रविवार, 11 अगस्त 2013

मेरी नज़र से कुछ मील के पत्थर - 7 )




शब्दों को ओस में भिगोकर ईश्वर ने सबकी हथेलियों में रखे .... कुछ बर्फ हो गए,कुछ नदी बन जीवन के प्रश्नों की प्यास बुझाने लगे .................. शब्दों की कुछ नदियाँ, कुछ सागर मेरी नज़र से =

राजकमल आज ज़िंदा होते तो चौरासी वर्ष के होते | अड़तीस की उम्र भी कोई उम्र होती है दुनिया छोड़ कर चले जाने की ?  ज़िंदा होते तो इन बकाया तकरीबन पचास सालों में क्या कहर ढाते वो अपनी कविताओं और कहानियों से...उफ़्फ़ कल्पनातीत है ये | होश संभालने और पढ़े-लिखे की समझ-प्राप्ति के बाद से जिस एक नाम ने अपनी रचनाओं से नसों में कुछ सनसनी जगाने का काम किया, वो राजकमल थे और मेरा सौभाग्य कि उनके शहर में पैदा होने अवसर मिला मुझे | बहुत बाद में जाना कि वो तो मेरे जन्म लेने से आठ साल पहले चल बसे थे और बेटे की कामना मेरी माँ को ले गई थी महिषी उग्रतारा की शरण में, जिसे अपनी कविताओं में राजकमल बड़े स्नेह से नीलकाय उग्रतारा कह कर पुकारते हैं | उन्हीं को याद करते हुये कभी कुछ लिखा था जो बाद में त्रैमासिक 'कृति ओर' में कविता कहकर प्रकाशित हुआ था :- 


होश की तीसरी दहलीज़ थी वो
हाँ ! तीसरी ही तो थी,
जब तुम्हारी मुक्ति का प्रसंग
कुलबुलाया था पहली बार
मेरे भीतर
अपनी तमाम तिलमिलाहट लिए
दहकते लावे-सा
पैवस्त होता हुआ
वज़ूद की तलहट्टियों में

फिर कहाँ लाँघ पाया हूँ
कोई और दहलीज़ होश की...

सुना है,
ज़िंदगी भर चलती ज़िंदगी में
आती हैं
आठ दहलीज़ें होश की
तुम्हारे "मुक्ति-प्रसंग" के
उन आठ प्रसंगों की भाँति ही

सच कहूँ,
जुड़ तो गया था तुमसे
पहली दहलीज़ पर ही
अपने होश की,
जाना था जब
कि
दो बेटियों के बाद उकतायी माँ
गई थी कोबला माँगने
एक बेटे की खातिर
उग्रतारा के द्वारे...

...कैसा संयोग था वो विचित्र !

विचित्र ही तो था
कि
पुत्र-कामना ले गई थी माँ को
तुम्हारे पड़ोस में
तुम्हारी ही "नीलकाय उग्रतारा" के द्वारे
और
जुड़ा मैं तुमसे
तुम्हें जानने से भी पहले
तुम्हें समझने से भी पूर्व

वो दूसरी दहलीज़ थी
जब होश की उन अनगिन बेचैन रातों में
सोता था मैं
सोचता हुआ अक्सर
"सुबह होगी और यह शहर
मेरा दोस्त हो जायेगा"
कहाँ जानता था
वर्षों पहले कह गए थे तुम
ठीक यही बात
अपनी किसी सुलगती कविता में

...और जब जाना,
आ गिरा उछल कर सहसा ही
तीसरी दहलीज़ पर
फिर कभी न उठने के लिए

इस "अकालबेला में"
खुद की "आडिट रिपोर्ट" सहेजे
तुम्हारे प्रसंगों में
अपनी मुक्ति ढूँढता फिरता
कहाँ लाँघ पाऊँगा मैं
कोई और दहलीज़
अब होश की...


...उनको पढ़ने और समझने वाले जानते हैं कि जीते जी तो उनकी रचनाओं को सम्मान नहीं मिला | यहाँ तक कि अज्ञेय ने भी उन्हें तार-सप्तक में उपेक्षित रखा | देव शंकर नवीन को उद्धृत करूँ तो "जनसरोकार की मौलिकता, अपने लेखन और जीवन के तादात्म्य, साहित्यिक प्रतिबद्धता और ईमानदारी के सिलसिले में, राजकमल चैधरी के समानान्तर हिन्दी के छायावादोत्तर काल की किसी भी विधा में मुक्तिबोध के अतिरिक्त किसी और का नाम गिनाने में असुविधा हो सकती है" ...वही मुक्तिबोध जिन्होंने राजकमल से बारह बसंत ज्यादा देखे, लेकिन मठ और गढ़ से दूर रहने वाले आलोचकों की सुने तो अपने तेवर और अपने कविताई सरोकार के बजरिये उन्नीस ही ठहरते थे मुक्तिबोध राजकमल के समक्ष |

ख़ैर, ये तो हमारे मुल्क की रीत ठहरी सदियों पुरानी...जगे हुओं को जगाने की | चंद नामचीन प्रकाशकों की बदौलत हिन्दी का एक बड़ा पाठकवर्ग परिचित हो रहा है अब राजकमल चौधरी की जगमगाहट से | इस महान कवि को उनकी छियालीसवीं पुण्यतिथि पर मेरी अशेष श्रद्धांजली !!!


गौतम राजरिशी 




प्रेम मेरा वसन है
आत्मा है राग
अनुराग है अस्तित्व मेरा
गाती रहूंगी जीवनपर्यंत

तोडती रहें परिस्थितियाँ
नहीं डिगा पाएंगी पथ से
आयरन खाकर हो गयी हूँ आयरन
चेरी हूँ विरह की

लिखती है मेरी लेखनी व्यथा
जो टपकती है तुम्हारी पलकों से
मेरी आँख में
व्यथा जो करती है नर्तन
धुरी पर प्रेम की

प्रेम जो अनश्वर है
अनादि है
हो गया है ओझल 
हमारी आँख से 
या 
हो गये हैं गांधारी हम ही 
......


गीता पंडित 


बात उन दिनों की है जब मैं करीब १३ साल का होऊँगा । हमारे यहाँ घरों में अक्सर गोरैया (एक पक्षी) अपना घोंसला बना लेती है । मेरे घर में भी गोरैया का एक ऐसा ही घोंसला था । उसमे गोरैया का एक जोड़ा रहा करता था । उन्हें घोंसले में आते जाते देखना अच्छा लगता था । घोंसले में गोरैया का एक नवजात बच्चा भी था  । जब कभी गोरैया अपने बच्चे  के लिए बाहर से कड़ी मेहनत कर अनाज के कुछ दाने लाते थे  तब उनकी चहचहाहट से माहौल खुशनुमा हो जाया करता था । मैं और मेरा छोटा भाई दोनों अक्सर देखा करते थे इस दृश्य को । गोरैया के जोड़े अपने चोंच से दाना उठा उठाकर अपने बच्चे के मुँह में रखा करते थे । बहुत ही सुन्दर और आत्मीय दृश्य होता था वह । कुल मिलाकर एक छोटा मगर हँसता - खेलता परिवार था गोरैया का ।

पर कहते हैं न कि अनहोनी आपके आसपास हमेशा मंडराती रहती है । ऐसा ही कुछ हुआ उस गोरैया परिवार के साथ। बात यह थी कि जिस कमरे में उन्होंने अपना घोंसला बनाया था उसमें एक पंखा टंगा हुआ था । हालांकि हमलोग अक्सर इस बात का ध्यान रखा करते थे कि जब कभी वो कमरे में हों , पंखा बंद रहे । पर शायद होनी को कौन टाल सकता है । उस गोरैया माता-पिता में से एक उस पंखे कि चपेट में आ गया । और वहीं उसने अपने प्राण त्याग दिए, अपने पीछे एक छोटा सा संसार छोड़कर । हमने सुबह उसके निर्जीव शरीर को देखा और काफी दुखित हुए ।
उस घटना के बाद से हमलोग (मैं और मेरा छोटा भाई) तनहा अकेले बचे उस गोरैया और उसके बच्चे की गतिविधियों पर ध्यान रखने लगे । हम भी उनके दुःख में शामिल थे पर ना तो हम उन्हें सांत्वना दे सकते थे और ना ही अपनी संवेदना उनके सामने प्रकट कर सकते थे । हमलोग अक्सर नीचे बिछावन पर बैठकर उनके घोंसले की ओर देखा करते थे , जहाँ से वो गोरैया भी हमें देखा करती थी , आँखों में एक सवाल लिए जिसका जवाब शायद किसी के पास नहीं था ।

कुछ दिन इसी तरह बीतता गया । पर एक दिन ना जाने क्या हुआ , गोरैया कमरे में नहीं आई । गोरैया के उस नवजात बच्चे की तरह , हमलोग भी उसके आने का इन्तजार कर रहे थे । रात बीत गया .... सुबह हो गई ... पर वो नहीं आई । बच्चा भूख से छटपटा रहा  था जो कि उसके करुण आवाज़ में सहज ही प्रकट होता था । उसकी इस छटपटाहट के साथ हमारे मन में भी आशंकाओं की सुनामी उठने लगी थी । हमलोग इस सोच में पड़े थे कि आखिर क्या हुआ जो वह नहीं आई । हमसे उसकी भूख बर्दाश्त नहीं हो रही थी ।

हमलोगों ने शाम तक गोरैया का इन्तजार किया पर वह नहीं आई । अंततः हमदोनों ने गोरैया के बच्चे को खुद से ही दाना खिलाने की सोची । हमने घर में बने चावल के कुछ दाने लिए और उनके घोंसले में रख दिया , एक छोटी सी कटोरी में रखकर । कुछ देर बाद जब हमने मुआयना किया तो देखा कि सारे चावल के दाने ज्यों के त्यों पड़े थे। हम बहुत उदास हुए । हमें ऐसा लगा के शायद वो हमारे हाथ का दिया दाना नहीं खाना चाहते थे । फिर हमें ध्यान आया कि अभी तो वह नवजात है और खुद  दाना नहीं चुग सकता है । तभी तो उसके माता-पिता अपनी चोंच से दाना उसके मुँह में डालते थे । तब हमने अपने हाथों से एक एक दाना लेकर उनके मुँह में डालना शुरू किया । और वह उसे सप्रेम स्वीकार करता गया । आखिर उसे भूख भी तो लगी थी .... । उसके कोमल चोंच जब हमारे हाथों कि उँगलियों को स्पर्श करते थे तो एक सुखद आनंद की अनुभूति होती थी । कुछ ही दिनों में हमारा उसका संबंध बहुत आत्मीय हो गया था । हमें ऐसा लगता था कि हमने भाषायी सीमाओं को तोड़ दिया है और मनुष्य एवं पक्षी के बीच की खाई को भी पाट दिया है । उसकी आँखें हमारे लिए भाषा और अभिव्यक्ति का माध्यम बन गई थीं । उसकी चहचहाहट काफी कुछ बयां कर देती थी | तब समझ में आया की संबंधों में भाषायी विविधता कोई बड़ी समस्या नहीं है , बस आत्मीयता होनी चाहिए , प्रेम होना चाहिए । पर आज मनुष्यों के बीच शायद इसका अभाव है ।

इसी तरह दिन बीतता गया । हम उन्हें रोज दाना खिलाया करते थे , अपने हाथों से ।  हमें एक डर भी था कि कहीं वह गलती से ऊपर बने उस घोंसले से नीचे ना गिर जाए । हालाँकि ऐसी संभावना कम ही थी लेकिन फिर भी हमने खुद से उसके  लिए एक अलग घोंसला बनाया, घास-फूस और पत्तों से पूरी तरह से सुरक्षित । हमने घोंसले को एक चारों तरफ से बंद तथा ऊपर से खुले काठ के एक बक्से में रखकर उसमें उन बच्चों को रख दिया । अब वह सुरक्षित था  और हम निश्चिन्त .... । हम निश्चिन्त थे कि अब वो गिर नहीं सकता था ।  अब तो वो जब भी हमें देखता था बस चहकना शुरू कर देता था । फिर एक दिन कुछ ऐसा हुआ जिसे देखकर हमारी ख़ुशी का ठिकाना नहीं रहा । हुआ यह कि वह घोंसले से बाहर निकलकर कमरे में इधर - उधर फुदक रहा था । वह उड़ने की कोशिश कर रहा था । हमने भी उसके उड़ान भरने के प्रयास में अपने स्तर से सहयोग किया । हालांकि अभी वह छोटी - छोटी उड़ाने ही भरता था पर वह हमारे लिए सुकुनकारक एवं आनंदकारी था , आखिर उसने उड़ने की कोशिश जो शुरू कर दी थी । हम काफी खुश थे .... ।

फिर एक दिन आया जब उसने लम्बी उड़ान भरी और उड़कर हमारे घर के बाहर एक आम की डाली पर जा बैठा । बहुत अच्छा लग रहा था .... । खुशी हुई पर एक दुःख भी था मन में कि आज वह हमें छोड़कर अपनी दुनिया में जा रहा था । तब उसकी आँखों में दूर से ही देखा था  हमने , हमारे लिए आत्मीय प्रेम को .......... और एक वादा ........ फिर से मिलने का ....... । 


शिवनाथ कुमार

थकान उतर जाती है जब जीवन के हर कोण लेखनी में प्राणप्रतिष्ठा पा जाते हैं,इस संजीवनी से हम कैसे दूर रहें !!!

7 टिप्‍पणियां:

  1. सभी रचनाएँ बहुत उत्कृष्ट....आभार

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  2. बहुत अच्छा लगा आपका चुनाव ,विशेषकर "गौरैया"....... सादर !

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  3. इतनी सुन्दर रचनाओं को हमारे लिए चुन कर लाने के लिए धन्यवाद !

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  4. बहुत सुन्दर रचनाएं.....आभार आपका दी.

    सादर
    अनु

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  5. अच्छा लगा ब्लॉग पर रचनाएं पढकर ...
    मेरी कविता को यहाँ स्थान देने के लियें रश्मि जी बहुत आभार ... :)

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  6. प्रेम जो अनश्वर है
    अनादि है
    हो गया है ओझल
    हमारी आँख से
    या
    हो गये हैं गांधारी हम ही

    सुन्दर संकलन
    सादर आभार!

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