गुरुवार, 29 अगस्त 2013

मेरी नज़र से कुछ मील के पत्थर - 8 )



शब्दों को ओस में भिगोकर ईश्वर ने सबकी हथेलियों में रखे .... कुछ बर्फ हो गए,कुछ नदी बन जीवन के प्रश्नों की प्यास बुझाने लगे .................. शब्दों की कुछ नदियाँ, कुछ सागर मेरी नज़र से =

हमारे प्रदेश में एक कहावत काफ़ी फ़ेमस है – तीन टिक्कट, महा विकट। इसका सामान्य अर्थ यह है कि अगर तीन लोग इकट्ठा हुए तो मुसीबत आनी ही आनी है। ऐसे ही कोई कहावत कहावत नहीं बनता है। कोई-न-कोई वाकया तो उसके पीछे रहता ही होगा। करण बाबू तो इसी पर एक श्रृंखला चला रहे थे .. आजकल उसे अल्पविराम दिए हैं। अब तीन टिकट महा विकट का भी ऐसा ही कोई न कोई वाकया ज़रूर होगा। जैसे तीन दोस्त ट्रेन से जाने के लिए निकले तीन टिकट लिया और गाड़ी किसी नदी पर से गुज़र रही थी, तो इंजन फेल हो गया; तीन टिकट लेकर तीन जने किसी बस से निकले, सुनसान जगह में जाकर उसका टायर बर्स्ट हो गया। तीन टिकट लेकर ट्राम में बैठे कि उसको चलाने वाली बिजली का तार टूट जाए। किस्सा मुख़्तसर ये कि तीन के साथ कोई न कोई बखेड़ा होना लिखा ही है।

जब घर से तीन जने निकलते, तो कोई न कोई टोक देता कि तीन मिलकर मत जाओ, तो दो आगे एक पीछे से आता, या एक आगे, दो पीछे से आते। एक मिनट-एक मिनट!!!! अरे हम इतना तीन तीन काहे किए हुए हैं, आप भी सोच में पड़ गए होंगे। अजी आज रात के बारह बजे हम भी तीन पूरे कर रहे हैं, पूरे तीन साल इस ब्लॉग जगत में। हो गया न हमारा भी तीन का फेरा। तो हमारे इस ‘मनोज’ ब्लॉग का भी तीसरा टिकट कट गया ना। अब तीन का टिकट आसानी से तो नहीं ही कटना था। विकट परिस्थिति को महा-विकट होना ही था ... देखिये हो ही गया। ‘फ़ुरसत में’ तो हैं हम, लेकिन कुछ लिखने का फ़ुरसत नहीं बन रहा, ‘आंच’ लगाते हैं, तो अलाव बन जाता है। स्मृति के शिखर पर आरोहण में बहुत कुछ विस्मृत और गुप्त-सा हो चला है। क्या बधाइयां, क्या शुभकामनाएं, सब व्यर्थ लगता है। तीन साल इस ब्लॉग-जगत में अपना सर्वश्रेष्ठ देते-देते हमारे लिए भी ‘तीन टिक्कट - महा-विकट’ वाली स्थिति हो गई है।


तीन पूरे हुए ! अब तो चौथ है !
तीन पूरे हुए,
अब तो चौथ है!
सोचता हूँ
कैसा ये एहसास है?
या कोई पूर्वाभास है?
आज फिर
फ़ुरसत में
फ़ुरसत से ही
लिखने बैठा हूं,
सीधा नहीं
पूरी तरह से ऐंठा हूं
इतने दिनों के बाद
फिर से ब्लॉग पर लिखना लिखाना
आने वाली चौथ का आभास है?
मैं सोचता हूँ
कैसा ये एहसास है?
या कोई पूर्वाभास है?
चींटियों को भी तो हो जाता है
अपनी मौत से पहले
ही अपनी मौत का आभास
मानो उम्र उनकी आ चुकी है
खत्म होने के ही शायद आस-पास।
उस समय जगती है उनकी प्रेरणा
कि ज़िन्दगी के दिन बचे हैं जब
बहुत ही कम
तो हो जाती हैं आमादा
वे करने को कोई भी काम भारी
और भी भारी
है ताज्जुब
चींटियां अपनी उमर के साथ
कैसे हैं बदलतीं काम अपने
और बदलतीं काम की रफ़्तार को भी!
चींटियाँ...
ये नाम तो सबने सुना ही होगा
पड़ा होगा भी इनसे वास्ता
चलते गली-कूचे, भटकते रास्ता.
लाल चींटी और कभी
काली सी चींटी
काट लेतीं और लहरातीं
खड़ी फसलें, कभी सब चाट जातीं
या घरों में बंद डिब्बों में भी घुसकर
सब मिठाई साफ़ कर जातीं हैं पल में
किन्तु हर तस्वीर का होता है
कोई रुख सुनहरा
चाटकर फसलों को ये
करती परागण हैं
जो फसलों को सहारा भी तो देता है.

यह ‘हिमेनोप्टेरा’
ना तेरा, न मेरा
सबका,
सामाजिक सा इक कीड़ा
इसे कह ले कोई भी
राम की सीता, किशन की मीरा
या जोड़ी कहे राधा किशन की
धुन की पक्की,
सर्वव्यापी स्वरूप उसका
गृष्म, शीतल, छांव, चाहे धूप
जंगल गाँव
पर्वत, खेत या खलिहान
भूरी, लाल, धूसर, काली
छोटी और बड़ी,
बे-पर की, पंखों वाली
दीवारों दरारों में
दिखाई देती है बारिश के पहले,
और वर्षा की फुहारों में
कभी मेवे पे, या मीठे फलों पर
दिख भी जाते हैं ज़मीं पर,
और पत्तों पर,
नहीं तो ढेर में भूसे के
डंठल में यहां पर
या वहां पर
बस अकेले ही ये चल देती हैं
और बनता है इनका कारवां.
बीज, पौधों के ये खाती हैं
कोई फंगस लगी सी चीज़ भी
खाती पराग उन फूल के भी
फिर मधु पीकर वहाँ से भाग जातीं

कितनी सोशल हैं,
कोलोनियल भी हैं
चाहे कुछ भी कह लें
किन्तु यह प्राणी ओरिजिनल हैं
ज़मीं के तल में
अपना घोंसला देखो बनाती
अलग हैं रूप इन कीटों के
इनके काम भी कैसे जुदा है
बांझ मादा को यहाँ कहते हैं ‘वर्कर’,
और बे-पर के सभी हैं ‘सोल्जर’
दुश्मन के जो छक्के छुड़ातीं
कोख जिनकी गर्भधारण को हैं सक्षम
‘रानी’ कहलातीं हैं
न्यूपिटल फ़्लाइट में
“प्रियतम” का अपने
मन लगाती, दिल भी बहलाती!

छिडककर फेरोमोन वातावरण में
वे प्रकृति की ताल पर
करती थिरककर नाच
अपने ‘नर’ साथी को जमकर लुभाती.
जो मिलन होता है न्यूपिटल फ़्लाइट में
बनता है कारण मौत का
उसके ही प्रियतम की
औ’ रानी त्यागकर पंखों को अपने
शोक देखो है मनाती
साथ ही वो देके अंडे
इक नयी दुनिया बसाती है
ऐसे में वर्कर भी आ जाती
मदद को
सोल्जर भी करतीं रखवाली
अजन्मे बच्चों की
कितने जतन से.
और उधर रानी को जो भी ‘धन’ मिला नर से
उसे करती है संचय इस जतन से
जिसके बल पर
देती रहती है वो
जीवन भर को अंडे
रूप लेते है जो फिर
चींटी का.

कैसे चीटियां
अपनी बची हुई आयु का कर अनुमान
करती हैं बचा सब काम
अंदाजा लगाकर मौत का
हो जाती हैं सक्रिय
निरन्तर अग्रसर होती हैं
अपने लक्ष्य के प्रति
और लड़ती है सभी बाधाओं से
टलती नहीं अपने इरादे से
नहीं है देखना उनको पलटकर
और न हटना है कभी पथ से
उन्हें दिखता है अपना लक्ष्य केवल!!
लक्ष्य केवल लक्ष्य, केवल लक्ष्य..!! 
लक्ष्य भी कितना भला
कि ग्रीष्म ऋतु में ही
जमा भोजन को करना
शीत के दिन के लिए पहले से!
ताकि उस विकट से काल में
ना सामना विपदा से हो!
मालूम है उनको
समय अच्छा सदा रहता नहीं है
दुख व संकट का सभी को सामना
पड़ता है करना.
चींटियां
देतीं हैं नसीहत हैं
बुरा हो वक़्त फिर चाहे भला हो
हम भला व्यवहार अपना क्यों बिगाडें
सीख देती हैं
कि निष्ठा से, लगन से
काम की खातिर रहें तैयार
हर हालात से लड़कर
हमें देती हैं वे यह ज्ञान
जब संतोष धन आये
तो सब धन है ही धूरि समान
कैसे जब उन्हें शक्कर मिले तो
ढेर से वो बस उठातीं एक दाना
छोड़ देती हैं वो बाकी दूसरों के नाम.
समझातीं है हमको
उतना ही लो जितना तुमको चाहिए
क्षमता तो देखो अपनी तुम
संचय से पहले!
चींटियां
कहती हैं हमसे
जो कमी है, दूर उसको कर
जिसे पाना है उसको पा ही लेने की
करो कोशिश
सभी बाधाएं खुद ही ढेर हो जायेंगी
चूमेगी तुम्हारे पाँव खुद आकर
सफलता, कामयाबी!!!


मनोज कुमार 
हम क्या थे, क्या हैं, होंगे क्या?
अब यही बैठ कर सोच रहाँ हूँ.
शिक्षा में ह्रास भिक्षा की आस. 
हर बात में पश्चिम देख रहा हूँ.
आज प्रतिगामी सोच वाले 
शुक्राचार्यों की भरमार तो सब और है,

परन्तु प्रगतिशीलता के पोषक वशिष्ठ, कोण 
कौटिल्य, कबीर, नानक. विवेकानंद और 
परशुराम का आभाव क्यों है?
नैतिक मूल्यों में ह्रास क्यों है?
और भौतिकता की आंधी में 
अध्यात्मिकता का उपहास क्यों है?

कहीं पढ़ा था - "कोई भी गम मनुष्य के 
साहस से बड़ा नहीं वही हारा जो लड़ा नहीं".
यह विचार नहीं, सिद्धांत है. 
हमें लड़नी है, एकसाथ दो लडाइयां;
एक सांस्कृतिक पुनरुत्थान की और 
दूसरी मधुमय संतुलित प्रकृति की.
उसके संरक्षण और अनुरक्षण की.

मूल अधिकार यह हक़ है अपना,
नहीं कोई यह भिक्षा है.
'कंठ में शास्त्र' और 'कर में शस्त्र',
यह परशुराम की शिक्षा है.

शास्त्र पर तो चर्चा बहुत मिलती है.
कुछ चर्चा उनके अस्त्र पर,
उनके परशु और शास्त्र पर.
परशुराम का सन्देश स्पष्ट है -
जब शास्त्र की मर्यादा, राष्ट्रीय स्वाभिमान,
अपना अस्तित्व, अपनी संस्कृति और
अपनी प्यारी प्रकृति हो संकट में,
अन्याय के दमन और लोकमंगल हेतु
सर्वथा उचित है शस्त्र प्रयोग. 

परन्तु आज का शस्त्र परशु नहीं,
संवैधानिक अधिकार, सांस्कृतिक विमर्श है.
तेजस्वी विश्वामित्र ने स्वीकार किया था कभी-
क्षात्र शक्ति बलम नास्ति ब्रह्म तेजो बलं बलम.
सांस्कृतिक अधिकार में, दायित्वा निर्वहन में,
उसी राष्ट्रीय उर्जा का प्रस्फुटन होना चाहिए. 

परशु हमेशा शिरोच्छेदक ही नहीं होता.
होता है यह सर्जक और पोषक भी.
अवांछित टहनियों को काट-छाँट कर,
स्वस्थ शाखा, समर्थ वृक्ष के निर्माण में,
देखो ! इसका कितना सुंदर उपयोग. 
लोकमंगल की तुला पर ही 
अब करना है इसका प्रयोग.

परशुराम की यह शिक्षा 
छठे नानक के रूप में रंग लाई,
जब 'मीरी' और 'पीरी' के रूप में,
इसे जीवन संगिनी बनाई.
दशमेश पिता ने किया इसे साकार,
बना दिया जिसने नर को एक ही साथ, 
"संत" - "सिपाही" और "सरदार". 

रम रहा जो जीव - जगत में,
एक वही तो है - "राम".
साथ विवेकी परशु हो जब,
जानो उसे ही - "परशुराम". 
था संस्कृति का रक्षक वह,
"धनुष - भंग" सहता कैसे ?
देखा जब पूरी घटना, सारा विवरण.
जाना उत्तराधिकारी का अवतरण.
क्षणमात्र ना किया विलम्ब तब,
दिया सौप सब भार उसे तत्क्षण.

संघेशक्ति कलियुगे, विचार नहीं सच्चाई है,
करनी होगी स्वीकार इसे, इसी में सबकी भलाई है.
हम मिल बैठ विचार करेंगे, हे संभव उपचार करेंगे,
साथ जियेंगे, साथ मरेंगे, आज यही संकल्प करेंगे.
कर उपाय हरसंभव संतुलित पारिस्थितिकी निर्माण करेंगे.
अब तक चाहे जितना खोया, अबसे हम उत्कर्ष करेंगे.
कैसे हो सिरमौर राष्ट्र? अब इसका भी सुप्रबंध करेंगे.

pragyan-vigyan

जे.पी तिवारी 



 कमाल के बुजुर्ग थे ऊ भी. घर के ओसारा में एगो चौकी पर अपना पूरा दुनिया बसाए हुए, उसी में खुस. घर का बाल-बच्चा दुतल्ला मकान बना लिया, मगर उनको तो ओही चौकी पर दुनिया भर का सुख हासिल था. जब पुराना मकान था तबो अउर पक्का बन जाने के बादो, ओसारा छोडकर कहीं नहीं गए. बस फरक एही हुआ कि पहले ऊ ओसारा कहलाता था, बाद में ‘वरांडा’ कहलाने लगा. मगर उनके लिए ओही सलतनत था. घर के बहु लोग से पर्दा भी हो जाता था. कभी अंगना में जाने का जरूरत होता त गला खखार कर सबको बता देते थे कि बादसाह सलामत तसरीफ ला रहे हैं. बहु लोग घूँघट माथा पर रख लेतीं. जो काम होता करने के बाद, जो बात होता कहने के बाद फिर से ओसारा में जाकर तख्तेताऊस पर बैठ जाते.

तख्तेताऊस माने चौकी. उसी पर बैठना, पढाई करना, हिसाब-किताब लिखना अउर सो जाना. सब कुछ छितराया हुआ. कभी कुछ खोजना हो, त भूसा में सुई खोजने जइसा काम. मगर आप पूछकर देखिये कि फलाना चीज कहाँ है, त बिना हिले-डुले कहेंगे, “ऊ, ललका चदरवा हटाइये ज़रा, उसी के तर में रखा होगा.” (वो लाल चादर हटाइये ज़रा, उसी के नीचे रखा होगा) अउर कहने का जरूरत नहीं कि ओहीं मिल भी जाता. गलती से कहीं कोइ उनका सामान सजाकर रख दिया, त ऊ आदमी के लिए सजा हो जाता. कम से कम दू घंटा भासन कि हमरा चीज कोइ मत छुआ करो.

जेतना साल नौकरी नहीं किये, ओतना साल रिटायरमेंट का आनंद लिये. बस पढाई का ऐसा सुख कि पूछिए मत. ज्योतिष से लेकर बैदक इलाज तक, अउर धर्मं सास्त्र से लेकर साहित्त तक. होमियोपैथी अउर बायोकेमिक का दवाई किताब पढकर देते थे. आसपास का टोला मोहल्ला का गरीब लोग बीमारी बताकर दवाई ले जाता था. अउर ठीक भी हो जाता था. पत्रा उठाकर सबको बताते रहते थे कि फलाना दिन फलाना बरत है अउर फलाना दिन ग्रहण लगेगा. कोनो मासटरी नहीं था ई सब काम में, मगर अपना जैकगिरी में खुस थे.

साहित् के मामला में उनका फेवरेट किताब था सिवाजी सावंत का ‘मृत्युंजय’, आचार्य चतुरसेन का ‘वयं रक्षामः’ अउर ‘वैशाली की नगरवधू’. कमजोर अउर भावुक इतना थे कि उनके सामने जब ‘रश्मिरथी’ का कर्ण-कुंती संबाद पढ़ा जाता था, त ढर- ढर आँख से लोर चूने लगता था. रात में खाना-पीना हो जाने के बाद, घर का सब लोग को एक जगह बईठा कर अपना पोता को कहते कि पढकर सुनाओ. उसके भी आवाज में गजब का उतार चढ़ाव था कि सीन एकदम सामने उतर जाता था. ऊ सुनते जाते थे अउर रोते जाते थे. कभी कोनो भाग दोहरा के पढने के लिए रोते-रोते गला से आवाज नहीं निकलता था, त हाथ का इशारा से कहते कि दोबारा पढ़ो.

पुराना आदमी, मगर मॉडर्न भी ओतने थे. सब पोता को बटोरकर ‘शोले’ देखाने ले गए. बसन्ती से गजब परभावित थे. एही नहीं, कोनो नया बात बताने पर उसको सुनते थे अउर बच्चा जैसा सीखने का कोसिस भी करते थे. सबको बैठाकर पढ़ाते थे अउर पढने वाला बच्चा को बहुत मानते थे. अंकगणित का सवाल उंगली पर जोडकर बना देते थे. कहते थे कि पहाड़ा गणित का जड़ है. सवैया अऊर अढैया का पहाडा तक याद था उनको.

कभी खाली होने पर गाना भी गुनगुनाते थे, गुनगुनाते का थे जोर-जोर से सुर लगाकर गाने लगते थे ‘मेरा जीवन कोरा कागज़ कोरा ही रह गया.’ लाख समझाने पर कि ई गाना बिरह का है, उनका मानना था कि ई गाना एकदम आध्यात्मिक गाना है.

ई जेतना भी उनका घर का एक्टिविटी था सब ओही चौकी पर चलता था जो ओसारा में बिछा हुआ था. १९७५ में जब पटना में भीसन बाढ़ आया अउर सबलोग घर छोडकर चला गया, ऊ ओही चौकी पर १२ दिन तक तैरते रहे. बगल वाला घर में से खाना बनाकर बहु उनको दे आती थीं अउर ऊ खा लेते थे. केतना सांप अउर अजीब-अजीब  जानवर ओही पानी में घूमता रहता था. मगर ऊ हिले नहीं चौकी से. अपने गाँव के मट्टी से एतना प्यार कि जब उनका छोटा बेटा सब खेत बेचकर पटना में पक्का मकान बनवा लिया, तबो ऊ अपना चौकी पर प्राण छोड़ दिए मगर मरते दम तक ऊ मकान में नहीं गए!

कातिक पूरनमासी के दिन भोरे-भोरे नहा धोकर बाजार चले जाते थे अऊर लौटकर सब लोग को एक साथ बैठाकर कचौड़ी अऊर जिलेबी खिलाते. खिलाने का कारण भी था, उनका जनमदिन!

हैप्पी बर्थ-डे दादा जी!  

सलिल वर्मा 

रविवार, 11 अगस्त 2013

मेरी नज़र से कुछ मील के पत्थर - 7 )




शब्दों को ओस में भिगोकर ईश्वर ने सबकी हथेलियों में रखे .... कुछ बर्फ हो गए,कुछ नदी बन जीवन के प्रश्नों की प्यास बुझाने लगे .................. शब्दों की कुछ नदियाँ, कुछ सागर मेरी नज़र से =

राजकमल आज ज़िंदा होते तो चौरासी वर्ष के होते | अड़तीस की उम्र भी कोई उम्र होती है दुनिया छोड़ कर चले जाने की ?  ज़िंदा होते तो इन बकाया तकरीबन पचास सालों में क्या कहर ढाते वो अपनी कविताओं और कहानियों से...उफ़्फ़ कल्पनातीत है ये | होश संभालने और पढ़े-लिखे की समझ-प्राप्ति के बाद से जिस एक नाम ने अपनी रचनाओं से नसों में कुछ सनसनी जगाने का काम किया, वो राजकमल थे और मेरा सौभाग्य कि उनके शहर में पैदा होने अवसर मिला मुझे | बहुत बाद में जाना कि वो तो मेरे जन्म लेने से आठ साल पहले चल बसे थे और बेटे की कामना मेरी माँ को ले गई थी महिषी उग्रतारा की शरण में, जिसे अपनी कविताओं में राजकमल बड़े स्नेह से नीलकाय उग्रतारा कह कर पुकारते हैं | उन्हीं को याद करते हुये कभी कुछ लिखा था जो बाद में त्रैमासिक 'कृति ओर' में कविता कहकर प्रकाशित हुआ था :- 


होश की तीसरी दहलीज़ थी वो
हाँ ! तीसरी ही तो थी,
जब तुम्हारी मुक्ति का प्रसंग
कुलबुलाया था पहली बार
मेरे भीतर
अपनी तमाम तिलमिलाहट लिए
दहकते लावे-सा
पैवस्त होता हुआ
वज़ूद की तलहट्टियों में

फिर कहाँ लाँघ पाया हूँ
कोई और दहलीज़ होश की...

सुना है,
ज़िंदगी भर चलती ज़िंदगी में
आती हैं
आठ दहलीज़ें होश की
तुम्हारे "मुक्ति-प्रसंग" के
उन आठ प्रसंगों की भाँति ही

सच कहूँ,
जुड़ तो गया था तुमसे
पहली दहलीज़ पर ही
अपने होश की,
जाना था जब
कि
दो बेटियों के बाद उकतायी माँ
गई थी कोबला माँगने
एक बेटे की खातिर
उग्रतारा के द्वारे...

...कैसा संयोग था वो विचित्र !

विचित्र ही तो था
कि
पुत्र-कामना ले गई थी माँ को
तुम्हारे पड़ोस में
तुम्हारी ही "नीलकाय उग्रतारा" के द्वारे
और
जुड़ा मैं तुमसे
तुम्हें जानने से भी पहले
तुम्हें समझने से भी पूर्व

वो दूसरी दहलीज़ थी
जब होश की उन अनगिन बेचैन रातों में
सोता था मैं
सोचता हुआ अक्सर
"सुबह होगी और यह शहर
मेरा दोस्त हो जायेगा"
कहाँ जानता था
वर्षों पहले कह गए थे तुम
ठीक यही बात
अपनी किसी सुलगती कविता में

...और जब जाना,
आ गिरा उछल कर सहसा ही
तीसरी दहलीज़ पर
फिर कभी न उठने के लिए

इस "अकालबेला में"
खुद की "आडिट रिपोर्ट" सहेजे
तुम्हारे प्रसंगों में
अपनी मुक्ति ढूँढता फिरता
कहाँ लाँघ पाऊँगा मैं
कोई और दहलीज़
अब होश की...


...उनको पढ़ने और समझने वाले जानते हैं कि जीते जी तो उनकी रचनाओं को सम्मान नहीं मिला | यहाँ तक कि अज्ञेय ने भी उन्हें तार-सप्तक में उपेक्षित रखा | देव शंकर नवीन को उद्धृत करूँ तो "जनसरोकार की मौलिकता, अपने लेखन और जीवन के तादात्म्य, साहित्यिक प्रतिबद्धता और ईमानदारी के सिलसिले में, राजकमल चैधरी के समानान्तर हिन्दी के छायावादोत्तर काल की किसी भी विधा में मुक्तिबोध के अतिरिक्त किसी और का नाम गिनाने में असुविधा हो सकती है" ...वही मुक्तिबोध जिन्होंने राजकमल से बारह बसंत ज्यादा देखे, लेकिन मठ और गढ़ से दूर रहने वाले आलोचकों की सुने तो अपने तेवर और अपने कविताई सरोकार के बजरिये उन्नीस ही ठहरते थे मुक्तिबोध राजकमल के समक्ष |

ख़ैर, ये तो हमारे मुल्क की रीत ठहरी सदियों पुरानी...जगे हुओं को जगाने की | चंद नामचीन प्रकाशकों की बदौलत हिन्दी का एक बड़ा पाठकवर्ग परिचित हो रहा है अब राजकमल चौधरी की जगमगाहट से | इस महान कवि को उनकी छियालीसवीं पुण्यतिथि पर मेरी अशेष श्रद्धांजली !!!


गौतम राजरिशी 




प्रेम मेरा वसन है
आत्मा है राग
अनुराग है अस्तित्व मेरा
गाती रहूंगी जीवनपर्यंत

तोडती रहें परिस्थितियाँ
नहीं डिगा पाएंगी पथ से
आयरन खाकर हो गयी हूँ आयरन
चेरी हूँ विरह की

लिखती है मेरी लेखनी व्यथा
जो टपकती है तुम्हारी पलकों से
मेरी आँख में
व्यथा जो करती है नर्तन
धुरी पर प्रेम की

प्रेम जो अनश्वर है
अनादि है
हो गया है ओझल 
हमारी आँख से 
या 
हो गये हैं गांधारी हम ही 
......


गीता पंडित 


बात उन दिनों की है जब मैं करीब १३ साल का होऊँगा । हमारे यहाँ घरों में अक्सर गोरैया (एक पक्षी) अपना घोंसला बना लेती है । मेरे घर में भी गोरैया का एक ऐसा ही घोंसला था । उसमे गोरैया का एक जोड़ा रहा करता था । उन्हें घोंसले में आते जाते देखना अच्छा लगता था । घोंसले में गोरैया का एक नवजात बच्चा भी था  । जब कभी गोरैया अपने बच्चे  के लिए बाहर से कड़ी मेहनत कर अनाज के कुछ दाने लाते थे  तब उनकी चहचहाहट से माहौल खुशनुमा हो जाया करता था । मैं और मेरा छोटा भाई दोनों अक्सर देखा करते थे इस दृश्य को । गोरैया के जोड़े अपने चोंच से दाना उठा उठाकर अपने बच्चे के मुँह में रखा करते थे । बहुत ही सुन्दर और आत्मीय दृश्य होता था वह । कुल मिलाकर एक छोटा मगर हँसता - खेलता परिवार था गोरैया का ।

पर कहते हैं न कि अनहोनी आपके आसपास हमेशा मंडराती रहती है । ऐसा ही कुछ हुआ उस गोरैया परिवार के साथ। बात यह थी कि जिस कमरे में उन्होंने अपना घोंसला बनाया था उसमें एक पंखा टंगा हुआ था । हालांकि हमलोग अक्सर इस बात का ध्यान रखा करते थे कि जब कभी वो कमरे में हों , पंखा बंद रहे । पर शायद होनी को कौन टाल सकता है । उस गोरैया माता-पिता में से एक उस पंखे कि चपेट में आ गया । और वहीं उसने अपने प्राण त्याग दिए, अपने पीछे एक छोटा सा संसार छोड़कर । हमने सुबह उसके निर्जीव शरीर को देखा और काफी दुखित हुए ।
उस घटना के बाद से हमलोग (मैं और मेरा छोटा भाई) तनहा अकेले बचे उस गोरैया और उसके बच्चे की गतिविधियों पर ध्यान रखने लगे । हम भी उनके दुःख में शामिल थे पर ना तो हम उन्हें सांत्वना दे सकते थे और ना ही अपनी संवेदना उनके सामने प्रकट कर सकते थे । हमलोग अक्सर नीचे बिछावन पर बैठकर उनके घोंसले की ओर देखा करते थे , जहाँ से वो गोरैया भी हमें देखा करती थी , आँखों में एक सवाल लिए जिसका जवाब शायद किसी के पास नहीं था ।

कुछ दिन इसी तरह बीतता गया । पर एक दिन ना जाने क्या हुआ , गोरैया कमरे में नहीं आई । गोरैया के उस नवजात बच्चे की तरह , हमलोग भी उसके आने का इन्तजार कर रहे थे । रात बीत गया .... सुबह हो गई ... पर वो नहीं आई । बच्चा भूख से छटपटा रहा  था जो कि उसके करुण आवाज़ में सहज ही प्रकट होता था । उसकी इस छटपटाहट के साथ हमारे मन में भी आशंकाओं की सुनामी उठने लगी थी । हमलोग इस सोच में पड़े थे कि आखिर क्या हुआ जो वह नहीं आई । हमसे उसकी भूख बर्दाश्त नहीं हो रही थी ।

हमलोगों ने शाम तक गोरैया का इन्तजार किया पर वह नहीं आई । अंततः हमदोनों ने गोरैया के बच्चे को खुद से ही दाना खिलाने की सोची । हमने घर में बने चावल के कुछ दाने लिए और उनके घोंसले में रख दिया , एक छोटी सी कटोरी में रखकर । कुछ देर बाद जब हमने मुआयना किया तो देखा कि सारे चावल के दाने ज्यों के त्यों पड़े थे। हम बहुत उदास हुए । हमें ऐसा लगा के शायद वो हमारे हाथ का दिया दाना नहीं खाना चाहते थे । फिर हमें ध्यान आया कि अभी तो वह नवजात है और खुद  दाना नहीं चुग सकता है । तभी तो उसके माता-पिता अपनी चोंच से दाना उसके मुँह में डालते थे । तब हमने अपने हाथों से एक एक दाना लेकर उनके मुँह में डालना शुरू किया । और वह उसे सप्रेम स्वीकार करता गया । आखिर उसे भूख भी तो लगी थी .... । उसके कोमल चोंच जब हमारे हाथों कि उँगलियों को स्पर्श करते थे तो एक सुखद आनंद की अनुभूति होती थी । कुछ ही दिनों में हमारा उसका संबंध बहुत आत्मीय हो गया था । हमें ऐसा लगता था कि हमने भाषायी सीमाओं को तोड़ दिया है और मनुष्य एवं पक्षी के बीच की खाई को भी पाट दिया है । उसकी आँखें हमारे लिए भाषा और अभिव्यक्ति का माध्यम बन गई थीं । उसकी चहचहाहट काफी कुछ बयां कर देती थी | तब समझ में आया की संबंधों में भाषायी विविधता कोई बड़ी समस्या नहीं है , बस आत्मीयता होनी चाहिए , प्रेम होना चाहिए । पर आज मनुष्यों के बीच शायद इसका अभाव है ।

इसी तरह दिन बीतता गया । हम उन्हें रोज दाना खिलाया करते थे , अपने हाथों से ।  हमें एक डर भी था कि कहीं वह गलती से ऊपर बने उस घोंसले से नीचे ना गिर जाए । हालाँकि ऐसी संभावना कम ही थी लेकिन फिर भी हमने खुद से उसके  लिए एक अलग घोंसला बनाया, घास-फूस और पत्तों से पूरी तरह से सुरक्षित । हमने घोंसले को एक चारों तरफ से बंद तथा ऊपर से खुले काठ के एक बक्से में रखकर उसमें उन बच्चों को रख दिया । अब वह सुरक्षित था  और हम निश्चिन्त .... । हम निश्चिन्त थे कि अब वो गिर नहीं सकता था ।  अब तो वो जब भी हमें देखता था बस चहकना शुरू कर देता था । फिर एक दिन कुछ ऐसा हुआ जिसे देखकर हमारी ख़ुशी का ठिकाना नहीं रहा । हुआ यह कि वह घोंसले से बाहर निकलकर कमरे में इधर - उधर फुदक रहा था । वह उड़ने की कोशिश कर रहा था । हमने भी उसके उड़ान भरने के प्रयास में अपने स्तर से सहयोग किया । हालांकि अभी वह छोटी - छोटी उड़ाने ही भरता था पर वह हमारे लिए सुकुनकारक एवं आनंदकारी था , आखिर उसने उड़ने की कोशिश जो शुरू कर दी थी । हम काफी खुश थे .... ।

फिर एक दिन आया जब उसने लम्बी उड़ान भरी और उड़कर हमारे घर के बाहर एक आम की डाली पर जा बैठा । बहुत अच्छा लग रहा था .... । खुशी हुई पर एक दुःख भी था मन में कि आज वह हमें छोड़कर अपनी दुनिया में जा रहा था । तब उसकी आँखों में दूर से ही देखा था  हमने , हमारे लिए आत्मीय प्रेम को .......... और एक वादा ........ फिर से मिलने का ....... । 


शिवनाथ कुमार

थकान उतर जाती है जब जीवन के हर कोण लेखनी में प्राणप्रतिष्ठा पा जाते हैं,इस संजीवनी से हम कैसे दूर रहें !!!