्‍त का अपने पिता की बात सुनकर। शायद आखिरी आशा भी खत्‍म हो गई थी उसकी, दिल बैठ गया उसका। बेमन से डॉक्‍टर को मना कर दिया उसने, अनमने भाव से उस फूल सी गुड़िया को घर ले आया। 

सुबह से शाम हो गई, पर वो उसके झूले के पास से नहीं हटा। पूरा कमरा खिलौनों से भरा हुआ था। कितने नाजों से सजाया था उसने ये कमरा, अपनी आने वाली सन्‍तान के लिए। और वो तो एक बेटी ही चाहता था। 

एकटक देखे जा रहा था उसके चेहरे को वो। अचानक उसने देखा, उस फूल सी नाजुक बच्‍ची का चेहरा एक ओर लुढ़क गया है। चली गयी थी वह परी इस दुनिया से, एक पाषाण हृदय की कठोरता का शिकार होकर। 

अपने पिता को तो वो माफ नहीं ही कर पाया, साथ ही साथ खुद भी टूटता रहा वो अन्‍दर ही अन्‍दर। शायद कहीं भीतर अपने आप को भी दोषी मान रहा था वह। कुछ ही दिनों में हड्‌डी का ढाँचा हो गया था, शरीर एकदम पीला पड़ गया था। 

आज पता नहीं क्‍यों सुबह से वह अपनी बेटी के कमरे में था। दीवार का सहारा लेकर एकटक उस झूले को ताके जा रहा था, जिसमें उसकी बेटी ने अपनी ज़िन्‍दगी के कुछ क्षण बिताये थे। झूले को ताकते-2 कब उसकी आत्‍मा अपनी बेटी से मिलने के लिए प्रस्‍थान कर गई, खुद उसे भी उसका अहसास नहीं हुआ। 

उसके मृत शरीर को उसके पिता अपने साथ ले गये, अन्‍तिम क्रिया-कर्म के लिये। उनके छोटे बेटे को तो अब तक इस स्‍थिति का भान ही नहीं था, होता भी कैसे; वो तो एक जरुरी मीटिंग के लिए बाहर गया था। 

अचानक कुछ शब्‍द गूँजे, 

‘‘ जल्‍दी कीजिए, ‘बॉडी' को ले जाने का इन्‍तजाम कीजिए। अभी थोड़ी देर में सूरज सिर पर चढ़ आएगा और मुझसे धूप में चला नहीं जाता।'' 

ये शब्‍द थे उसके पिता के, जो उन्‍होंने अपने घर के सामने इकट्‌‌ठा लोगों से कहे थे। 

‘‘ लेकिन आपका छोटा बेटा, वो तो अभी तक आया नहीं, उसका इन्‍तजार नहीं करेंगे आप? '' - पीछे से किसी की आवाज आई। 

‘‘ नहीं, बेवजह उसका नुकसान क्‍यों करवाउँ। '' 

‘‘ वैसे भी, कौन सा, उसके आने से जाने वाला लौट आयेगा। '' 

माहौल में निस्‍तब्‍धता छायी है, लोग उनके चेहरे को देख रहे हैं। 

नेपथ्‍य से कुछ लोगों के रोने की आवाजें आ रही हैं......................

शनिवार, 3 नवंबर 2012

किताब..




















डॉ.अजीत 


तुमसे मिलना
कविता की तरफ लौटना है
तुमसे बिछ्डने का डर
कोई उदास गजल कहने जैसा है
कभी तुम कठिन गद्य की भांति नीरस हो जाती हो
कभी शेर की तरह तीक्ष्ण  
तो कभी तुम्हारी बातों में दोहों,मुहावरों,उक्तियों की खुशबू  आती है
तुम्हारे व्याकरण को समझने के लिए
मै दिन मे कई बार संधि विच्छेद होता हूँ
अंत में
तुम्हारी लिपि को समझने का अभ्यास करते करते
सो जाता हूँ
उठते ही जी उदास हो जाता है
तुमको भूलने ही वाला होता हूँ कि
तुम्हारे निर्वचन याद आ जाते है
जिन्दगी की मुश्किल किताब सा हो गया है
तुम्हे बांचना...
प्रेम के शब्दकोश भी असमर्थ है
तुम्हारी व्याख्या करने में
मेरे जीवन की मुश्किल किताब
तुम्हे खत्म करके मै ज्ञान नही बांटना चाहता
बल्कि मुडे पन्नों
और शब्दों के चक्रव्यूह में फंसकर
दम तोड देना चाहता हूँ
क्योंकि गर्भ ज्ञान के लिहाज़ से
मै तो अभिमन्यू से भी बडा अज्ञानी हूँ।

बुधवार, 31 अक्तूबर 2012

शब्द


[ravi.jpg]
रवि शंकर पाण्डेय 



अक्षर , क ,से ज्ञ ,तक 
व्यक्ति की यात्रा भी यही तक 
अक्षर के जाल 
केचुवे की चाल से तब्दील होता हुआ 
सर्प केंचुल को छोड़ता हुआ 
आक्रामक है यथार्थ 
तड़प ,कसक, अवसाद 
चखता अर्थहीनता का स्वाद  
एक निश्चित से शब्द ,जो व्यक्ति को आदर्श की परिधि में रखता 
जिससे व्यक्तिव बनता 
पुन: अपने केंचुल में आता 
फिर छोड़ता ,फिर निकलता 
करता प्रहार 
जैसे उसका जन्म ही प्रहार के लिए हुआ हो 
और व्यक्ति सह रहा हो 
आदर्शों की खायी जिसमे व्यक्ति धसा जा रहा 
निकलने को मजबूर फंसा जा रहा 
दुखित होता ,प्रताणित करता ,स्वयं को 
करता प्रलाप 
साहब मैंने ही खायी खोदी है 
इसकी मिट्टी सोंधी है 
मै मजबूर हूँ इसकी महक के लिए 
शायद मेरा स्वार्थ ,आत्म तुष्टि का 
भावना द्वारा अभिव्यक्त परमार्थ 
इन दोनों के बीच की कसमकश 
करती वेवश अकेला व्यक्ति कुछ नहीं कर सकता ?
अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ता ?
जनता हूँ रहस्य को 
जनता हूँ जीवन को 
फिर भी लाचार हूँ 
मेरी भवनाएँ मेरी पीछा नहीं छोडती 
वेचैन सी आत्मा तडपती ,कराहती ,
फिर शून्य में ही तो समष्टि है 
समष्टि ही तो सत्य है 
सत्य ही तो जीवन है 
जीवन ही तो प्रवाह है 
प्रवाह जिसने आकर दिया शिलाओं को 
प्रवाह ही पुरुष है 
और शिलाएँ ही संतति

सोमवार, 29 अक्तूबर 2012

सभ्यता, संस्कृति और सुरुचि


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अदा


मनुष्य की आधारभूत,
भावनाओं पर, 
चढ़ते-उतरते,
नित्य नए, 
पर्दों का नाम ही,
'संस्कृति' है,
समाज के, एक वर्ग के लिए, 
दूसरा वर्ग,
सदैव ही 'असभ्य' और 'असंस्कृत',
रहेगा...
फिर क्यों भागना 
इस 'सभ्यता और संस्कृति',
के पीछे...??
जहाँ तक 'सुरुचि' का प्रश्न है..
वो अभिजात वर्ग की,
'असभ्यता' का... 
दूसरा नाम है..!! 
और उसे अपनाना,
हमारी 'सभ्यता'...??

हाँ नहीं तो  !!

गुरुवार, 25 अक्तूबर 2012

राम न अब धरती पर आना.....




राम अपनी मर्यादा न गंवाना 
असुरों के मध्य अब कोई सीता भी नहीं 
तो व्यर्थ है अपमान की पीड़ा सहना 
सीता धरती में ही सुरक्षित हैं अब 
नहीं जन्म लेना चाहती 
सतयुग एक उद्देश्य था 
कलियुग समाप्ति है 
.... होने दो समाप्त 
सतयुग की प्रतीक्षा अब तुम भी करो ....   रश्मि प्रभा)


सीमा सचदेव


राम अभी फिर से न आना 
न आदर्शवाद दिखलाना 
अब है हर जन-जन में रावण 
न कोई मन राम के अर्पण 
धोखेबाज़ के घर में उजाला 
और सच्चाई का मुंह काला 
न कोई सीता न ही लखन 
सर्वोत्तम सत्य बस धन 
कुर्सी का व्यापार चला है 
भ्रष्टाचार में सबका भला है 
देखो सब जुबां न खोलो 
मुंह से राम-राम ही बोलो 
पर रावण को मन से मानो 
करो वही जिसमें हित जानो 
आदर्शों के  पहन नकाब 
ढककर चेहरे  अपने  जनाब
दश नहीं शतकों सर वाले 
सुन्दर पर अन्दर से काले 
न चाहे अब कोई मुक्ति 
पास हो जो कुर्सी की शक्ति 
क्या करनी है राम की भक्ति 
न चाहिए भावों की तृप्ति 
अब न यहाँ कोई हनुमान 
गली-गली में बसे भगवान 
इससे ज्यादा अब क्या बोलें
और कितना छोटा मुंह खोलें 
ख़त्म हो चुके हैं अब वन 
कहाँ बिताओगे तुम जीवन 
नहीं हैं चित्रकूट से पर्वत 
हर चीज़ हुई प्रदूषित 
अब हैं सब मतलब के साथी 
क्या बेटा क्या पोता नाती 
अब जो तुम धरती पर आना 
सर्व-प्रथम खुद को समझाना 
स्व हित सम कोई हित न दूजा 
करनी है लक्ष्मी की पूजा 
स्वयम जियो , सबको जीने दो 
विष को अमृत समझ पीने दो 
पर अपनी कुर्सी न छोड़ो 
स्वार्थ हित हर नाता तोड़ो 
अब न बाप न नातेदारी 
लालच के अब सब व्यापारी 
तुम भी अब खुद को समझा लो 
रावण के संग हाथ मिला लो 
तभी यहाँ रह पाओगे 
वरना 
गुमनामी में खो जाओगे 

सोमवार, 22 अक्तूबर 2012

उत्तरविहीन सवाल


[Kagad+20.JPG]

ओम पुरोहित "कागद"


कुछ लोग
बुन कर ताना-बाना
कूट रचित तानों का
घड़ते हैं सवाल
निकल पड़ते हैं
पाने उनका जवाब 
जो नहीं मिलता उन्हें
वे लौटते हैं
ले कर प्रतिप्रश्न
जिनका होता नहीं
होता ही नहीं 
कोइ जवाब
खुद उनके पास ।

वे भूल जाते हैं
जवाब होता है
हमेशा सवालों का
तानों का नहीं 
तानें उत्पन करते है
असीम तनाव
जो देते हैं जन्म
उत्तरविहीन सवालों को
ऐसे ही सवालों से
मैं भर गया हूं
आज आकंठ
जो चटखा रहे हैं
आज मेरी कनपटियां !

शनिवार, 20 अक्तूबर 2012

कंजंक्टिवाईटिस है दुनिया को


एक छोटा सा परिचय .... इस नज़्म से बेहतर और क्या !

विश्व दीपक 

कंजंक्टिवाईटिस है दुनिया को

उधर मत ताकना,
कंजंक्टिवाईटिस (conjunctivitis) है दुनिया को..

आँखें छोटी किए
बुन रही है 
अपनी सहुलियत से हीं
रास्ता, रोड़े, रंग, रोशनी, रूह, रिश्ते... सब कुछ...

देख रही है
अपने हिसाब से हीं
तुझमें तुझे, मुझमें मुझे...

देख रही है 
अभी तुझे हीं... आँखें लाल किए..


उधर मत ताकना,
बरगला लेगी तुझे भी;
बना लेगी
तुझे भी..खुद-सा हीं....

बुधवार, 17 अक्तूबर 2012

धनुर्धर




अनुभव प्रिय 

बोला अर्जुन,
"हे चक्रधर!
मेरा मात्र एक शर,
राधेय के रथ पर लग,
'पांच-सौ' सूत* पीछे धकेलता है |
 
धिक्कार है इस धनुर्धर पर
है निर्बल जिसका हरेक शर,
जिससे हमारे रथ पर,
'पांच-सूत' का मात्र प्रहार हो पाता है!
 
है यही शूर और यही वीर
जो मुझसे लड़ने चला है?
भाग जाए प्राण बचाकर,
इसके लिए यही भला है!
 
देखा है मैंने कि यह
स्वयं को समझता महारथी है,
भूल रहा है यह सूत-पुत्र
कि वस्तुतः वह सारथी है |
 
 
आया है रण में क्या सोच कर
कि नकेल** थामने वाले कर,
सकेंगे मुझसे लड़?
पूछता हूँ मैं उससे क्या
प्रत्यंचा खींच भी पाता है?”
 
रथ रोक,
बोले श्री कृष्ण,
"हे अर्जुन! सुन!
तू पूर्ण सत्य नहीं जानता,
है तुच्छ जिसे तू मानता,
वह है बड़ा पराक्रमी, बड़ा शूर,
मत हो अहंकार में चूर!
 
अंदर से तेरे कोई मूर्ख है झांकता,
जब भी तू शत्रु को कम है आकता|
तेरी दृष्टि भ्रमित-सी लग रही,
सोच क्या तुझे वह है ठग रही?
 
 
अहंकार को छोड़ 
मन की भीतियाँ तोड़ 
 सुन, उसकी शक्ति
यह सारथी तुझे बतलाता!
 
समस्त विश्व का लिए भार
जिस रथ हों स्वयं हरि विराजमान,
और शिव के अवतार,
विद्यमान हों पताका में हनुमान,
आक तनिक उस रथ का भार!
समझ यह तू, यह भी जान,
कि उस कर्ण का एक वार,
लगभग पांच सूत पीछे धकेल पाता है|
अब बता क्या तेरा वार
उसके वार से कहीं मेल खाता है?
 
निर्मल हुआ अर्जुन के मन का
म्लान-मलिन अभिमान-क्षार** 
और कृष्ण-मुख से समझा वह 
बात सही कुछ इसी प्रकार,
"धन्य कर्ण का बाण हरेक है
करता जो पांच सूत का प्रहार!"
 
...
 शब्दार्थ :
*सूत- छोटी लम्बाई को नापने का मान|
**नकेल-  घोड़े की नाक में बंधी हुई रासी जिससे लगाम का काम किया जाता है|
***अभिमान-क्षार: अभिमान रूपी क्षार( अल्कलाई)

मंगलवार, 16 अक्तूबर 2012

एक पिता का ख़त पुत्री के नाम !(अंतिम भाग )




सतीश सक्सेना

परनिंदा और कटु शब्दों का
बेटी त्याग हमेशा करना   
अगर रहे संयम वाणी पर,
घर में कभी अनर्थ ना होता
कर कल्याण सदा निज घर का बेटी साध्वी बनी रहोगी 
पहल करोगी अगर नंदिनी , घर की रानी तुम्ही रहोगी ! 

ऐसा कोई शब्द ना बोलो 
दूजा मन आहत हो जाए
तेरी जिह्वा की लपटों से 
अन्य ह्रदय घायल हो जाए 
चारों धामों पर जाकर भी मन में शान्ति नही पाओगी
पहल करोगी अगर नंदिनी घर की रानी तुम्ही रहोगी !

कभी न भूलो बेटी! तुमने,
जन्म लिया है मानव कुल में
कुछ विशेष वरदान हमारे ,
कुल को दिए विधाता ने ,
ज्ञान असीमित लेकर बेटी तुम भविष्य निर्माण करोगी
पहल करोगी अगर नंदिनी , घर की रानी तुम्ही रहोगी !

ज्ञान तुम्हारा सार्थक होगा 
घर बाहर दोनों जगहों में 
आशीषों के ढेर लगेंगे ,
जब परिवार तुम्हारे में 
परहित साधक बनो लाडली पूरी तभी साधना होगी ,
पहल करोगी अगर नंदिनी घर की रानी तुम्ही रहोगी

किसने किसका दिल पहचाना 
कौन ह्रदय की भाषा जाने ?
किसने देखा है ईश्वर को ?
किसका पेट भरा बातों से ?
जो सोंचा है करके दिखाओ , सारी श्रष्टि तुम्हारी होगी !
पहल करोगी अगर नंदिनी घर की रानी तुम्ही बनोगी !

वाद विवाद जन्म देता है , 
पति पत्नी के मध्य कलह को
गृह विनाश का बीज उखाडे
नही उखड़ता है, जमने पर
ऋषि मुनियों का दिया मौन अपनाओ घर में शान्ति रहेगी 
पहल करोगी अगर नंदिनी, घर की रानी तुम्ही रहोगी ! 

मौन अस्त्र से गौतम जीते 
अंगुलिमाल झुक गया आगे 
मितभाषी गांधी के आगे ,
झुका महा साम्राज्यवाद भी 
क्रोधित मन शर्मिंदा होगा , अगर मौन को तुम परखोगी !
पहल करोगी अगर नंदिनी, घर की रानी तुम्ही रहोगी !

याद रहे द्रोपदी सरीखी !
वाचालता कभी न आए 
उतना बोलो , जितना 
आवश्यक मंतव्य बताने को 
तेज बोलने वाली नारी, श्रद्धा कभी नही पायेगी !
पहल करोगी अगर नंदिनी,घर की रानी तुम्ही रहोगी !


इतना प्यारा जीवन साथी 
पुत्री धन्य हुईं तुम पाकर 
शायद तेरे निर्मल मन ने 
जीता ह्रदय विधाता का ,
निश्छल मन ईशान को लेकर, बेटी  जीत  तुम्हारी होगी !
पहल करोगी अगर नंदिनी , राज कुमारी तुम्ही  लगोगी  !

सोमवार, 15 अक्तूबर 2012

एक पिता का ख़त पुत्री के नाम ! (पांचवां भाग)



परिणाम परिवार और समाज का यह नहीं कहता कि मर्यादित चाह गलत है - हम कभी अपने बच्चों को गलत करने की सलाह नहीं देते, सत्य के दुखद आघातों से त्रस्त हम उन्हें झूठ बोलना नहीं सिखाते . कुछ परम्पराओं की अपनी ख़ूबसूरती होती है,अपना मूल्य होता है . 

दहेज़ हत्या, जबरदस्ती,तलाक से हम बाज़ार से सिंदूर और चूड़ियों को नहीं मिटा देते . मन हमेशा सत्य शिव और सुन्दर ही चाहता है 


सतीश सक्सेना



कर्कश भाषा ह्रदय को चुभने वाली, कई वार बेहद गहरे घाव देने वाली होती है ! और अगर यही तीर जैसे शब्द अगर नारी के मुख से निकलें तो उसके स्वभावगत गुणों, स्नेहशीलता, ममता, कोमलता का स्वाभाविक अपमान होगा ! और यह बात ख़ास तौर पर, भारतीय परिवेश में, घर के बड़ों के सामने चाहे मायका हो.या ससुराल, जरूर याद रखना चाहिए ! अपने से बड़ों को दुःख देकर सुख की इच्छा करना व्यर्थ है !

नारी की पहचान कराये
भाषा उसके मुखमंडल की
अशुभ सदा ही कहलाई है
सुन्दरता कर्कश नारी की !
ऋषि मुनियों की भाषा लेकर तपस्विनी सी तुम निखरोगी
पहल करोगी अगर नंदिनी, घर की रानी तुम्ही रहोगी !

कटुता , मृदुता नामक बेटी
दो देवी हैं, इस जिव्हा पर
कटुता जिस जिव्हा पर रहती
घर विनाश की हो तैयारी !
कष्टों को आमंत्रित करती, गृह पिशाचिनी सदा हँसेगी !
पहल करोगी अगर नंदिनी, घर की रानी तुम्ही रहोगी !

उस घर घोर अमंगल रहता
दुष्ट शक्तियां ! घेरे रहतीं !
जिस घर बोले जायें कटु वचन
कष्ट व्याधियां कम न होतीं ,
मधुरभाषिणी बनो लाडिली, चहुँ दिशी विजय तुम्हारी होगी
पहल करोगी अगर नंदिनी, घर की रानी तुम्ही रहोगी !

घर में मंगल गान गूंजता,
यदि जिव्हा पर मृदुता रहती
दो मीठे बोलों से बेटी !,
घर भर में दीवाली होती
उस घर खुशियाँ रास रचाएं ! कष्ट निवारक तुम्ही लगोगी !
पहल करोगी अगर नंदिनी ! घर की रानी तुम्ही रहोगी !

अधिक बोलने वाली नारी
कहीं नही सम्मानित होती
अन्यों को अपमानित करके
वह गर्वीली खुश होती है,
सारी नारी जाति कलंकित, इनकी उपमा नहीं मिलेगी !
पहल करोगी अगर नंदिनी ! घर की रानी तुम्ही रहोगी !

शनिवार, 13 अक्तूबर 2012

पिता का ख़त पुत्री को ( चौथा भाग )



सतीश सक्सेना
http://satish-saxena.blogspot.in/


यहाँ एक दुखी पिता अपनी लाडली को विवाह की आवश्यकता बताने, समझाने का प्रयत्न कर रहा है ! भारतीय समाज की सबसे मजबूत गांठ, आज पाश्चात्य सभ्यता समर्थन के कारण खतरे में है ! नारी अपने बिभिन्न रूपों को भूल कर अपने एक ही रूप को याद करने का प्रयत्न कर, तथाकथित जद्दोजहद कर रही है ! एवं आधुनिकीकरण की तरफ़ भागता समाज, हमारी शानदार व्यवस्था भूल कर चमक दमक में खो रहा है ! ऐसे समय में यह कविता बहुतों के माथे पर बल डालेगी, मगर यह एक भारतीय पिता की भेंट है अपनी बेटी को !

बचपन यहाँ बिताकर अब तुम
अपने नए निवास चली हो !
आज पिता की गोद छोड़ कर
करने नव निर्माण चली हो !
केशव का उपदेश याद कर कर्मभूमि में तुम उतरोगी !
पहल करोगी अगर नंदिनी घर की रानी तुम्ही रहोगी !

इतने दिन तुम रहीं पिता की
गोद , मात्र का मान बढाया
अब जातीं घर त्याग अकेली
एक नया संसार बसाया ,
जब भी याद पिता की आये , अपने पास खड़े पाओगी
पहल करोगी अगर नंदिनी, घर की रानी तुम्ही रहोगी !

कोई नन्हा जीवन तेरा ,
खड़ा हुआ बांहे फैलाए !
इस आशा के साथ, उठाओगी
तुम अपनी बांह पसारे !
ले नन्हा प्रतिरूप गोद में , ममतामयी तुम्ही दीखोगी !
पहल करोगी अगर नंदिनी घर की रानी तुम्ही लगोगी !

श्रष्टि नयी की रचना करने,
विधि है इंतज़ार में तेरे !
सुन्दरता की नन्ही उपमा 
खड़ी, तुम्हारी आस निहारे 
तृप्ति मिलेगी रचना करके मांकी गरिमा तुम्हे मिलेगी !
पहल करोगी अगर नंदिनी घर की रानी तुम्ही रहोगी !

नर नारी के शुभ विवाह पर 
गांठ विधाता स्वयं बांधते,
शायद देना श्रेय तुम्ही को 
जग के रचनाकार चाहते ,
जग की सबसे सुंदर रचना की निर्मात्री तुम्ही रहोगी !
पहल करोगी अगर नंदिनी घर की रानी तुम्ही रहोगी !

शुक्रवार, 12 अक्तूबर 2012

आराधना - मेरी नज़र में http://feministpoems.blogspot.in/




पहचान हुई थी इस लड़की से
एक पन्ने की शक्ल में 
जी हाँ- ब्लॉग हमारी पहचान की डायरी 
जिसके हर पन्नों पर हमारी तस्वीर 
हमारे हाथों बनी है ...
तो आराधना के सामने जब मैं खडी हुई 
तो .... उसने कहा 'अहमस्मि'
यानि मैं हूँ !
आह्लादित मैं उसके मन के हर कमरे में दौड़ने लगी 
छोटे छोटे पुर्जों में भी उसे ढूँढा 
जाना 
और अपने कैनवस पर रखकर  टटोला 
जहाँ उसने कहा -
"मेरी अम्मा
बुनती थी सपने
काश और बल्ले से,
कुरुई, सिकहुली
और पिटारी के रूप में,
रंग-बिरंगे सपने…
अपनी बेटियों की शादी के,

कभी चादरों और मेजपोशों पर
काढ़ती थी, गुड़हल के फूल,
और क्रोशिया से
बनाती थी झालरें
हमारे दहेज के लिये,
खुद काट देती थी
लंबी सर्दियाँ
एक शाल के सहारे,

आज…उसके जाने के
अठारह साल बाद,
कुछ नहीं बचा
सिवाय उस शाल के,
मेरे पास उसकी आखिरी निशानी,
उस जर्जर शाल में
महसूस करती हूँ
उसके प्यार की गर्मी…"
........
कहा तो उसने बहुत कुछ 
कभी झांसी की रानी लगी 
कभी ध्रुवस्वामिनी 
कभी दुर्गा 
कभी गंगा 
प्रकृति के कण कण से वह उभरी 
उसके शब्द तलवार की धार बने 
तो स्वाति की बूंद भी बने 
....
महानगर के शोर में मन भी घबराया 
कहाँ जाएँ' का प्रश्न उभरा 
कभी उसकी सुबह बांस की पत्ती के कोनों पर अटकी 
कभी कोई शाम पक्षियों के कलरव में मुस्कुराई 
पर जब जब गुनगुनी धूप आँगन में उतरी 
अम्मा की हथेलियाँ बन गयीं ...
और मेरे मन के कैनवस पर आराधना 
अम्मा के जर्जर शॉल में सिमटी 
आज भी अम्मा के बुने सपनों सी लगती है !!!

बुधवार, 10 अक्तूबर 2012

एक अनमोल तोहफा - पिता का ख़त पुत्री को - ( तीसरा भाग )




सतीश सक्सेना - http://satish-saxena.blogspot.in/

सारा जीवन किया समर्पित परमारथ में नारी ही ने , विधि ने ऐसा धीरज लिखा केवल भाग्य तुम्हारे ही में !उठो चुनौती लेकर बेटी, शक्तिमयी सी तुम्ही दिखोगी !! 

द्रढ़ता हो सावित्री जैसी,
सहनशीलता हो सीता सी,
सरस्वती सी महिमा मंडित 
कार्यसाधिनी अपने पति की
अन्नपूर्णा बनो, सदा ही घर की शोभा तुम्ही रहोगी !
पहल करोगी अगर नंदिनी घर की रानी तुम्ही रहोगी

नारी के सुंदर चेहरे पर,
क्रोध कभी न आने पाये
क्षमा,दया और ममता बेटी
सदा विजेता होते आये,
गुस्सा कभी पास न आये, रजनीगंधा सी मह्कोगी!
पहल करोगी अगर नंदिनी घर की रानी तुम्ही रहोगी 

स्वागत करो अतिथि का पुत्री
मुख पर ले मुस्कान सदा ही
घर के दरवाजे से तेरे ,
याचक कभी न खाली जाए
मान करोगी अगर मानिनी , महिमामयी तुम्ही दीखोगी
पहल करोगी अगर नंदिनी घर की रानी तुम्ही रहोगी

नर नारी में परम त्याग ,की
शिक्षा देती है नारी ही ,
माता,पिता सहोदर भाई
और छोड़ती है निज घर को
भूल के बीते दिन की बातें, नयी रोशनी लानी होगी !
पहल करोगी अगर नंदिनी घर की रानी तुम्ही रहोगी

सारा जीवन किया समर्पित
परमार्थ में नारी ही ने ,
विधि ने ऐसा धीरज लिखा
केवल भाग्य तुम्हारे में ही
उठो चुनौती लेकर बेटी , शक्तिमयी सी तुम्ही दिखोगी !
पहल करोगी अगर नंदिनी घर की रानी तुम्ही रहोगी !

मंगलवार, 9 अक्तूबर 2012

पिता का ख़त पुत्री को ( दूसरा भाग )




सतीश सक्सेना - http://satish-saxena.blogspot.in/

पत्र के पहले भाग में, बेहद प्रतिष्ठित लेखिकाओं तथा लेखकों ने अपनी उत्साहवर्द्धक प्रतिक्रियाएं दी, मैं यह स्पष्ट करना कहता हूँ कि इस कविता में बेटी को नसीहत नहीं बल्कि एक बेहद प्यार करने वाले पिता की इच्छा है और आशा है कि जितना प्यार तुम मुझे करती हो उतना ही प्यार अपने नए पिता, मां और बहिन को करना और इस प्यार की शुरुआत, वहां जा कर तुम्हे करनी है, बिना उनसे उम्मीद किए !

सदा अधूरा, पति रहता है
यदि तुम मन से साथ नही हो
अगर , पूर्ण नारीत्व चाहिए
पति की अभिलाषा बन जाओ
बनो अर्ध नारीश्वर जैसी, हर साधना तुम्हारी होगी
पहल करोगी अगर नंदिनी, घर की रानी तुम्ही रहोगी !

पति-पत्नी हैं एक डाल पर
लगे फूल दो बगिया के
जब तक खिले न साथ
अधूरे लगते हैं सुंदरता में
दोनों में से एक खिले, तो यह फुलवारी नही सजेगी!
पहल करोगी अगर नंदिनी, घर की रानी तुम्ही रहोगी!

निर्बलता की बनो सहायक,
ईश्वर देगा साथ तुम्हारा,
वृद्ध जनों का प्यार मिला
तो सारा जीवन सफल तुम्हारा
आशीर्वाद बड़ों का लेकर, सबसे आगे तुम्ही रहोगी!
पहल करोगी अगर नंदिनी, घर की रानी तुम्ही रहोगी!

कार्य करो संकल्प उठा कर ,
हो कल्याण सदा निज घर का
स्व-अभिमानी बनकर रहना
पर अभिमान न होने पाये
दृढ विश्वास ह्रदय में लेकर , कार्य करोगी सफल रहोगी!
पहल करोगी अगर नंदिनी, घर कि रानी तुम्ही रहोगी!

कमजोरों के लिए सुपुत्री,
जिस घर के दरवाजे खुलते
आदि शक्ति परमात्मा ऊपर,
जिस घर श्रद्धा सुमन बिखरते
कभी अँधेरा पास न आए सूर्य-किरन सी तुम निखरोगी
पहल करोगी अगर नंदिनी, घर की रानी तुम्ही रहोगी!

सोमवार, 8 अक्तूबर 2012

एक अनमोल तोहफा - पिता का ख़त पुत्री को - (प्रथम भाग )


 सतीश सक्सेना 

आधुनिकतावाद की और भागते भारतीय समाज में, पाश्चत्य सभ्यता की जो बुराइयाँ आईं, हम भारतीयों के लिए , बेहद तकलीफ देह रहीं ! और आग में घी डालने का कार्य किया, पैसा कमाने की होड़ में लगे इन टेलीविजन चैनलों ने! चटखारे लेकर, सास के बारे में एक्सपर्ट कमेंट्स देती तेजतर्रार बहू, लगभग हर चैनल पर नज़र आने लगी और फलस्वरूप तथाकथित शिक्षित विवाहित भारतीय महिलाएं यह भूल गईं कि इस टीवी चैनल का आनंद, उनकी ही तरह उसकी भाभी भी ले रही है , और इस तरह भारतीय महिलाओं के लिए नए संस्कार हर घर में पनपने लगे ! और हमारी विवाहित पुत्रियाँ यह भूलती जा रही हैं कि वह एक दिन इसी घर में सास एवं मां का दर्जा भी पाएँगी ! 

भले ही कोई पुरूष या महिला नकार दे, पर क्या यह सच नहीं है कि किसी घर ( मायका या ससुराल ) में, माँ को वो सम्मान नही मिलता जिसकी वो पूरी हकदार है ! और जननी का सम्मान गिराने का अपराध सिर्फ़ भावी जननी ( बेटी ) ने किया और असहाय पिता (सहयोगी पति ) कुछ न कर पाया !

हर स्थान पर पुत्री यह भूल गई कि सास भी एक पुत्री है और मेरी भी कहीं मां है, जिस बहू ने सास का मजाक उड़ाया उसे उस समय यह याद ही नही आया कि मेरी मां के साथ भी यह हो सकता है, और जब मां के साथ वही हुआ तो वो लड़की ( एक बहू) असहाय सी, अपनी भाभी का या तो मुंह देखती रही या उसको गाली दे कर अपना मन शांत किया !

नारी जागरण का अर्थ यह बिल्कुल नही कि हम अपने बड़ों कि इज्जत करना भूल जायें, या बड़ों कि निंदा करने और सुनाने में गर्व महसूस करें, अपनी सास का सम्मान अपनी मां की तरह करके बच्चों में संस्कार की नींव डालने का कार्य शुरू करें ! सास और ससुर के निर्देश, अपने माता पिता के आदेश की तरह स्वीकार करें तो हर घर एक चहकता, महकता स्वर्ग बन सकता है ! 

मगर मैं, एक कविह्रदय, यह नहीं चाहता कि मेरी पुत्री यह दर्द सहे व महसूस करे ! और यही वेदना यह ख़त लिखने के लिए प्रेरणा बनी !

मूल मंत्र सिखलाता हूँ मैं
याद लाडली रखना इसको 
यदि तुमको कुछ पाना हो 
देना पहले सीखो पुत्री 
कर आदर सम्मान बड़ों का गरिमामयी तुम्ही होओगी,
पहल करोगी अगर नंदिनी, घर की रानी तुम्ही रहोगी ! 

उतना ही कोमल मन सब का 
जितना पुत्री तेरा मन है ! 
उतनी ही आशाएं तुमसे ,
जितनी तुमने लगा राखी हैं
परहितकारक बनो सुपुत्री , भागीरथी तुम्ही होओगी,
पहल करोगी अगर नंदिनी घर की रानी तुम्ही रहोगी !

उनकी आशाओं को पूरा,
करने का है धर्म तुम्हारा
जितनी आशाओं को पूरा
करवाने का स्वप्न तुम्हारा
मंगलदायिन बनो लाडली स्वप्नपरी सी तुम्ही लगोगी
पहल करोगी अगर नंदिनी घर की रानी तुम्ही रहोगी !

पत्निमिलन की आशा लेकर
उतना ही उत्साह सँजोकर,
जितना तुमको पिया मिलन
की अभिलाषा है गहरे मन से
प्यार किसी का कम न मानो साध तुम्हारी पूरी होगी
पहल करोगी अगर नंदिनी घर की रानी तुम्ही रहोगी !

पति है जीवन भर का साथी
दुःख के साथ खुशी का साथी
तेरे होते, कभी अकेलापन,
महसूस न करने पाए,
सदा सहायक रहो पति की हर अभिलाषा पूरी होगी
पहल करोगी अगर नंदिनी घर की रानी तुम्ही रहोगी !
......क्रमश

मंगलवार, 2 अक्तूबर 2012

एक उदास कविता








चण्डीदत्त शुक्ल


सबसे बुरा है
उस हंसी का मर जाना
जो जाग गई थी
तुम्हारी एक मुस्कान से.

जमा हुआ दुख
पिघला,
आंख से आंसू बनकर,
तुमने समेट ली थी
पीड़ा की बूंद
अंगुली की पोर पर.

वह सब मन का तरल गरल
व्यर्थ है अब,
जैसे लैबोरेट्री की किसी शीशी में रखा हो
थोड़ा-सा निस्तेज वीर्य, ठंडा गाढ़ा काला खून 
या देह का कोई और निष्कार्य अवयव।

खिड़कियों के बाहर
कुछ दरके हुए यकीन लटके हैं
चमगादड़ों की तरह बेआवाज़
शोर करते हैं
झूठे वादे।

कविताएं सिर्फ गूंज पैदा करती हैं
नहीं बदलतीं किस्मत
जैसे कि
प्रेम का लंगड़ा होना 
उससे पहले से तय होता है,
जब पहली बार वह भरता है,
दो डग हंसी की ओर।

चलती रहती है
इश्क की सांस
तब
मन के उदर में पलता है कविता का भ्रूण
और खा जाता है एक दिन 
वही कोमल एहसास 
इच्छा का राक्षस।

ढल जाता है साथ देखा गया ठंडा चांद
गमलों के इर्द-गिर्द उगती रचनाएं
कुम्हलाई पत्तियों की राख में हैं पैबस्त
एक उदास आदमी चीखता हुआ कोसता है खुद को
कहते हुए,
क्यों नहीं है मेरे प्रेम में ताकत?
कैसे घुल-सी गई एक बार फिर
`सुनो, मेरी आवाज़ सुनो' की पुकार!

कौन बताए,
प्रेम का सूरज अस्त होने के लिए ही उगता है
कभी नहीं रुकता कोई
सिर्फ प्रेम के लिए,
प्रेम के सहारे।

प्रेम की कहानियां
इच्छाओं के लोक में
बेसुरी फुसफुसाहट से ज्यादा औकात नहीं रखतीं।

विरह मिलन से बड़ा सत्य है
और बेहद खरी गारंटी भी
जिसके साथ धोखे की रस्सी से बुने कार्ड पर लिखा है-
टूटेगा मन, जो जोड़ने की कोशिश की।

बहुत पहले, 
नाज़ुक हाथों को थामकर 
लिखी थी एक गुननुगाहट,
पाखंड के 
साइक्लोन ने 
ढहा दिया रेत का महल।

समंदर किनारे प्रेम की कब्र बनती है,
ताजमहल हमेशा नवाबों के हिस्से आते हैं।
आज राजा
अंग्रेजी बोलते हैं,
चमकते अपार्टमेंट्स में होता है उनका ठिकाना
वहीं ऊंची बिल्डिंगों के बाहर, 
कूड़ेदान के पास पॉलीथीन में लिपटे रहते हैं
कुछ सच्चे चुंबन, चंद गाढ़े आलिंगन और हज़ारों काल्पनिक वादे!

निर्लज्ज हंसी और बेबस आंसुओं
अपने लिए गढ़े नए नियमों,
दुत्कारों और आरोपों,
गाढ़े धूसर रंग की शिकायतों
और इन सबके साथ हुए असीम पछतावे के साथ
सब कुछ भले लौट आए
पर नहीं वापस आता,
राह भटका हुआ विश्वास।
छलिया आकाश ने निगल लिया है
एक गहरा साथ!
लुप्त हुई नेह की एक और आकाशगंगा,
प्रेम से फिर बड़ा साबित हुआ,
उन्माद का ब्लैकहोल!

प्रेम की अकाल मृत्यु पर आओ,
खिलखिलाकर हंसें।
हमारे काल का सबसे शर्मनाक सत्य है
मन की अटूट प्रतीक्षा से बार-बार बलात्कार।
कहने को प्रतीक्षा भी स्त्रीलिंग है, 
लेकिन उससे हुए दुष्कर्म की सुनवाई महिला आयोग नहीं करता।

शनिवार, 29 सितंबर 2012

स्त्री का अस्तित्व और सवाल




 कनुप्रिया 


एक सवाल अपने अस्तित्व पर,
मेरे होने से या न होने के दव्न्द पर,
कितनी बार मन होता है,
उस सतह को छु कर आने का,
जहाँ जन्म हुआ, परिभाषित हुई,मै,
अपने ही बनाये दायरों में कैद!
खुद ही हूँ मै सीता और बना ली है,
लक्ष्मण रेखा, क्यूंकि जाना नहीं
है मुझे बनवास, क्यूंकि मै
नहीं देना चाहती अग्निपरीक्षा…..
इन अंतर्द्वंद में, विचलित मै,
चीत्कार नहीं कर सकती, मेरी आवाज़
मेरी प्रतिनिधि नहीं है,
मै नहीं बता सकती ह्रदय की पीड़ा ,
क्यूंकि मै स्त्री हूँ,
कई वेदना, कई विरह ,कई सवाल,अनसुलझे?
अनकहे जवाब, सबकी प्रिय, क्या मेरा अपना अस्तित्व,
देखा है मैंने, कई मोड़ कई चौराहे,
कितने दिन कितनी रातें, और एक सवाल,
सपने देखती आँखें, रहना चाहती हूँ,
उसी दुनिया में , क्यूंकि आँख खुली और
काला अँधेरा , और फिर मैं, निःशब्द,
ध्वस्त हो जाता है पूरा चरित्र, मेरा…….
कैसे कह दूँ मैं संपूर्ण हूँ,
मुझमे बहुत कमियां है, कई पैबंद है……….
मै संपूर्ण नहीं होना चाहती,
डरती हूँ , सम्पूर्णता के बाद के शुन्य से
मै चल दूंगी उस सतह की ओर………
ढूंढ़ लाऊँगी अपने अस्तित्व का सबूत…
अपने लिए, मुझे चलना ही होगा,
मैं पार नहीं कर पाउंगी लक्ष्मण रेखा,
मैं नहीं दे पाऊँगी अग्निपरीक्षा,
मैं सीता नहीं,
मैं स्त्री हूँ,
एक स्त्री मात्र!

गुरुवार, 27 सितंबर 2012

माँ




[IMG_0160.JPG]

ओंकार
 -  http://onkarkedia.blogspot.in/ 


माँ
जब तुम नहीं रहोगी
तो कौन बंद कराएगा टी.वी.
ताकि बहराते कानों को सुन सके 
ट्रेन की सीटी की आवाज़.


कौन झांक-झांक कर देखेगा
खिड़की के परदे की ओट से 
कि स्टेशन से आकर कोई रिक्शा
घर के बाहर रुका तो नहीं.


कौन कहेगा कि आज खाने में 
भरवां भिन्डी ज़रूर बनाना,
कौन कहेगा कि चाय में 
चीनी बहुत कम डालना.


कौन बतियाएगा घंटों तक,
पूछेगा छोटी से छोटी खबर,
साझा करेगा हर गुज़रा पल
सुख का या दुःख का.


जब मैं हँसूंगा तो कौन कहेगा,
अब बस भी करो,
मेरी आँखें कमज़ोर ही सही,
पर क्या मैं नहीं जानती 
कि तुम दरअसल हँस नहीं रहे 
हँसने का नाटक कर रहे हो. 

सोमवार, 24 सितंबर 2012

यादों की संदूकची





 उपासना सियाग 

[Image0824.jpg]

यादों की संदूकची

आज फुर्सत में जब यादों की 
संदूकची खोली तो कितने ही 
सुहाने पलों ने घेर लिया ........
दो छोटे -छोटे ,नन्हे -नन्हे हाथ 
पीछे से आकर गले में आकर 
झूल गए ,............
कुछ खिलौने ,कुछ कागज़ की
कटी हुई, कारों की डायरी ,कुछ
पुराने कन्चे,टूटा हुआ बैट और
टांग टूटा हुआ गुड्डा भी नज़र
आया ......................और
ये चमकीले से हीरे जैसे क्या है भला!
हाथ में लेकर देखा तो हंसी आगई ,
अरे, ये तो उन गिलासों के टुकड़े है
जिनको जोर से पटक कर दिवाली
के पटाखे बना दिए थे ,

और ख़ुशी की किलकारी भी गूंजी के
 पटाखा बजा .........
पटाखे बजने की ख़ुशी आँखों के साथ -साथ
चेहरे पर भी नज़र आयी थी .......
और ये मेडल  जो दौड़ में मिला था ,
गले में किसी कीमती हार से कम नज़र
नहीं आया मुझे ...... 
और साईकल पर या छोटी सी कुर्सी पर
बिठाने की जिद करती नज़र आई, 
वो शरारती  आँखे ...........
और ये क्या है संदूकची में...!
 जो एक तरफ पड़ी है ...
गुलाबी ,चलकीली किनारी वाली
छोटी सी एक गठरी ...........
हाथों में लिया तो याद आया 
अरे ;ये तो हसरतों की गठरी है ,
जरा सा खोल कर देखा तो 
एक नन्ही सी फ्राक ,छोटी सी नन्हे -नन्हे 
घुंघरुओं वाली पायल नज़र आयी,
उनको धीमे से छू कर फिर से
संदूकची में रख दिया ..........
और धीमे से प्यार से यादों की संदुकची
को बंद कर दिया ..........!