शनिवार, 29 मार्च 2014

ज्ञातव्य




वन्दना अवस्थी दुबे, जो कहती हैं अपने बारे में 
कुछ खास नहीं....वक्त के साथ चलने की कोशिश कर रही हूं.........वक़्त के साथ चलने का ही एक अनुभव है कहानी - ज्ञातव्य  .... 

"अरे वाह साहब! ऐसा कैसे हो सकता है भला!! इतनी रात तो आपको यहीं हो गई, और अब आप घर जाके खाना क्यों खायेंगे?"
’देखिये शर्मा जी, खाना तो घर में बना ही होगा। फिर वो बरबाद होगा।’
’लेकिन यहां भी तो खाना तैयार ही है। खाना तो अब आप यहीं खायेंगे।’
पापा पुरोहित जी को आग्रह्पूर्वक रोक रहे थे। हद करते हैं पापा! रात के दस बज रहे हैं, और अब यदि पुरोहित जी खाना खायेंगे तो नये सिरे से तैयारी नहीं करनी होगी? और फिर इतनी ठंड!! पता नहीं पापा क्यों मां से बिना पूछे ही क्यों लोगो को आये दिन खाने पर जबरन रोक लेते हैं! ये पुरोहित जी तो आये दिन! कहा नहीं कि जल्दी से खाने पर बैठ जाते हैं! अगर वे ही सख्ती से मना कर दें तो......
’राजू......ओ राजू........’
’ऐ राजू भैया, सो गये क्या?’
’हां’
’अच्छा!! हां कह रहे हो और सो भी गये हो? पापा बुला रहे हैं, सुनाई नहीं दे रहा?’
’तुम सुन रही हो ना! तो बस तुम्हीं चली जाओ। मैं तो तंग आ गया पापा की इन आदतों से।’
सर्दियों में रज़ाई छोडना बडा कठिन काम होता है, शायद इसीलिये राजू भैया बिस्तर में घुसने के बाद अब उठना नहीं चाह रहे थे।
’ राजू..... अन्नू कोई सुन रहे हो.....?’
’ आई पापा........ ।’ आखिरकार उठना मुझे ही पडा था।
’अन्नू बेटा ज़रा जल्दी से पुरोहित अंकल के लिये खाना तो लगा दो।’
इतना गुस्सा आया था पुरोहित जी पर! मना करने के लिये मुंह में ज़ुबान ही नहीं है जैसे! लेकिन कर क्या सकती थी? बस मन में ही भुनभुनाती अंदर चली आई। मां रसोई में सब समेटने के बाद अब पापा के आदेश पर असमंजस में बैठी थी।इन पुरोहित जी के किस्मत तो देखो... केवल एक कटोरी पालक की सब्जी बची है! और कुछ भी नहीं! घर की बात हो तो अलग, अब किसी गैर को केवल पालक रोटी तो नहीं दी जा सकती न!! दही भी खत्म।
’मम्मा...जो है वही दे दो। कुछ बनाना मत।’
’ नहीं बेटा ऐसा खाना दूंगी तो अपनी ही तो नाक कटेगी। चार जगह कहते फिरेंगे......’
’मतलब बनाओगी?? तुम लोगों की इसी मेहमान नवाज़ी से तो......’
पैर पटकती कमरे में आ गई।
’अन्नू, क्या आदेश हुआ पापा का?’
’होगा क्या? वही खाना खिलाओ।’ हमेशा ही ज्यों-ज्यों रात गहराती जाती है, त्यों-त्यों पापा का खाना खिलाने का विचार भी गहराता जाता है। सोचते नहीं कि बच्चों को दिक्कत होगी। अरे तुम्हें क्या हो गया? आंखे फाड-फाड के क्या देख रहे हो?’
’तुम्हारे वश का तो कुछ है नहीं, सिवाय चिडचिडाने के अच्छा हो कि तुम मम्मी की मदद करो।’
’तुम्हारे पापा भी हद करते हैं....’ मम्मी भी कमरे में आ गईं थीं।
’तो क्या हुआ मम्मा... पापा का होटल तो हमेशा ही खुला रहता है, तुम्हारे जैसा बिना मुंह का कुक जो है उनके पास।’ राजू भैया रज़ाई में घुसे-घुसे भाषण दे रहे थे। उनका क्या! ऐसे रज़ाई में घुस कर तो मैं भी बढिया भाषण दे सकती हूं। मेरी जगह रसोई में मम्मी के साथ काम करवायें तो जानूं! देर होती देख पापा भी अंदर आ गये थे-
’क्यों खाना नहीं है क्या?’
’ये अब पूछ रहे हैं आप? मान लीजिये खाना नहीं है, तब? किसी को ज़बर्दस्ती रोकने की क्या ज़रूरत है?’
’तुम लोग तो बस बहस करने लगते हो। मैं उन्हें ज़बर्दस्ती क्यों रोकूंगा भला? मैंने तो बस एक बार कहा था( वाह पापा!! क्या झूठ बोला है!)।
’चलो... अब मैं कुछ बनाती हूं।’ ’अरे तुम कुछ बनाओ मत, जो है सो दे दो’ कह कर पापा फिर चले गये। मम्मी आटा गूंध रहीं थीं, मालूम है, पूडियां बनेंगीं इतनी रात को गरमागरम पूडियां खाने के बाद कोई क्यों ना रुके? ज़रूरत है तो बस रोकने की। एक बार ठंडा खाना परोस तो दें....लेकिन नहीं अपनी नाक बचाये रखने के लिये सब करना होगा। अभी सब्जी भी बनेगी....ये मम्मी-पापा भी ना! दिल खोल कर खर्च करेंगे, और फिर घर के बेहिसाब खर्चों के लिये रोयेंगे भी। जब देखो तब मेहमान-नवाज़ी.... आज वैसे भी महीने की पच्चीस तारीख है। महीने का अंत तो वैसे भी बहुत तंग होता है किसी भी ऐसे व्यक्ति के लिये, जो शुद्ध वेतन में शाही तरीके से रहना चाहता हो। हमारा घर भी उन्हीं में शुमार है।
ठंडे पानी से हाथ धोते ही सारा शरीर कांपने लगा था, मेरे हर एक कंपन में से पुरोहित जी के लिये चुनिंदा गालियां निकल रहीं थीं। आनन-फानन मम्मी ने शानदार डिनर तैयार कर दिया था। खाना खिलाते-खिलाते साढे ग्यारह हो गये थे।
अपनी पोजीशन बनाये रखने के लिये इस तरह खर्चक रना मुझे और राजू भैया दोनों को ही सख्त नापसंद था। खर्च करते समय तो ये दोनों ही बिना सोचे-समझे खर्च करते हैं फिर बजट गडबडा जाने पर एक दूसरे को दोष देते हैं। खैर...... फिर भी घर की गाडी चलती रहती है। लेकिन इधर मैं और भैया दोनों ही पापा के खर्च करने के तरीके से नाखुश थे, लिहाजा पापा ने भैया को घर चलाने की ज़िम्मेदारी सौंप दी है। राजू भैया ने भी चैलेंज किया है कि वे इतने ही पैसों में बेहतर व्यवस्था करेंगे।
बडी ज़िम्मेदारी थी....अब दिन के खाली समय में हम दोनों महीने के हिसाब का ही जोड बिठाते रहते।
’देख अन्नू, ये पापा की तनख्वाह के अट्ठारह हज़ार रुपये हैं.... और ये हैं दूध, बिजली, राशन सब्जी, फल, धोबी, पेपर, बाई, टेलीफोन के बिल.......’
’हूं.....’ मैं पत्रिका से सिर नहीं हटना चाह रही थी....
’ अब हिसाब की शुरुआत कैसे करें?’
’हूं......’
’क्या हूं-हूं लगा रखी है। मैं यहां सिर खपा रहा हूं और तुम..... चलो इधर।’
किसी प्रकार बजट बना। सारे खर्चे निकालने के बाद केवल दो हज़ार रुपये हमारी बचत में थे, जिनसे कोई भी फुटकर खर्च होना था।यानि हम लोगों का जेबखर्च नदारद!! दूसरे खर्चे ज़्यादा ज़रूरी हैं!!
राजू भैया इस लम्बे-चौडे खर्चे को देख कर बडे दुखी थे।
’यार अन्नू ,मुझे तो कुछ रुपये चाहिये ही। एकदम खाली जेब कैसे रह सकता हूं?’
’तो तुम सौ रुपये ले लो। लेकिन तब सौ ही मैं भी लूंगी। मेरे खर्चे नहीं हैं क्या?’
उसी शाम भैया ने अपना फरमान ज़ारी किया था,खर्चों में कटौती बावत। नया बजट!एसा बजट तो वित्त-मंत्रालय भी पेश नहीं करता होगा! कोई उधारी नहीं...सब कैश पर। हर आदेश पर मम्मी-पापा ने सिर हिला के सहमति जताई। सारी कटौतियां शिरोधार्य कीं।
महीना थोडी सी तंगी के साथ गुज़रा था। अब हमारे यहां आये दिन मिठाई-पार्टियां नहीं होती थीं। आने-जाने वालों को चाय-चिप्स में ही प्रसन्न होना पडता था। इससे हमें एक बडा फायदा ये हुआ कि केवल प्लेट से प्रेम रखने वालों का आना-जाना एकदम कम हो गया। पापा भी अब ज़रूरी होने पर ही लोगों को खाने पर रोकते थे, वो भी हमलोगों को बताकर। लेकिन खर्च हमारे पास आ जाने के कारण हम लोगों की हालत खस्ता हो गई थी। कारण? अब हम किसी भी चीज़ की ज़िद कर ही नहीं सकते थे!! पूरा खर्च हमारे पास था। यदि कहते भी तो पापा बडे आराम से कह देते पैसे तो तुम्हारे पास ही हैं, जो चाहो ले लो। लेकिन बजट था कि कुछ अतिरिक्त खर्च की अनुमति ही नहीं देता था। इसी बीच राजू भैया का एम।ई। के लिये सेलेक्शन हो गया। बहुत खुश थे भैया। दो साल बाद शानदार नौकरी..... पापा-मम्मी ने उनसे नये कपडे बनवा लेने को कहा था। चलो इसी बहाने मेरा भी एक सूट तो बन ही जायेगा...
राजू भैया अपना सामान लगा रहे थे, और मैं सोच रही थी कि कल उन्हें जाना है और अभी तक वे नये कपडे तो लाये ही नहीं। तभी उन्होंने मदद के लिये मुझे बुलाया- दौड के पहुंची, देख कर दंग रह गई कि कहीं भी जाने से पहले हमेशा नये कपडे खरीदने वाले राजू भैया, आज सारे पुराने कपडे खुद से प्रेस करके लगा रहे हैं।
’भैया नये कपडे क्यों नहीं लाये?’
नहीं यार! अभी ज़रूरत ही नहीं थी। ’
क्या कह रहे हो भैया? तुम और ये पुराने कपडे???
’ अन्नू, हम लोग कर्ज़ से लदे रहने के लिये हमेशा मम्मी-पापा को दोष देते थे, अपने आपको, अपनी आदतों को देखते तक नहीं थे। अपनी इस तनख्वाह में पापा घर चलाते या हमारी बडी-बडी फ़रमाइशे पूरी करते! उधार कपडे और अन्य सामान शायद वे इसीलिये लेते थे ताकि हमारी ज़रूरतें पूरी होती रहें। हमलोगों को अपनी चादर की लम्बाई तो अब मालूम हुई है,जब्कि खुद ओढ कर देखी। और पहली बार मैने जाना कि राजू भैया इतने गंभीर भी हो सकते हैं। शायद बडे हो गये हैं।

वंदना अवस्थी दुबे 
http://wwwvandanaadubey.blogspot.in/

मंगलवार, 25 मार्च 2014

आखिरकार



अपर्णा अनेकवर्णा की रचना आखिरकार 
कई मन की दीवारों पर 
बारिश की नमी से उभरे होते हैं 
एक नई भोर की तलाश में 
जिसमें हो हौसलों की गर्मी 
और उम्मीदों से भरी एक राह 
…………… अपनी नज़र से पढ़के देखिये, सच है न ? 

                   रश्मि प्रभा 


आखिरकार,
चाम-गाथा को सामने आना ही पड़ा
बस मुझे एक क़दम ही तो भरना था
खुद से ही बाहर निकल आना था..
ठीक जैसे ८० के दशक के सिनेमा में..
खुद का ही होता था आमना-सामना

* मैंने तुम में एक
रजोनिवृति के समीपाई..
खिचड़ी बालों से ढकी कनपटी वाली
स्थूल.. भिन्नाई... ४०-साला औरत दिखी..
अनमनी सी.. अपने आस-पास से गुज़रती
दुनिया को देखती रहती है..
अपनी सारी ऊर्जा बटोरती है...
कि झेल जाए एक और किशोर हंगामा..
जिसका साथी हमेशा दूर.. काम में मशगूल..
मुझ पर ऊपर से नीचे अपनी उदास दृष्टि फेरती है..

** मुझे दिखती है एक ४०-साला औरत..
अपनी स्थूलता में भी गर्वीली खड़ी
खिचड़ी बालों से ढकी कनपटी.. रजोनिवृत्ति के समीपाई
अपनी दैहिकता को भरपूर जीती हुयी
सहज.. पूरी तरह से झेंप से परे..
हाथ बढ़ाती है जीवन की तीव्र ऊर्जावान धारा की ओर..
और चुन लेती है उसमें से..
जो चाहिए उसे.. बस उतना ही..
बग़ावत पर आमदा किशोर उसका
बन भीरु लौट आता है..
साथी सदा आस-पास ही मिलता है
पूरा साथ निभाता है...

*** हम दोनों..
अलग खड़ी फिर भी जुडी हैं
उदास मुरझायी सी मोटी औरत
अपनी नाकामियों से भारी सांस ले रही है..
और वो दूजी.. आत्मविश्वास से सजी
अपनी ज़रूरतों के प्रति सजग..
हम दोनों आगे बढ़ती हैं..
हो जाती हैं आलिंगनबद्ध
उस विच्छेद के बाद का ये मिलना
अपने आप में सम्पूर्ण है..

खुद को आईने में निहारती हूँ
तो पाती हूँ.. कनपटी अब भी सफ़ेद है
पर बंधे हैं केश एक सुरुचिपूर्ण विन्यास में..
वेशभूषा एक खुशनुमा पोशाक की है...
ये बदलाव बस ऊपरी नहीं है वरन
ये भीतर से ही उभर रहा है
कभी क़दमों में उत्साह बन के
कभी आँखों में ख़ुशी बन के..
अब झुर्रियां भी किसे गिनना है यहाँ भला..
देखिये मैं अब कितनी ही शांत हूँ..
एक साथ मिलकर हमने
एक नयी 'मैं' रच डाली है....    

शनिवार, 22 मार्च 2014

माया मृग



समय बलवान होता है 
बेटा बड़ा हो जाता है 
दुनियादारी का बादशाह 
और पिता 
जो उसके ऊँचे कद की दुआ माँगता है 
उसकी माँ के साथ 
वह माँ को देखता है 
माँ इशारे से चुप होने को कहती है 
बढ़ता जाता है सन्नाटा 
बेटे को फुर्सत कहाँ जो वक़्त दे 
बात करे  !!!
बेटा जब एक सी बंदूक हर बार माँगता था 
पिता  .... खरीद लाते थे 
पिता चश्मे के बगैर जब चश्मा माँगते हैं 
बेटा नहीं  सुनता - वक़्त जो नहीं होता 
                                            … जीवन के एक सच के साथ माया मृग 


बड़ा होता बेटा
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बड़ा हो रहा है बेटा
छोटे होते जा रहे हैं उसके संवाद पिता से......

बेटा जानता है पिता अंतिम व्‍यक्ति नहीं हैं
जिन्‍हें पता है दुनिया के सारे सच....

वह जानता है, 
पिता ने बहुत छोटे दायरों में गंवा दी उम्र
जबकि जिया जा सकता था
बड़े बड़े तरीकों से....

बेटे के तरीके नापसंद करने जितनी छूट नहीं
पिता को
पिता के तरीके पसंद किया जाना जरुरी नहीं
बेटे को....

स्‍वतंत्रता के लिए लड़ा नहीं जो कभी
जानता है स्‍वतंत्रता से जीना अपने में
नहीं जानता वे गुलाम दिन
जिनमें पिता ने काता एक एक सूत
इस दिन को बुनने के लिए.....

देह से लेकर जीवन तक बुनने वाली मां
हर पल खड़ी होती है
बेटे के बराबर जाकर
देखती है उसके कन्‍धे से निकलता निकलता
सिर से ऊपर निकल गया बेटा.....

बेटा जानता है बड़े रास्‍ते, बड़ी गलियां
बड़ी दुकानें और बड़े लोगों को
छोटी छोटी बातें अक्‍सर छूट जाती हैं
कि जैसे घर से निकलते हुए मां को प्‍यार करना.....

बड़ा हो रहा है बेटा
छोटी छोटी शिकायतें क्‍या करना उससे
पिता समझाते हैं मां को
मां समझाती है पिता को.....

रविवार, 16 मार्च 2014

दर्पण साह



एक संदूक - बेनाम हो
या रख दो कोई नाम
उस नाम से परे -
वह यादों को संजोता है !
बंद वह दिखाई देता है
एक कोने में ठिठका सा लगता है
पर उसकी यात्रा वर्त्तमान सी होती है !
एक नहीं अनगिनत एहसास
लेते हैं ज़िन्दगी से भरपूर साँसें
भरते हैं कभी सिसकियाँ
और कभी बेसाख्ता खिलखिलाहटें
जीने के क्रम में
कितने नाम लिखे होते हैं उसके भीतर
स्वतः या  ……… जानते हुए
……
माँ जो ज़िन्दगी उपहार में देती है
उसके कई अक्स संदूक में सहेजकर रखे होते हैं !

                       ……… खोलते हैं एक संदूक बेपरवाह लगते दर्पण साह की, जिनकी परवाह संदूक में पडी है - कई एहसासों के साथ -

संदूक


आज...
फ़िर,
....
....
उस,
कोने में पड़े,
धूल लगे 'संदूक' को,
हाथों से झाड़ा...


धूल...
...आंखों में चुभ गई .

संदूक का,
कोई 'नाम' नहीं होता.

पर,
इस संदूक में,
एक खुरचा सा 'नाम' था .
....
....
सफ़ेद पेंट से लिखा .

तुम्हारा था?
या मेरा?
पढ़ा नही जाता है अब .

खोल के देखा उसे,
ऊपर से ही,
बेतरतीब पड़ी थी...
'ज़िन्दगी'।

मुझे याद है,
माँ ने,
जन्म दिन में,
'उपहार' में दी थी।

पहली बार देखी थी,
तो लगता था,
कितनी छोटी है !

पर,
आज भी ,
जब पहन के देखता हूँ,
बड़ी ही लगती है,

शायद...
...कभी फिट आ जाए।

नीचे उसके,
तह करके,
सलीके से,
रखा हुआ है...
...'बचपन' ।

उसकी जेबों में देखा,
अब भी,
तितलियों के पंख,
कागज़ के रंग,
कुछ कंचे ,
उलझा हुआ मंझा,
और...
....
....
और न जाने क्या क्या ?

कपड़े,
छोटे होते थे बचपन में,
....
....
....जेब बड़ी.

कितने ज़तन से,
...मेरे पिताजी ने,
मुझे,
ये
'इमानदारी',
सी के दी थी ।
बिल्कुल मेरे नाप की ।
बड़े लंबे समय तक पहनी।
और,
कई बार,
लगाये इसमे पायबंद ,
कभी 'मुफलिसी' के,
और कभी,
'बेचारगी' के .

पर,
इसकी सिलाई,
....
....
उधड गई थी, एक दिन.
...जब,
'भूख' का खूंटा लगा इसमे.

उसको हटाया,
तो नीचे...
पड़ी हुई थी,
'जवानी'.

उसका रंग उड़ गया था,
समय के साथ साथ।
'गुलाबी' हुआ करती थी ये .

अब पता नहीं ,
कौनसा,
नया रंग हो गया है?

बगल में ही,
पड़ी हुई थी,
'आवारगी'.

....उसमें से,
अब भी,
'शराब' की बू आती है।

४-५,
सफ़ेद,
गोल,
'खुशियों' की 'गोलियाँ',
डाली तो थीं,
संदूक में.

पर वो खुशियाँ...
....
....
.... उड़ गई शायद।

याद है...
जब तुम्हारे साथ,
मेले में गया था ?

एक जोड़ी,
'वफाएं' खरीद ली थी।
तुम्हारे ऊपर तो पता नहीं,
पर,
मुझपे...
.....
.....
ये अच्छी नही लगती।

और फ़िर...
इनका 'फैशन' भी,
...नहीं रहा अब .

...और ये,
शायद...
'मुस्कान' है।

तुम,
कहती थी न...
जब मैं इसे पहनता हूँ,
तो अच्छा लगता हूँ।
इसमें भी,
दाग लग गए थे,
दूसरे कपडों के।
हाँ...
....
....
इसको.....
'जमाने'
और
'जिम्मेदारियों'
के बीच रख दिया था ना ।

तब से पेहेनना छोड़ दी।

अरे...
ये रहा 'तुम्हारा प्यार'।
'वेल्लेनटें डे ' में,
दिया था तुमने।

दो ही महीने चला था,
हर धुलाई में,
सिकुड़ जाता था।
भाभी ने बताया भी था,
"इसके लिए,
खारा पानी ख़राब होता है."

पर आखें,
आँखें  ये न जानती थी।

चलो,
बंद कर देता हूँ,
सोच के...
जैसे ही संदूक रखा,
देखा,
'यादें' तो बाहर ही छूट गई,
बिल्कुल साफ़,
नाप भी बिल्कुल सही.

लगता था,
जैसे,
आज के लिए ही खरीदी थी,
उस 'वक्त' के बजाज से
कुछ लम्हों की कौडियाँ देकर .

चलो,
आज...
फ़िर,
....
....
इसे ही,
पहन लेता हूँ .

गुरुवार, 13 मार्च 2014

अनुज अस्तेय


मेरी नज़र से
मेरी नज़र में
वो शख्स अजनबी नहीं रहता
जो कल्पनाओं को शब्दों की पहचान देता है
उम्र से परे
उस क्षितिज की परिक्रमा करता है
जहाँ सम्भावना और हकीकत का मिलन
सत्य सा प्रतीत होता हैं !
सोना कोयला और कोयला सोना हो
इसकी गुंजाइश तो होती ही है !!
………………………… जिस शब्द में वैचारिक शक्ति हो, जादू हो, हतप्रभ करनेवाली क्षमता हो, दिशा बदल देनेवाली चेष्टा हो, वे शब्द मामूली नहीं होते  … ऐसे ही विशेष शब्दों के एक काल्पनिक यायावर को लेकर आज मैं उपस्थित हूँ -

अनुज अस्तेय 


बुद्धं शरणम् गच्छामि :
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बारिश गुज़र चुकी थी , रात भी ,

उठती हुई आवाजें भी अब बैचेन न थी और हवा को भी कोई जल्दी नहीं नज़र आती थी ,
हल्की नर्म धूप में सुस्ताने ,
बाहर निकला वो अलसाया सा मेंढक ,
रात भर खौफ में टर्राते , अपने बाकी साथियों के साथ , वो थक चुका था ,
पूरी रात उसने सुबह के इंतज़ार में काटी थी ॥

बाहर बुद्ध की एक विशाल प्रतिमा थी ,
उसे दिखी तो नहीं उसकी दृष्टि के सामर्थ्य से वो काफी ऊंची थी ,
पर वहां एक अप्रतिम शान्ति थी ,
शायद उस पत्थर में जंगल की बाकी गीली जमीन से ज्यादा गर्माहट थी ,
वहां सो रहे थे कुछ पंछी और कुछ और जानवर , जो आम तौर पर सूरज की इस ऊँचाई पर शांत नहीं बैठते ,
फुदक कर वो सबसे निचले पत्थर पर चढ़ गया और सो गया ॥

नींद में बनते बिगड़ते सपनो में उसे प्रश्न आया की वो मेंढक कैसे बन गया ,
वो तो एक नवयुवक भिक्षु था ,
जो संन्यास लिए किसी जंगल में ज्ञान की प्राप्ति को निकला था ,
उसके अस्थिर मस्तिष्क के किसी संयमशील हिस्से में ठहरी चेतना ने उबासी ली ,
पूर्व की दिशा में उसका सर उठ गया ,
उसके गुरु ने उसे बताया था ,
अपराध और पाप के विषय में उसकी उत्तेजनाओं को शांत करने के लिए ,
पाप वस्तुतः नहीं होता , अंगुलिमाल भी उसे क्रमशः याद आया ,
गुरु के कई उपदेशों में से कुछ कुछ उसे याद आया ,
उसे याद आया , वो किस तलाश में निकला था ,
उसे तलाश थी बुद्ध की ,
भगवान् बुद्ध उसके समकालीन नहीं थे पर उसने बहुत सुना था उनके बारे में ,
तो वो जानना चाहता था बुद्ध को ,
निर्वाण उसकी प्राथमिकी न थी ॥

वो एक पास वाली छोटी पहाड़ी पर रहने लगा था ,
वो जानना चाहता था बुद्ध को , वो क्या थे , कैसे थे , क्या बुद्ध का अभी भी अस्तित्व है ,
और अगर नहीं तो फिर साधारण मनुष्य और उनमें क्या फर्क आ गया ,
इन्ही प्रश्नों की उधेड़बुन में उसके सारे मौसम एक हो गए थे ,
कांटो पर चलने तक के स्पर्श उसे देह की सुध नहीं देते थे ,
स्वाद वो भूल चुका था , मृत्यु और मोक्ष उसके ज्ञान का विषय न थे ,
और
कोई प्रेम कथा अभी उसने जानी न थी ॥ .............................................................................................

उस पहाड़ी के दूसरी ओर एक गाँव था ,
कुछ लोग लकड़ी आदि अन्य आवश्यकताओं के लिए जंगल की तरफ आते रहते थे ,
एक बार एक स्त्री उधर से गुजरी थी ,
नीले वस्त्र , पीले फूलों का श्रृंगार ,
गेहुआं वर्ण , छोटे तीखे नेत्र , भरे हुए गालों और तेज कदमताल ,
उसकी नज़र जब हटी तो दूर गाँव की तरफ की पगडण्डी के आखिरी छोर पर कुछ गति सी थी , जो अब नहीं थी ॥

तीक्ष्ण हुयी जिज्ञासाएं लक्ष्य बदलते ही अपने शब्द रूप बदल लेती हैं ,
कहानी बदलने लगी , आते जाते अब वो उसे कई बार देख चुका था ,
एक बार सहायता प्रदान करने के वाकिये के साथ सिलसिला चल पढ़ा ,
अब मन की जिज्ञासा नयनों से गुजरने लगी ,
बुद्धि , बुद्ध से ध्यान हटा कृष्ण और फिर काम हो गयी ,
कामदेव सजल नेत्रों से मुस्कुराने लगे ,
प्रेम के अक्षर पढ़ाने को अब उनके पास एक शिष्य था , और एक शिष्या भी ,
वो नित नयी पंचरंगी कहानियाँ सुनाने लगे ,
दोनों शिष्यों में समर्पण भाव जागने लगा और भेद ख़त्म होने लगा ,
समय के परे तक अब प्रेम की पहुँच थी ,
मृत्यु, उत्पत्ति और बुद्ध भाव अब उसके मन मानस से गुज़रते न थे ॥

वर्ष गुज़र गया और बुद्धि में चित्रित कर गया ,
कई सुहाने मौसम , अनेकों भाव , अनोखे स्पर्श, रूप, और शब्दमय मात्राओं के चिन्ह ॥

एक दिन कायनात में बिजली गूंजी ,
चमक नहीं थी उसमें कोई घनघोर था ,
गाँव में गीत गाये गए थे , कोई उत्सव का माहौल था ,
किसी राजा या बड़े मंत्री की नज़र लग चुकी थी उसकी अनुभूतियों पर ,
असहाय नारी कर चुकी थी त्याग अपने प्रेम का , आज उसका विवाह , उसके परिवार का सम्बन्ध किसी भव्य वैभव से था ,
और उस आकाशीय बिजली का आघात किसी ह्रदय को सहना पड़ा ॥

बेबस आँखे विरह की अग्नि में सूखते बिखरते आंसुओं में जल जल कर पिछले मौसम के ठहरे हुए दृश्य दिखाती थी ,
और किसी त्राटका की छाया युवक पर पड़ चुकी थी , अब वो सोता नहीं था ,
देखता रहता था एकटक ,
कबूतर कबूतरी के जोड़े , कव्वे , हंस , भँवरे और चिड़ियाएं ,
अल सुबह से देर रात तक सब को मगन देखता था वो ,
उसने काम के सुन्दर और भयावह रूप देखे ,
और कभी कभी चुभते थे उसे स्पर्श ,
वो जानना चाहता था ,
की उसकी प्रेमिका में ऐसा क्या था , जो और किसी में नहीं ,
वो क्या है जो उसे और कुछ भी नहीं भाता , सिर्फ अतीत चाहता है ॥

...................................................................................................

अब प्रकृति के क्रिया कलाप और जीव जंतुओं के आचार व्यवहार देखना ही उसकी दिनचर्या हो गयी ,
उन्हें दौड़ते , खेलते , लड़ते , मरते , मारते , भोग और सम्भोग करते ॥
जिस चट्टान पर वो अक्सर बैठता था ,
उसके पास ही एक गंदले पानी के गढ्ढे में कुछ मेंढक रहते थे ,
जो सांझ होते ही अलग हो हो कर फुदकते लगते ,
पर वो ज्यादा दूर ना जाते थे ,
फिर टर्राने लगते , और जीभ लपका कर उड़ते बैठते कीड़े खाते ,
उनमें कुछ मेंढक अपना गला फुलाकर रंग बिरंगा कर लेते ,
अलग अलग टर्राहटों से अपने साथी को आकर्षित करते ,
साथी के पास आने पर अलग अलग नृत्य मुद्राओं में कूदते फुदकते ,
इस तरह ही पूरी सांझ और रात निकाल देते ॥

उन्हें देखकर उसे अपनी प्रेयसी की याद सताने लगती , उसका गला सूखने लगता तो वो वही गन्दला पानी पी लेता ,
वो बस उसे कम से कम एक बार तो देखना चाहता था जी भर के ,
उसे इन नन्हे मेंढको का भाग्य भी स्वयं से बेहतर लगने लगा ,
अनजाने में पाए दुःख को नियति समझ विधाता को कोसने लगा ,
उसे हर चीज हर बात से शिकायत होने लगी ,
वो समाज को गाली देता , अकेले में बडबडाता , किसी जीव को लकड़ी मरता , किसी पर पत्थर फेंकता ,
पंछियों के अंडे , खरगोश , कबूतर का मांस खाकर जीने लगा , हाल का , सड़ा , कैसा भी ॥

संसार में सुख , दुःख , प्रेम , परिहास का कोई परिमाण (माप तौल) नहीं होता ,
अन्य की तुलना में किसी चीज से वंचित लोग कुंठा का शिकार हो जाते हैं ,
कुंठा से दायरे सिमटने लगते हैं ,
और व्यक्ति किसी कीड़े की तरह एक छोटी सी डंठल को कुरेदने में ही जीवन बिता देता है ॥

वक़्त गुजरा अब उसे किसी बात का ध्यान नहीं रहता था , विक्षिप्त सा , जंतुओं से लड़ता झगड़ता ,
वो विक्षत और बीमार हो चुका था , उसका अंतिम वक़्त वो मेंढक थे , वो या शायद दूसरे ,
जो कभी उसे अच्छे लगते , कभी बुरे और कभी बैचेन करते ,
उनमें वो उदासीन न था , वो उसकी भावनात्मक आसक्ति बन चुके थे ॥

अपनी कुंठा में वो युवक उसी गढ्ढे के पास से उस दृश्य भाग से गुज़र चुका था , ( कुछ गिद्ध जमा थे वहाँ )
आगे वहाँ क्या हुआ क्या पता ,
उसके बाद वो कभी होश कभी बेहोश, घने अंधेरों के बीच रह रहकर सिसकता था और फिर बेहोश हो जाता था ,
जब कभी उसने उठने की कोशिश की तो स्वयं को असंख्य चट्टानों के भार तले महसूस किया ,
पलक उठाना कभी असंभव लगता तो कभी सूरज को आँखे दिखाना ,
अस्तित्व की तलाश में उसका सब कुछ जलता पिघलता जकड़ता सा लगता था ॥

और फिर जब वो उठा था तो उसने खुद को पानी में पाया था ,
हाँ तभी उसकी साँसे चली थी और वो फुदक कर बाहर आया था ॥

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अजीब सी प्यास सताए रहने लगी उसको ,
भूखी जीभ उड़ते कीड़ों की ताक लगाए रहती ,
और लपक कर मूँह में भींच लेती , पूरी निर्ममता से भींच कर मूंह बंद रखना होता था ,
जब तक फड़फड़ाती वो जान दम न तोड़ देती ,
गीलापन , गन्दगी , रौशनी से डर, आँच की असहनीयता और अकेलापन ,
बाकी मेंढको के बीच उसका मन न लगता ॥

पर कमजोर निरीह मन , भूख ,संवेदनाओं , मृत्यु और कुछ छूट जाने के भय के आगे कब टिका है ,
और वो भी एक छोटे से दायरे में सीमित जीव जिसकी दृष्टि खुले आकाश को देख पाने में असमर्थ हो , उसका मन ,
पर कुछ था जो उसे बाकी से अलग रखता था ,
शायद उसका अकेलापन , कोई गहरी जिज्ञासा , और ह्रदय के अंतर पर ठहरा अस्पर्श्य प्रेम ॥

वो बाकी मेंढकों के साथ ही उनके पीछे उनसे अलग उनसे स्वतंत्र समझ लिए ,
अधिकतर कुछ ना खाए समय बिता रहा था ,
और पिछले सूरज ही तो वो इस ओर आया था ,
अपना पुराना गढ्ढा छोड़कर , जहाँ एक चूहे की सड़ी पडी हुयी देह की दुर्गन्ध से दूर वो किसी ताज़ा हवा की तलाश में था ,
और सांझ होते ही बारिश होने लगी थी ,
वो जाग चुका था , भीतर तक ॥

स्मृतियाँ वक़्त के साथ अंतर्मन पर आवरण बनाने लगती है , और उसके नीचे , बहुत नीचे ,
कहीं गहरे दब जाता है ह्रदय और स्वास्थ्य , फिर रौशनी वहाँ से बाहर नहीं झांकती , मुक्त आकाश भी भय और चिंता का सबब बन जाता है ,
तब सब भूल जाना ही एक उपाय होता है , भावनाओं के सामान्य प्रवाह में मिल जाने तक , चेतना जब तक स्वच्छ न हो ,
और तब पुरानी स्मृतियों से ही बल भी मिलता है , संबल भी , और सबसे जरूरी ज्ञान भी ॥

उसे उसके उद्देश्य ज्ञात हो चुके थे , और वो अब वहीँ रहने लगा , उसी पत्थर पर ,
उसे एक सुकून था वहां और वो रमने लगा ,
एक छोटी सी प्रकृति , एक दुर्बल सा स्वभाव , नन्हा सा मन , अनंत के एक नगण्य हिस्से में रमने लगा था ,
अब उसकी भूख प्यास जाती रही , अकेले , अन्य समकक्षों के साथ न रहने के कारण प्राकृतिक प्रवृत्ति भी जाती रही ,
चेतना पुष्ठ , और स्वच्छ होने लगी , उस पर छाया देह का अँधेरा कम होने लगा ,
अब उड़ कर आये एक सूखे पत्ते की ओट भी उसे पसंद न थी ,
अब वो सर उठा कर देखने लगा था , उस पत्थर को ,
वहाँ उसे अब कोई छत कोई दीवार कोई दायरा नहीं दिखता था , सिवाय उस सुकून भरे आसरे , उस पत्थर के ॥
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दिन गुज़रते गए , और उसकी स्मृति और विस्मृति प्रखर होने लगी ,
याददाश्त समझ और भूल जाने की क्षमता परस्पर एक ही सर्प के तीन मुख हैं जो गर्दन पर उसकी चेतना से जुडी हैं॥

मेंढक निरीह सा जीव था , उसकी स्मृति इतनी स्थिर न थी , पर अब उनकी आवाजाही बढ़ गयी थी ,
कभी कभी उसे अपना विगत याद आता , कभी अपने प्रश्न , कभी प्रेम और कभी पानी ,
कभी कभी अपने प्रश्नों की स्मृति आने पर वो निश्चिंतता से चिंतता था बुद्ध को , वो थे या हैं ,
एक साधारण सदेह मनुष्य का बुद्धा जाना, वो क्या है जो उसे मनुष्य से अलग कीर्ति दे गया ॥

फिर एक दिन मेंढक को जिज्ञासा हुयी , उस पत्थर के ऊपर तक जाने की ,
वो फुदकता हुआ उसकी सभी दिशाओं में यात्रा कर आया ,
और हिस्से जुड़ते गए उसके चेतन में स्थित स्मृतियों के ,
" हाँ ये तो बुद्ध है , और ये बदलाव बुद्ध की शरण है ,
वो ना जाने कब से उसी आधार पर जीवित था ,
ना जाने कितना कुछ गुज़र गया पर कुछ नहीं बदला ,
अचानक वो खामोश हो गया , ये ही तो बुद्ध है ,
उसने नज़र घुमा के चारों और का दृश्य देखा , सब और एक सुकून बिखरा हुआ था ,
आसमान में बादल न थे , पर सब तरफ बरस रही थी ख़ामोशी ,जो जमीन पर बिखर रही थी शीतल होकर ,
पृथ्वी ने स्वच्छ चेतना की चादर ओढ़ ली थी और उसकी मिट्टी से उठ रही थी सुगंध , वातावरण को महकाती हुयी ॥

मेंढक शांत हो गया , पूर्ण स्तब्ध , जैसे दृश्य प्रकाश थम गया हो ,
वो सब जानता था बस इस ही एक बात के अलावा , वो सब जानता था ,
प्रारब्ध से अब दृश्य नहीं सिर्फ कुछ ध्वनि आ रही थी , जो उसके मन से गुज़र रही थी ,
शुरुआत का छोर कुछ भी हो वो यहीं पूर्ण कहलाता है , सबका अंतिम लम्हा यही है ,
कहानी कहीं तक जाए शुरुआत यहीं से होती है , सबका जन्म समय भी यही है ॥

पूर्णता , हर लम्हे पूर्ण होती है और वो अपनी पूर्णता से थकती नहीं ,
पूर्णता भरी होती है अनंत उपलब्धियों से पर इससे उसकी पात्रता कम नहीं होती ,
जीवन सब और दुःख है और यहीं विरक्ति है ,
जिजीविषा ही जिज्ञासा है , बुभुक्षा भी और मृत्यु कहीं नहीं है ,
जानना भर जान लेना है और यहाँ कभी कुछ नहीं बदलता ॥

उसका यहाँ तक का सारा जीवन विगता गया , स्थिरा गया , यहाँ तक का , ( कभी न बदलने वाला अतीत हो गया )
सारी अनुभूतियाँ अनुभूत हो गयी ,उसकी तृष्णा गुज़र गयी ,
मन मस्तिष्क से विरक्त हो चेतना तक पहुँच गया ,
सब कुछ जाना हुआ बुद्धि से बोध हो गया ॥

एक पल को वहाँ सिर्फ आनंद था ,
संसार न था ,
और फिर
सिर्फ एक स्थिर संसार , शेष ,
और बोध जो उसमें निर्बाध गति देखता रहा , बोध जो अविशेष था ,
(बोध जो न एक कहा जा सकता है न शून्य न ही अनंत , उसमें परिमाण का गुण नहीं , न ही कोई विशेषता ,
और इसीलिए वो हर परिमाण का आधार बनता है , समय का भी , गति का भी , कर्म का भी , न्याय का भी ) ॥

युवक को सदा से जीवन से लगाव था , फिर प्रेम से हुआ , फिर पानी से , और अब शांति से ,
जंगल में चर्चा थी , किसी बुद्धिमान मेंढक की फैलाई हुयी कि अमुक मेंढक बुद्धा गया ॥

उस समय एक मेंढक पौधे की छाँव में फुदक रहा था ,
एक तितली पंख फैला रही थी ,
और एक भंवरा फूल पर मंडरा रहा था ॥

" सब कुछ पुनः सोये हुए बुद्ध की शरण में "

....................... (बुद्धं शरणम् गच्छामि ) ...........................