शुक्रवार, 29 नवंबर 2013

मेरी नज़र से ओल्ड इज़ गोल्ड - 3

 फ़िल्म वही अच्छी होती है- जिसमें ज़िन्दगी के ख़ास हिस्से यानि नौ रस होते हैं और रस को 'काव्य की आत्मा' या 'प्राण तत्व' माना जाता है  . 
शृंगार रस
हास्य रस
करुण रस
वीर रस
रौद्र रस
भयानक रस
वीभत्स रस
अद्भुत रस
शांत रस
वात्सल्य रस
भक्ति रस
………… किस रस के सागर में हम हैं,
यह लेखक और पाठक, 
कलाकार और द्रष्टा-श्रोता ही जानते हैं  . आज मैं पुरानी कलम की नवीनता लिए आपके बीच हूँ - किसी के सन्दर्भ में कुछ कहना छोटा मुंह,बड़ी बात जैसी बात होगी,और यह धृष्टता मैं नहीं कर सकती ! श्रद्धा भावना लिए मैं बस ले चलती हूँ आपको कविता,गीत,कहानी  .... के घेरदार ओस से भीगे रास्तों पर,जहाँ शाख से जुड़ी पारिवारिक,प्राकृतिक,आध्यात्मिक,प्रेम से रंगी हरी,जर्जर,उगती पत्तियाँ हैं  .... है उनकी सरसराहट,उनका सौंदर्य,उनका स्पर्श 
तो बढ़ाते हैं कदम उस नाम के साथ,जिनके द्वारा नाम पाकर मैं धन्य हुई - जी हाँ,

कवि सुमित्रानंदन पंत 

बाँध दिए क्यों प्राण प्राणों से
तुमने चिर अनजान प्राणों से

गोपन रह न सकेगी
अब यह मर्म कथा
प्राणों की न रुकेगी
बढ़ती विरह व्यथा
विवश फूटते गान प्राणों से

यह विदेह प्राणों का बंधन
अंतर्ज्वाला में तपता तन
मुग्ध हृदय सौन्दर्य ज्योति को
दग्ध कामना करता अर्पण
नहीं चाहता जो कुछ भी आदान प्राणों से


अब सुनते हैं वह गीत - जिसे अश्रुओं के बगैर कभी सुन न सकी  . पंडित नरेंद्र शर्मा के लिखे किस गीत को कम कहूँ !- पर यह गीत माँ' के लिए बच्चे के रोम रोम से निकली भावना है 

दर भी था थी दीवारें भी
तुमसे ही घर घर कहलाया 
तुमसे ही घर घर कहलाया 

सूना मंदिर था मन मेरा 
बुझा दीप था जीवन मेरा 
प्रतिमा के पावन चरणों में 
मैं दीपक बनकर मुस्काया 
तुमसे ही घर घर कहलाया 

देवालय बन गया सुहावन 
माँ तुमसे मेरा घर आँगन 
आँचल की ममता माया में 
पाई सुख की शीतल छाया 
तुमसे ही घर घर कहलाया

कैसे हो गुणगान तुम्हारा 
जो कुछ है वरदान तुम्हारा 
तुमने ही मेरे जीवन के 
सपनों को सच कर दिखलाया 
तुमसे ही घर घर कहलाया 

आँखें मेरी ज्योति तुम्हारी 
रह न गई राहें अंधियारी 
रहने दो मेरे माथे पर 
माँ तुमने जो हाथ बढ़ाया 
तुमसे ही घर घर कहलाया 
तुमसे ही घर घर कहलाया 







मंगलवार, 26 नवंबर 2013

मेरी नज़र से ओल्ड इज़ गोल्ड - 2




नूतन - नाम लेते ही एक मासूम लड़की अल्हड सी चाल में सामने आती है -

"जोगी जब से तू आया मेरे द्वारे 
हो मेरे रंग गए सांझ सकारे   ...."

हिन्दी सिनेमा की सबसे प्रसिद्ध अभिनेत्रियों में से एक रही हैं। भारतीय सिनेमा जगत में नूतन को एक ऐसी अभिनेत्री के तौर पर याद किया जाता है जिन्होंने फ़िल्मों में अभिनेत्रियों के महज शोपीस के तौर पर इस्तेमाल किए जाने की परंपरागत विचार धारा को बदलकर उन्हें अलग पहचान दिलाई। सुजाता, बंदिनी, मैं तुलसी तेरे आंगन की, सीमा, सरस्वती चंद्र, और मिलन जैसी कई फ़िल्मों में अपने उत्कृष्ट अभिनय से नूतन ने यह साबित किया कि नायिकाओं में भी अभिनय क्षमता है और अपने अभिनय की बदौलत वे दर्शकों को सिनेमा हॉल तक लाने में सक्षम हैं।
नूतन ने बतौर बाल कलाकार फ़िल्म 'नल दमयंती' से अपने सिने कैरियर की शुरूआत की। इस बीच नूतन ने अखिल भारतीय सौंदर्य प्रतियोगिता में हिस्सा लिया जिसमें वह प्रथम चुनी गई लेकिन बॉलीवुड के किसी निर्माता का ध्यान उनकी ओर नहीं गया। बाद में अपनी मां और उनके मित्र मोतीलाल की सिफारिश की वजह से नूतन को वर्ष 1950 में प्रदर्शित फ़िल्म 'हमारी बेटी' में अभिनय करने का मौका मिला। इस फ़िल्म का निर्देशन उनकी मां शोभना समर्थ ने किया। इसके बाद नूतन ने 'हमलोग', 'शीशम', 'नगीना' और 'शवाब' जैसी कुछ फ़िल्मों में अभिनय किया लेकिन इन फ़िल्मों से वह कुछ ख़ास पहचान नहीं बना सकी।
वर्ष 1955 में प्रदर्शित फ़िल्म 'सीमा' से नूतन ने विद्रोहिणी नायिका के सशक्त किरदार को रूपहले पर्दे पर साकार किया। इस फ़िल्म में नूतन ने सुधार गृह में बंद कैदी की भूमिका निभायी जो चोरी के झूठे इल्जाम में जेल में अपने दिन काट रही थी। फ़िल्म 'सीमा' में बलराज साहनी सुधार गृह के अधिकारी की भूमिका में थे। बलराज साहनी जैसे दिग्गज कलाकार की उपस्थित में भी नूतन ने अपने सशक्त अभिनय से उन्हें कड़ी टक्कर दी। इसके साथ ही फ़िल्म में अपने दमदार अभिनय के लिये नूतन को अपने सिने कैरियर का सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म अभिनेत्री का पुरस्कार भी प्राप्त हुआ।
विमल राय की फ़िल्म 'सुजाता' एवं 'बंदिनी' नूतन की यादगार फ़िल्में रही। वर्ष 1959 में प्रदर्शित फ़िल्म सुजाता नूतन के सिने कैरियर के लिए मील का पत्थर साबित हुई। फ़िल्म में नूतन ने अछूत कन्या के किरदार को रूपहले पर्दे पर साकार किया1 इसके साथ ही फ़िल्म में अपने दमदार अभिनय के लिये वह अपने सिने कैरियर में दूसरी बार फ़िल्म फेयर पुरस्कार से सम्मानित की गई। वर्ष 1963 में प्रदर्शित फ़िल्म 'बंदिनी 'भारतीय सिनेमा जगत में अपनी संपूर्णता के लिए सदा याद की जाएगी। फ़िल्म में नूतन के अभिनय को देखकर ऐसा लगा कि केवल उनका चेहरा ही नहीं बल्कि हाथ पैर की उंगलियां भी अभिनय कर सकती है। इस फ़िल्म में अपने जीवंत अभिनय के लिये नूतन को एक बार फिर से सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का फ़िल्म फेयर पुरस्कार भी प्राप्त हुआ। इस फ़िल्म से जुड़ा एक रोचक पहलू यह भी है फ़िल्म के निर्माण के पहले फ़िल्म अभिनेता अशोक कुमार की निर्माता विमल राय से अनबन हो गई थी और वह किसी भी कीमत पर उनके साथ काम नहीं करना चाहते थे लेकिन वह नूतन ही थी जो हर कीमत में अशोक कुमार को अपना नायक बनाना चाहती थी। नूतन के जोर देने पर अशोक कुमार ने फ़िल्म 'बंदिनी' में काम करना स्वीकार किया था

नूतन के लिए उनके बेटे मोहनीश बहल ने कहा था बीबीसी से -

"मैं उनकी फिल्में ज़्यादा नहीं देखता. क्योंकि जितना मैं देखूंगा उतना ही उन्हें मिस करूंगा. और उन्होंने काफी गंभीर फिल्में भी की हैं.
जिससे मैं ज़्यादा आइडेंटीफ़ाइ नहीं कर पाता. मैं उन्हें पर्दे पर ही सही, लेकिन तकलीफ सहते हुए नहीं देख सकता.
मेरी मां एक प्रशिक्षित क्लासिकल डांसर थीं. मैं उनके तमाम शोज़ पर जाता था."

नूतन की प्रतिभा केवल अभिनय तक ही नहीं सीमित थी वह गीत और ग़ज़ल लिखने में भी काफ़ी दिलचस्पी लिया करती थीं। हिंदी फ़िल्म इंडस्ट्री में बतौर सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री सर्वाधिक फ़िल्म फेयर पुरस्कार प्राप्त करने का कीर्तिमान नूतन के नाम दर्ज है। नूतन को अपने सिने कैरियर में पांच बार (सुजाता, बंदिनी, मैं तुलसी तेरे आंगन की, सीमा, मिलन) फ़िल्म फेयर पुरस्कार से सम्मानित किया गया। नूतन को वर्ष 1974 में भारत सरकार द्वारा पद्म श्री से सम्मानित किया गया।

समय तो सबके लिए गुजर जाता है, पर यादें  … चलिए उन पर फिल्माए गए गीत को देखते हैं और मानते हैं - ओल्ड इज़ गोल्ड 



रविवार, 24 नवंबर 2013

मेरी नज़र से ओल्ड इज़ गोल्ड - 1



मीना कुमारी 
जन्म: 01 अगस्त 1932
निधन: 31 मार्च 1972
उपनाम नाज़
जन्म स्थान मुम्बई, महाराष्ट्र, भारत
कुछ प्रमुख
कृतियाँ  - तन्हा चाँद / मीना कुमारी (गुलज़ार द्वारा संकलित)
विविध - मीना कुमारी भारतीय हिन्दी सिनेमा की एक बहुत मशहूर अभिनेत्री थीं।


मीना कुमारी का असली नाम माहजबीं बानो था और ये बंबई में पैदा हुई थीं . माहजबीं ने पहली बार किसी फिल्म के लिये छह साल की उम्र में काम किया था। उनका नाम मीना कुमारी विजय भट्ट की खासी लोकप्रिय फिल्म बैजू बावरा पड़ा। मीना कुमारी की प्रारंभिक फिल्में ज्यादातर पौराणिक कथाओं पर आधारित थे। मीना कुमारी के आने के साथ भारतीय सिनेमा में नयी अभिनेत्रियों का एक खास दौर शुरु हुआ था जिसमें नरगिस, निम्मी, सुचित्रा सेन और नूतन शामिल थीं।
फिल्म बैजू बावरा उनके जीवन की पहली बड़ी हिट फिल्म मानी जाती है और इसके बाद तो उन्होंने एक से एक हिट फिल्में दी। चार बार उन्हें बेस्ट एक्ट्रेस के लिए फिल्मफेयर पुरस्कार मिला। 1963 में फिल्मफेयर अवा‌र्ड्स में 'बेस्ट एक्ट्रेस इन लीडिंग रोल' कैटेगिरी के लिए नॉमिनेट होने वाली अकेली हीरोइन थीं। उन्हें तीन अलग-अलग फिल्मों के लिए नॉमिनेट किया गया था। फिल्मफेयर अवा‌र्ड्स में यह उपलब्धि आज तक कोई हीरोइन हासिल नहीं कर पाई है। वैसे कम लोग जानते हैं कि कॉमेडी किंग कहे जाने वाले महमूद मीना कुमारी के जीजा थे। वह मीना को टेनिस खेलना सिखाते थे बाद में उन्होंने मीना की बड़ी बहन मधु से शादी की थी। हालांकि आगे चलकर उनका तलाक हो गया।
मीना कुमारी के बारे में बहुत कम लोग जानते हैं कि वे कवियित्री भी थीं लेकिन कभी भी उन्होंने अपनी कवितायें छपवाने की कोशिश नहीं की। उनकी लिखी कुछ उर्दू की कवितायें नाज़ के नाम से बाद में छपी।
जब उनका तलाक हुआ तो उन्होंने कमाल अमरोही के लिए एक शेर लिखा था-
'तलाक तो दे रहे हो नजर-ए-कहर के साथ, मेरी जवानी भी लौटा दो मेहर के साथ।'

आसमान की बुलंदियों को छूने वाली इस अदाकारा ने भी नहीं सोचा होगा किअपने दिनों में वे एक-एक पैसे के लिए तरस जाएंगी। मुंबई के जिस नर्सिग होम में उन्होंने दम तोड़ा, उसके बिल चुकाने के लिए भी पैसे नहीं थे। यह बिल एक डॉक्टर ने चुकाया था, जो मीना का बहुत बड़ा फैन था।
सिर्फ 39 साल में लिवर सिरोसिस के चलते दुनिया को अलविदा करने वाली मीना कुमारी जाते-जाते भी 'पाकीजा' जैसी बेहतरीन फिल्म के रूप में अपने चाहने वालों को ऐसा तोहफा दे गई, जिसके लिए लोग उन्हें आज भी याद करते हैं।

यह तो उनका परिचय है, मैं साहब,बीवी और गुलाम की छोटी बहू से आपको मिलवाती हूँ  .... फ़िल्म के दृश्य में जब पहली बार भूतनाथ (गुरुदत्त) छोटी बहू के कमरे में जाता है और कैमरा सजे पाँव से जब ऊपर की तरफ जाता है तो छोटी बहू यानि मीना कुमारी का वह चेहरा अद्भुत करिश्मा ही लगता है 
आज भी कानों में वह नशीली आवाज़ गूंजती है,
"मैं अगर मर जाऊँ तो मुझे खूब  सजाना 
....... दुनियावाले कह सकें - सती लक्ष्मी चल बसी"

यू ट्यूब के इस लिंक पर एक निगाह डालिये -


उनकी नज़में मन में कहती हैं - कोई दूर से आवाज़ दे,चले आओ  .... 

रात सुनसान है 
तारीक है दिल का आंगन 
आसमां पर कोइ तारा न जमीं पर जुगनू 
टिमटिमाते हैं मेरी तरसी हुइ आँखों में 
कुछ दिये 
तुम जिन्हे देखोगे तो कहोगे : आंसू 

दफ़अतन जाग उठी दिल में वही प्यास, जिसे 
प्यार की प्यास कहूं मैं तो जल उठती है ज़बां 
सर्द एहसास की भट्टी में सुलगता है बदन 
प्यास - यह प्यास इसी तरह मिटेगी शायद 
आए ऐसे में कोई ज़हर ही दे दे मुझको

कम उम्र से जो नज़्म मेरी ज़ुबान पर चढ़ी - 

पूछते हो तो सुनो, कैसे बसर होती है
रात ख़ैरात की, सदक़े की सहर होती है
साँस भरने को तो जीना नहीं कहते या रब
दिल ही दुखता है, न अब आस्तीं तर होती है
जैसे जागी हुई आँखों में, चुभें काँच के ख़्वाब
रात इस तरह, दीवानों की बसर होती है
ग़म ही दुश्मन है मेरा, ग़म ही को दिल ढूँढता है
एक लम्हे की जुदाई भी अगर होती है
एक मर्कज़ की तलाश, एक भटकती ख़ुशबू
कभी मंज़िल, कभी तम्हीदे-सफ़र होती है 

दिल से अनमोल नगीने को छुपायें तो कहाँ
बारिशे-संग यहाँ आठ पहर होती है 

काम आते हैं न आ सकते हैं बे-जाँ अल्फ़ाज़
तर्जमा दर्द की ख़ामोश नज़र होती है.

सच है =

सुबह से शाम तलक 
दुसरों के लिए कुछ करना है 
जिसमें ख़ुद अपना कुछ नक़्श नहीं 
रंग उस पैकरे-तस्वीर ही में भरना है 
ज़िन्दगी क्या है, कभी सोचने लगता है यह ज़हन 
और फिर रूह पे छा जाते हैं 
दर्द के साये, उदासी सा धुंआ, दुख की घटा 
दिल में रह रहके ख़्याल आता है 
ज़िन्दगी यह है तो फिर मौत किसे कहते हैं? 
प्यार इक ख़्वाब था, इस ख़्वाब की ता'बीर न पूछ 
क्या मिली जुर्म-ए-वफ़ा की ता'बीर न पूछ






शुक्रवार, 22 नवंबर 2013

मेरी नज़र से कुछ मील के पत्थर - 12)




अगर हवा में कही जानेवाली बातों पर
ध्यान नहीं देना चाहिए 
तो उन्हें कहा ही क्यूँ जाये 
ध्यान न देने की सीख से बेहतर है 
 कहने ही नहीं दिया जाये .... हवाएं प्रदूषित होती हैं !
जैसे -
कहते है सब - जैसा किया वैसा पाया !'
कर्म का फल मिलेगा !'
.....
तो ऐसे कथन को अन्यायी के साथ मानें 
या जिसके साथ अन्याय हुआ उसके साथ ?  …… रश्मि प्रभा 

मील का पत्थर वही होता है,जो जीवन देता है - ऊंचाई पर चढ़ जाने से,प्रतियोगिता में अव्वल आ जाने मात्र से कोई मील का पत्थर नहीं होता 
मील के पत्थर ये हैं - मेरी नज़र से 


एक सुलझी डोर से दिखते रहे
एक उलझी सी कहानी बन गए 
एक दोहरी ज़िन्दगी जीते रहे....

हाथ बढ़ते ज़िन्दगी छूने लिए
पर सहमते, रास्तों के मोड़ पर 
ठिठकते पग ख्वाब की दहलीज पर
दो कदम आगे बढ़े, फिर मुड़ गए
एक दोहरी ज़िन्दगी जीते रहे....

एक अंतर में धधकती आग थी
ज़िन्दगी में उलझने की चाह थी 
मगर वो किरदार जो अपना लगे 
दास्ताँ में खोजते ही रह गए 
एक दोहरी ज़िन्दगी जीते रहे....

एक मुझमें ही कोई था अजनबी
कभी अपना था, पराया था कभी
कभी मिलता, फिर चला जाता कहीं
खुद को उसमें ढूंढते ही रह गए
एक दोहरी ज़िन्दगी जीते रहे....

इक कहानी जो सुनानी थी हमें
अपनी ख़ामोशी के खंडहर में कहीं 
ज़िन्दगी के हाशिये पर, लफ्ज़ कुछ 
बनके बस आधी लकीरें रह गए 
एक दोहरी ज़िन्दगी जीते रहे....

जानता मुझमें खुदा, हैवान भी
ज़िन्दगी की सांस भी, शमशान भी
महज़ इक कतरा मैं, औ’ ये कायनात
इसमें हम बहते रहे, बहते गए 
एक दोहरी ज़िन्दगी जीते रहे....


इस ब्लॉग का कहना है -
कविता पढ़ना नदी को पुल से पार करना है. अनुवाद करना कवि के साथ उस नदी में डूब जाना है…
पढ़ना भी अनुवाद ही है, उसी भाषा से उसी भाषा में. ऐसा कहा हैं अर्जेंटीना के लेखक-कवि-अनुवादक होर्खे लुईस बोर्खेस ने. और यह भी कि अनुवाद मौलिक रचना से भिन्न हो सकता है, एक ही रचना के कई सुन्दर अनुवाद हो सकते हैं और अच्छा अनुवाद दूसरी भाषा की मौलिक रचना लगता है, जिसका किसी से कोई लेना-देना नहीं रहता. यह ब्लॉग इन्हीं सब परिभाषाओं में भटकने का और शायद एक दिन इनकी हद से आगे निकल जाने का प्रयास है.

कसम खाता हूँ मुझे उसका नाम तक याद नहीं है,
मगर जानता हूँ उसे क्या कह कर पुकारूँ: मरिया 
कवि जैसा दिखने के लिए ही नहीं केवल, लौटा लाने के 
लिए उस कसबे को, और उसके एकमात्र धूल-भरे चौक को.  
वो भी क्या दिन थे, सच! मैं था एक बेढंगा-सा लड़का,
वह एक ज़र्द चेहरे वाली गंभीर-सी लड़की 
एक दिन, जब मैं स्कूल से घर लौटा तो पता चला 
कि उसकी मृत्यु हो चुकी है मगर उसमें उसकी कोई गलती नहीं थी,
इस कहानी को सुनकर मैं इतनी बुरी तरह से हिल गया 
कि मेरी आँख में से एक आँसू बह निकला.
आँसू!…मेरी आँख से, जबकि मुझे तो हमेशा 
अविचलित रहने वाला लड़का समझा जाता है.
अगर मैं इस कहानी को, जैसी मुझे उस दिन 
सुनाई गई थी, सच मानना चाहूँ,
तो मुझे एक बात का विश्वास करना होगा:
कि वह अपनी आँखों में मेरा नाम लिए मरी थी,
जो कि चक्कर में डाल देने वाली बात है, 
क्योंकि उतनी निकटता तो हम में कभी थी ही नहीं;
वह केवल एक मिलनसार मित्र थी.
हमारी दोस्ती में एक औपचारिक लहज़ा था,
सुरक्षित दूरी थी:
मौसम की बातें, अटकलें लगाना कि 
अबाबील वापिस घर कब लौटेंगी.
मेरी उस से पहचान हुई उस छोटे-से कसबे में ( क़स्बा 
जो अब जल कर राख हो चुका है)
मगर मैं समझ गया था कि जो वह है उस से अधिक वह 
कभी कुछ नहीं होगी: एक उदास, विचारमग्न लड़की.
यह सब मैं इतना साफ़-साफ़ देख सकता था 
कि मैंने उसे दिया एक दैवी नाम -- मरिया 
दुनिया को देखने का मेरा तरीका ऐसा है जो 
हमेशा सत्य के तल तक पहुँचता है. 
शायद उस एक बार बस मैंने उसे चूमा था,
मगर वैसे जैसे दोस्त चूमते हैं एक-दूसरे को, 
बिना पूर्व विचार के और इतना तात्कालिक था वह 
कि उसके कोई और मायने तो हो ही नहीं सकते थे. 
अस्वीकार नहीं कर सकता कि मुझे अच्छा लगता था 
उसका साथ, उसकी शांत अस्पष्ट-सी उपस्थिति 
ऐसी थी जैसे गमले में खिले फूलों 
से आती सौम्य-सी अनुभूति.
उसकी मुस्कान में छिपी-झलकती गहराई 
को मैं कम नहीं आंक सकता  
ना ही अनदेखा कर सकता हूँ कि कैसे वह पत्थरों तक पर 
छोड़ जाती थी एक सुखदायक प्रभाव.
एक चीज़ और स्वीकार करना चाहता हूँ: उसकी 
आँखें रात की सच्ची कहानी कहती थीं.
मैं इन सब बातों को स्वीकार कर रहा हूँ, इस भरोसे पर 
कि आप फिर भी मेरी बात समझेंगे: किसी बीमार मौसी 
के लिए मन में जागी अस्पष्ट-सी संवेदना के सिवाय 
मैंने उसे किसी और तरह से नहीं चाहा.
मगर फिर भी, ऐसा हुआ. मगर फिर भी,
और यह बात मुझे आज तक हैरान करती है,
वह विस्मित करने वाली, व्याकुल करने वाली घटना घटी:
वह अपनी आँखों में मेरा नाम लिए मरी थी.
वह लड़की, वह निर्मल बहुल गुलाब,
वह लड़की, जो रोशनी रच सकती थी.
वे ठीक कहते थे, अब जान गया हूँ मैं, वे लोग 
जिनका जीवन एक अंतहीन शिकायत है
कि यह जो कामचलाऊ दुनिया है जिसमें हम रहते हैं 
इसका मोल एक टूटी टोकरी जितना भी नहीं. 
जीवन से अधिक सम्मान तो कब्र का होता है 
अधिक मूल्य होता है ज़ंग-लगी कील का. 
कुछ भी सच्चा नहीं है, कुछ सदा नहीं रहता, यहाँ 
तक कि  उसको देख पाने के लिए उठाई तकलीफ़ भी नहीं.
आज है चटकीले नीले आकाश वाला बसंती दिन 
मुझे लगता है कि मैं कविता के मारे मर जाऊँगा.
और वह मेरी प्यारी उदास-सी लड़की --
मुझे उसका नाम तक याद नहीं.   
केवल इतना जानता हूँ कि वह इस दुनिया से ऐसे हो कर गुज़री 
जैसे कोई कबूतर पंख फड़फड़ाता हुआ पास से निकल जाता है. 
जीवन में हर चीज़ की तरह,  न चाहते हुए भी,
मैं धीरे-धीरे उसे भूल गया. 


--  नीकानोर पार्रा

नीकानोर पार्रा ( Nicanor Parra ) न सिर्फ चिली के सब से लोकप्रिय कवि माने जाते हैं, बल्कि पूरे लातिनी अमरीका में उनका प्रभाव है, और स्पेनिश के महत्वपूर्ण कवियों में उन्हें गिना जाता है. वे स्वयं को विरोधी कवि ( antipoet ) कहते हैं क्योंकि वे कविता की सामान्य परम्पराओं का विरोध करते हैं. अक्सर कविता-पाठ के बाद वे कहा करते थे  -- मैं अपना कहा वापिस लेता हूँ. लातिन अमरीकी साहित्य की परिष्कृत भाषा छोड़ उन्होंने एक ठेठ  स्वर अपनाया. उनका पहला कविता संकलन "पोएम्ज़ एंड ऐंटीपोएम्ज़ " न केवल स्पेनिश कविता का प्रभावी संग्रह है बल्कि लातिन अमरीकी साहित्य का महत्त्वपूर्ण मीलपत्थर भी है. उनकी कविताएँ ऐलन गिन्ज़बर्ग जैसे अमरीकी बीट कवियों की प्रेरणा बनी. वे कई बार नोबेल प्राइज़ के लिए नामित किए गए हैं. 2011 में उन्हें स्पेनिश भाषा एवं साहित्य का उच्चतम पुरुस्कार 'सेर्वौंत प्राइज़' प्राप्त हुआ.. यह कविता उनके संकलन 'पोएमॉस इ अंतीपोएमॉस' से है. 
इस कविता का मूल स्पेनिश से अंग्रेजी में अनुवाद नाओमी लिंटस्ट्रोम ने किया है.
इस कविता का हिंदी में अनुवाद -- रीनू तलवाड़

बुधवार, 20 नवंबर 2013

मेरी नज़र से कुछ मील के पत्थर - 11)





शब्दों को ओस में भिगोकर ईश्वर ने सबकी हथेलियों में रखे .... कुछ बर्फ हो गए,कुछ नदी बन जीवन के प्रश्नों की प्यास बुझाने लगे .................. शब्दों की कुछ नदियाँ, कुछ सागर मेरी नज़र से =

अशोक लवलहरों के कामना दीप / * अशोक लव

लहरों को सौंप दिया है कामना-दीप

जहाँ चाहे ले जाएँ

उन्ही पर आश्रित हैं अब तो

कामना दीप का अस्तित्व.


हथेलियों में रख कर सौंपा था

लहरों को कामना दीप

बहाकर ले जाने के लिए अपने संग

मंद मंद हिचकोले खाता

बढ़ता जाता है लहरों के संग.


कामना- दीप का भविष्य होता है

लहरों के हाथ

ज़रा सा प्रवाह तेज़ होते ही

डोलने लगता है

और अंततः समां जाता है लहरों में.


कामना-दीप सा समा जाना चाहता हूँ

सदा सदा के लिए

तुम्हारे ह्रदय की स्नेहिल लहरों में.



मां बहुत याद आती है
सबसे ज्यादा याद आता है
उनका मेरे बाल संवार देना
रोज-ब-रोज
बिना नागा
बहुत छोटी थी मैं तब
बाल छोटे रखने का शौक ठहरा
पर मां!
खुद चोटी गूंथती, रोज दो बार
घने, लंबे, भारी बाल
कभी उलझते कभी खिंचते
मैं खीझती, झींकती, रोती
पर सुलझने के बाद
चिकने बालों पर कंघी का सरकना
आह! बड़ा आनंद आता
मां की गोदी में बैठे-बैठे
जैसे नैया पार लग गई
फिर उन चिकने तेल सने बालों का चोटियों में गुंथना
लगता पहाड़ की चोटी पर बस पहुंचने को ही हैं
रिबन बंध जाने के बाद
मां का पूरे सिर को चोटियों के आखिरी सिरे तक
सहलाना थपकना
मानो आशीर्वाद है,
बाल अब कभी नहीं उलझेंगे
आशीर्वाद काम करता था-
अगली सुबह तक
किशोर होने पर ज्यादा ताकत आ गई
बालों में, शरीर में और बातों में
मां की गोद छोटी, बाल कटवाने की मेरी जिद बड़ी
और चोटियों की लंबाई मोटाई बड़ी
उलझन बड़ी
कटवाने दो इन्हें या खुद ही बना दो चोटियां
मुझसे न हो सकेगा ये भारी काम
आधी गोदी में आधी जमीन पर बैठी मैं
और बालों की उलझन-सुलझन से निबटती मां
हर दिन
साथ बैठी मौसी से कहती आश्वस्त, मुस्कुराती संतोषी मां
बड़ी हो गई फिर भी...
प्रेम जताने का तरीका है लड़की का, हँ हँ
फिर प्रेम जो सिर चढ़ा
बालों से होता हुआ मां के हाथों को झुरझुरा गया
बालों का सिरा मेरी आंख में चुभा, बह गया
मगर प्रेम वहीं अटका रह गया
बालों में, आंखों के कोरों में
बालों का खिंचना मेरा, रोना-खीझना मां का
शादी के बाद पहले सावन में
केवड़े के पत्तों की वेणी चोटी के बीचो-बीच
मोगरे का मोटा-सा गोल गजरा सिर पर
और उसके बीचो-बीच
नगों-जड़ा बड़ा सा स्वर्णफूल
मां की शादी वाली नौ-गजी
मोरपंखी धर्मावरम धूपछांव साड़ी
लांगदार पहनावे की कौंध
अपनी नजरों से नजर उतारती
मां की आंखों का बादल
फिर मैं और बड़ी हुई और
ऑस्टियोपोरोसिस से मां की हड्डियां बूढ़ी
अबकी जब मैं बैठी मां के पास
जानते हुए कि नहीं बैठ पाऊंगी गोदी में अब कभी
मां ने पसार दिया अपना आंचल
जमीन पर
बोली- बैठ मेरी गोदी में, चोटी बना दूं तेरी
और बलाएं लेते मां के हाथ
सहलाते रहे मेरे सिर और बालों को आखिरी सिरे तक
मैं जानती हूं मां की गोदी कभी
छोटी कमजोर नाकाफी नहीं हो सकती
हमेशा खाली है मेरे बालों की उलझनों के लिए
कुछ बरस और बीते
मेरे लंबे बाल न रहे
और कुछ समय बाद
मां न रही

* नोट- कैंसर के दवाओं से इलाज (कीमोथेरेपी) से बाल झड़ जाते हैं   


कमरे दो हों या हज़ार 
क़त्ल करने की जगह हमेशा मौजूद रहती है घर में
मैं एक फंदा बनाके बैठा रहा कल सारी रात
कि तुम जगोगी जब पानी पीने

मैंने अपनी इस आस्था से चिपककर बिताई वह पूरी रात
कि गले में कुछ मोम जमा हुआ है मेरे और तुम्हारे
और वही ईश्वर है
जो हमें बोलने, उछलने और खिड़की खोलकर कूद जाने से रोकता है
जम्हाई लेने से भी कभी-कभी
पर कसाई होने से नहीं

कैसे बिताई मैंने कितनी रातें, इस पर मैं एक निबंध लिखना चाहता हूं
इस पर भी कि कैसे देखा मैंने उसे सोते हुए,
सफेद आयतों वाले लाल तकिये पर उसके गाल,
वह मेरे रेगिस्तान में नहर की तरह आती थी
वह जब साँस लेती थी तो मैं उसके नथुनों में शरण लेकर मर जाना चाहता था
उसकी आँखें उस फ़ौजी की आँखें थीं, जिसने अभी लाश नहीं देखी एक भी
और वह हरे फ़ौजी ट्रक में ख़ुद को लोहे से बचाते हुए चढ़ रहा है
जैसे बचा लेगा

यूं वो इश्क़ में खंजरों पर चली

अजायबघरों की तरह देखे उसने शहर
सुबह से रात तक पसीना पोंछते,
कभी ख़ुद की, कभी दूसरों की देह नोचते लोग
और आत्मा महज़ एक उपकरण थी
जिसे जब बच्चों को डराने के लिए इस्तेमाल नहीं किया जा रहा होता था
तो कोई भी कवि किसी भी शब्द की जगह रख देता था उसे

हम जब इतने क़रीब लेटे थे एक रात
और द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान की किसी कहानी की तरह
ब्रैड का एक सूखा टुकड़ा हमारे बीच पड़ा था,
मैंने उससे कहा कि काश मैं तुम्हारे लिए एक अंगीठी ला सकता
और आपको विश्वास न हो भले ही, विश्वास पाना मेरा काम भी नहीं,
लेकिन उससे लम्बे समय तक कभी किसी और बात ने नहीं किया मुझे उदास

मैं जब हँसता था
तो वह परियों की तरह सोती थी

फिर मैं बार-बार उसका अपहरण कर लाता रहा
हम माफ़ियों को कुछ ज़्यादा ही गंभीरता से लेने लगे
मृत्यु के सिरहाने भी की हमने कई दफ़े अपराध की बातें, बेशर्मी से
वह मुझ पर बरसने के लिए समंदर में डूबती रही महीनों
और इससे ज़्यादा मुझे याद नहीं

एक औरत एक थैला लेकर अतीत में जा सकती है
मुझे अकेले भी नहीं आता यह

मुझे टाई ठीक से बाँधना सिखाया मेरी मां ने,
एक हाथ से तोड़ना रोटी का कौर
लेकिन नसीब उसका कि
प्रेम के बारे में वह कुछ ख़ास नहीं जानती थी

वैसे भी प्यार के गीतों के ख़िलाफ़ एक साज़िश में
गैर-इरादतन ही सही, पर मुब्तिला हूं मैं लगातार
और जब आप इस सावधानी के साथ सो रहे हों
कि सुबह उठते ही किसी बिच्छू पर ना पड़े पैर
तो मुझे नहीं लगता कि ख़ुशबुएं पहचानने की कोई कला आपके साथ सोएगी 

उसने मुझे घर चुना, मैंने उसमें खोदे गड्ढ़े
उसका शरीर जीतने की ज़िद में उसकी आत्मा लौटाई मैंने कई मर्तबा
पर पसीने से इस कदर भीगा था मेरा गला
मुझे ऐसे डराया था ऊँचे कद के कुछ लड़कों ने स्कूल में 
कि मैं उसे चूमता था तो इम्तिहान देता था जैसे

नल से पानी पीते हुए
मैं अब भी पीछे मुड़कर देखता हूं बार-बार पेड़ों की तरफ़,
अँधेरे में पायल बजती हैं मेरी छाती पर,  
कोई औरत ज़रा नरमी से मेरा हाथ पकड़े
तो मुझे लूट सकती है किसी भी सरकार की तरह,
यहाँ मैं अपने अपाहिज होने का कहूं
तो आपको इश्तिहार लगेगा कोई

ख़ैर, ज़हर मिलाया मैंने उसकी चाय में
और गला मन से बड़ा नहीं होता, आप जानते ही हैं, 
फिर मैं ब्रश करने गया
और लौटकर आया तो वह एक घोड़े पर लेटी थी,
अपनी नज़र पर मुझे यक़ीन नहीं हालांकि।

चादर जब धुलने गई तो धोबी ने कहा कि 
पचास बार क्यों लिखते हैं आप इस पर अपना नाम?

इन पत्थरों की अपनी पहचान है - और मेरी नज़रें इनके आगे नत हैं - सम्भव है न देव आकृति की !!!