सोमवार, 19 मई 2014

मेरी नज़र से 2


कुछ चेहरे - जिनके लिए 'पुराना' शब्द मौन है और 'नया' मुखर :)  … कुछ बातें, कुछ चेहरे, कुछ गीत,कुछ दृश्य कभी पुराने नहीं होते  … 



नूतन (24 जून 1936 - फ़रवरी 1991) सामर्थ हिन्दी सिनेमा की सबसे प्रसिद्ध अदाकाराओं में से एक रही हैं। नूतन का जन्म २४ जून १९३६ को एक पढे लिखे और सभ्रांत परिवार में हुआ था। इनकी माता का नाम श्रीमती शोभना सामर्थ और पिता का नाम श्री कुमारसेन सामर्थ था। नूतन ने अपने फ़िल्मी जीवन की शुरुआत १९५० में की थी जब वह स्कूल में ही पढ़ती थीं।
        नूतन के सौन्दर्य को मिस इंडिया पुरस्कार से सम्मानित किया गया। वह इस पुरस्कार को पाने वाली पहली महिला थीं। 
उनके सन्दर्भ में उनके बेटे मोहनीश बहल का कहना है कि  मैं उनकी फिल्में ज़्यादा नहीं देखता. क्योंकि जितना मैं देखूंगा उतना ही उन्हें मिस करूंगा. और उन्होंने काफी गंभीर फिल्में भी की हैं.

वैजयंती माला का जन्म 13 अगस्त1936 को मद्रासतमिलनाडु के एक ब्राह्मण परिवार में हुआ। ये दक्षिण से आकर बंबई फ़िल्म इंडस्ट्री में भाग्य चमकाने वाली पहली अभिनेत्रियों में ये एक हैं। उनकी माँ वसुंधरा देवी भी तमिल फ़िल्मों की एक प्रमुख नायिका रही हैं। वैजयंती माला का बचपन धार्मिक वातावरण में बीता। उनके पिता का नाम ए. डी. रमन था।
1956 में फ़िल्म 'देवदास' के लिए पहली बार वैजयंती माला को सर्वश्रेष्ठ सहअभिनेत्री का फ़िल्मफेयर पुरस्कार।
1958 में फ़िल्म 'मधुमती' के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का फ़िल्मफेयर अवार्ड।
1961 में फ़िल्म 'गंगा-जमुना' के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का फ़िल्मफेयर अवार्ड।
1964 में फ़िल्म 'संगम' के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का फ़िल्मफेयर अवार्ड।
1996 में फ़िल्मफेयर लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्ड।

गीता बाली हिन्दी फिल्मों की एक प्रसिद्ध अभिनेत्री हैं । गीता बाली का जन्म विभाजन के पूर्व के पंजाब में हरकिर्तन कौर के रूप में हुआ था । वह सिख थीं और उनके फ़िल्मों में आने से पहले उनका परिवार काफी गरीबी में रहता था। १९५० के दशक में वह काफी विख्यात अदाकारा थीं।
1955 में उन्होंने अपने से २ वर्ष छोटे शम्मी कपूर से विवाह किया था 

21 जनवरी 1965 को उनकी चेचक की बीमारी से मौत हो गई।

का जन्म 23 अगस्त 1941 को मसूरी में हुआ। सायरा की नानी शमशाद बेगम दिल्ली की मशहूर गायिका थी। सायरा की शिक्षा-दीक्षा लंदन में हुई है। छुट्टियाँ मनाने सायरा जब भारत आती, तो दिलीप कुमार की फिल्मों की शूटिंग देखने घंटों स्टुडियो में बैठी रहती थी। सायरा बानो ने एक साक्षात्कार में यह माना है कि जब वह बारह साल की थी, तब से अल्लाह से इबादत में माँगती थी कि उसे अम्मी जैसी हीरोइन बनाना और श्रीमती दिलीप कुमार बनकर उसे बेहद खुशी होगी। 





मधुबाला का जन्म १४ फरवरी १९३३ को दिल्ली में एक पश्तून मुस्लिम परिवार मे हुआ था। 
   मुगल-ए-आज़म में उनका अभिनय विशेष उल्लेखनीय है। इस फ़िल्म मे सिर्फ़ उनका अभिनय ही नही बल्की 'कला के प्रति समर्पण' भी देखने को मिलता है। इसमें 'अनारकली'  की भूमिका उनके जीवन की सबसे महत्वपूर्ण भूमिका है। उनका लगातार गिरता हुआ स्वास्थय उन्हे अभिनय करने से रोक रहा था लेकिन वो नहीं रूकीं। उन्होने इस फ़िल्म को पूरा करने का दृढ निश्चय कर लिया था। फ़िल्म के निर्देशक के. आशिफ़ फ़िल्म मे वास्तविकता लाना चाहते थे। वे मधुबाला की बीमारी से भी अन्जान थे। उन्होने शूटिंग के लिये असली जंज़ीरों का प्रयोग किया। मधुबाला से स्वास्थय खराब होने के बावजूद भारी जंज़ीरो के साथ अभिनय किया।


क्रमशः 

शनिवार, 17 मई 2014

मेरी नज़र से

प्राकृतिक सौंदर्य और ओस सा चेहरा - जिनको देखकर आँखों को हल्की स्मित दी जा सक्ती है। ऐसे कुछ चेहरों में फ़िल्मी दुनिया के ये चेहरे गुलमर्ग की घाटियों में खिले, खिलनमर्ग की खुशबूओं से भरे लगते हैं - 


लीला नायडू (१९४०-२८ जुलाई२००९हिन्दी चलचित्र की पुरानी अभिनेत्री रही हैं। ये १९५४ में मिस इंडिया भी रही हैं। इन्हें मधुबाला एवं सुचित्रा सेन के अपवाद को छोड़कर अपने समय में किसी भी हिन्दी फिल्म अभिनेत्री से अधिक सुंदर कहा गया है।



वहीदा रहमान (जन्म- 14 मई1936) एक प्रसिद्ध भारतीय फ़िल्म अभिनेत्री हैं। वहीदा रहमान भारतीय फ़िल्म इतिहास की सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्रियों में से एक हैं। गाइड, प्यासा, चौदहवीं का चाँद, काग़ज़ के फूल, साहिब बीबी और ग़ुलाम, तीसरी कसम आदि वहीदा रहमान की उल्लेखनीय फ़िल्में हैं। 
कौन भूलेगा - जाने क्या तूने कही  … बात कुछ बन ही गई 




साधना (जन्म: २ सितम्बर१९४१ को कराचीसिन्धभारत) एक प्रसिद्ध भारतीय सिने तारिका हैं।
साधना अपने माता पिता की एकमात्र संतान थीं, और १९४७ मे देश के बंटवारे के बाद उनका परिवार कराची छोड़कर मुंबई आ गया। साधना का नाम उनके पिता मे अपनी पसंदीदा अभिनेत्री साधना बोस के नाम पर रखा था। उनकी माँ ने उन्हें आठ वर्ष की उम्र तक घर पर ही पढा़या था।

8 जनवरी 1939 को मुंबई के एक मराठी भाषी परिवार में जन्‍मीं नंदा के पिता मास्‍टर विनायक भी अभिनेता थे. अपने पिता की मौत के बाद नंदा को महज आठ साल की छोटी उम्र में रोजी-रोटी के लिए फिल्‍मों में काम करना पड़ा. उन्‍होंने 1957 से 1995 के दौरान फिल्‍मों में सक्रिय योगदान दिया. 







मीना कुमारी का जन्म 1 अगस्त 1932 को मुंबई में एक मध्यम वर्गीय मुस्लिम परिवार में हुआ था। उनके पिता अली बख़्श एक पारसी थिएटर में काम किया करते थे। उनकी माँ इकबाल बेगम एक नर्तकी थीं। परिवार की आर्थिक स्थिति ख़राब रहने के कारण मीना कुमारी को बचपन में ही स्कूल छोड़ देना पड़ा। वर्ष 1939 में बतौर बाल कलाकार मीना कुमारी को विजय भट्ट की फ़िल्म 'लेदरफेस' में काम करने का मौक़ा मिला।
पिया ऐसो जिया में समाय गयो रे  … में उनका नशीला अल्हड़पन आज भी दर्शकों को याद है  … 

सुचित्रा सेन (जन्म: ६ अप्रैल, १९३१ - १७ जनवरी २०१४) हिन्दी एवं बांग्ला फिल्मों की अभिनेत्री की निजी धरोहर उनका सौन्दर्य रहा है। 







क्रमशः 

गुरुवार, 8 मई 2014

अच्छा लेखन






लेखन हो या वक्तव्य
वो झोपडी से उठते उस धुएँ में होता है
जिसे पाँच दिन के भूखे पेट से
बच्चे टकटकी लगाए देखते हैं
गले के नीचे थूक गुटकने के साथ
जिसमें एक अनोखा स्वाद उतरता है
शब्द उस घुटने से बहते हैं
जिसकी जलन एक चॉकलेट में बच्चे भूल जाते हैं
शब्द वहाँ तैरते हैं
जहाँ सीख में रामायण,महाभारत उदाहरण में होता है
लिखना इतना आसान नहीं होता
जब होता है कभी आसान
तो लेखक को लिख पाना पाठक के लिये नहीं होता आसान  …

वीरू सोनकर https://www.facebook.com/veeru.sonker मेरी नज़र से


सुनो
जब कभी तुम
किसी से ये सुनना कि
सबसे अच्छा लेखन
लेखक
अपने सबसे बुरे वक़्त में करता हैं
तब
तुम ये याद रखना कि
सबसे अच्छा लेखन
कभी भी
हमारे सामने नहीं आ पाता,
हमारे
अस्पतालों में
वृद्ध आश्रमो में
बड़ी बड़ी हवेलियों के पिछवाड़े
के बदबू दार कमरों में
जहाँ कोई जाना नहीं चाहता
बस दिन भर में
दो बार
खाने की प्लेट सरकाई जाती हैं
वो
बीमार और लाचार
घरो से त्यागे हुए
एक उम्र जिए हुए
चरम और निम्नतम को
देखे हुए
महसूस किये हुए
नितांत अकेलेपन में
अपना
सबसे अच्छा और दर्द भरा
काव्य सोचते हैं......../
वो काव्य
कभी लिखे नहीं जाते
क्युकी
कभी
उन सोचो को
कलम नहीं मिलती
कभी लिखने वाले हाथ काम नहीं करते
वो काव्य कभी सुने नहीं गए
वो दर्द कभी सराहे नहीं गए
न ही उनकी लेखन शैली पर
कभी गोष्ठियां हुई
वो तो बस
अभिशप्त थे
मन ही मन बुदबुदाने को
वो कविताये हमेशा
अनसुनी ही रही.....
दुनिया का
कोई भी लेखक
उनसे अधिक एकाग्र नहीं हो सकता
कभी नहीं हो सकता
जान लो
दुनिया का सर्वश्रेठ काव्य
हमेशा मौन रहता हैं
वो कभी सुना नहीं जाता
वो अभिशप्त हैं
अकेले सिसकते हुए मरने को...........

सोमवार, 5 मई 2014

अपने देश के नौजवान क्रुद्ध हैं



सच है, यौवन चलता सदा गर्व से 
सिर ताने , शर खींचे  … 
और सच ये भी है कि 
यौवन के उच्छल प्रवाह को
देख मौन , मन मारे
सहमी हुई बुद्धि रहती है
निश्छल खड़ी  किनारे | (रामधारी सिंह दिनकर)   


पर, वर्षों से अपने देश के नौजवान क्रुद्ध हैं 
अपने देश की जो है परम्परा - उससे वे रुष्ट और क्षुब्ध हैं  …… एक गहरी दृष्टि ज्योति खरे जी  की मेरी नज़र से 


सृजनात्मकता के अभाव में 
मौत के पहले मर जाएगा युवा----jyoti-khare.blogspot.in

युवा वर्ग आज के संदर्भ में सबसे ज्यादा चर्चित वर्ग है. यह वर्ग बुजुर्ग और किशोरों के 
बीच का वर्ग है. अगर पढ़ रहा है तो कालेज का छात्र, अगर नहीं पढ़ रहा है तो बेरोजगार
युवा वर्ग की आयु का भी आंकलन लगाना मुश्किल है.युवा वर्ग की परिभाषा बताना भी
मुश्किल है,युवा वर्ग वही है जो सम्पूर्ण आदमी नहीं है.आज का युवा वर्ग अपने आप में
प्रश्न है,इस प्रश्न को सुलझाने का प्रयास करना भी असंभव है.

देश की गिरती शाख,राजनीति की निम्नतम स्थिति,सेल्यूलाईड का क्रेज,फैशन का बढ़ता
चलन,युवा वर्ग को सृजनशील बनाने की अपेक्षा उसकी मनःस्थिति को अधकचरा संस्कृति 
और आधुनिकवाद की तरफ ले जाने में सक्रिय है.युवा वर्ग पिस्टल,चाकू,तलवार,तेज़ाब 
से डरता नहीं है बल्कि चौबीसों पहर इनसे खेलता रहता है.यह फिल्मों से निकली संस्कृति 
को "फालो" करता है,फैशन के रंग में रंगना चाहता है और "बाईक" में बैठकर अपनी छोटी 
सी जिंदगी नापना चाहता है.
आज का युवा विश्वविद्यालय कैम्पस में नारे लगता है,हड़तालें करता है,युवा नेता बनना 
चाहता है,संजय दत्त स्टाईल बाल रखता है,फ़िल्मी कलाकार इसके आदर्श हैं,लड़कियों 
को छेड़ना शौक में शुमार है,बलात्कार करना "पैशन" है इसका,यह समाज के लिए समस्या 
बन गया है,अपने नैतिक स्तर से गिर ही नहीं रहा,सामाजिक स्तर से भी गिर गया है.
यह शिक्षा पद्धति के दोषपूर्ण होने का परिणाम है.यह शिक्षा पद्धति ना तो पूरी तरह भारतीय 
और ना पूरी तरह पाश्चात्य. 
ठीक इसके विपरीत भारतीय सभ्यता और संस्कृति अपना बुनियादी मापदंड खोती जा रही 
है. समाज एकलवादी परंपरा में विश्वाश रखने लगा है,लोग अपनों को ही खुशबूदार "स्प्रे"
छिड़कते हैं.संस्कृति पलायनवादी पगडंडी पर चल पड़ी है.विश्वविद्यालय उच्चादर्शों और 
अत्याधुनिक प्रयोगात्मक विधियों से समाहित शिक्षा का प्रसार चला रहा है.फिर भी तीस 
प्रतिशत ही विद्यार्थी सही मायने में शिक्षा ग्रहण कर पाता है.बचे हुए सत्तर प्रतिशत का 
युवाओं का क्या होता है "यही वह बात है जहां आकर पूरी सामाजिक राजनैतिक और 
नैतिक अव्यवस्था मौन हो जाती है" यह अव्यवस्था ही वह मीठा जहर है जो युवाओं को
मार रही है.
प्रकृति प्रतिकूलता,जमाने का दोष,कलयुग का दौर,भाग्य का चक्र आदि कारण बता कर   
को समझाया ही जा सकता है. पर यह समाधान नहीं है युवा समस्या का, राजनीति,धनशक्ति युवाओं के मानस पटल पर भीतर तक घर कर गयी है जो भटकाव का कारण है.राजनीती के ग्लेमर में रह के युवा अपने आप को "कलफ"किए हुए कुर्ते के समान दिखना पसंद करता है,पूंजीवादी मानसिकता को ओढ़ना चाहता है,पर जब "रहीस' और "नेता" बनने कि कोशिश चरमरा जाती है,तो वह अपराधिक प्रव्रत्ति का होने लगता है.अपने मानसिक विकास को सृजनात्मक द्रष्टिकोण से नहीं देखता बल्कि वह अपने स्तर से गिरा पाता है,जनमानस
भी इससे अछूता नहीं है,जनमानस भी इसका दोषी है.
जिस स्थिति के लिए समाज युवा वर्ग को दोषी ठहरता है, वही समाज अच्छी से अच्छी
प्रतिभायें भी उत्पन्न करता है.आज का समाज आधुनिकवाद का शिकार हो गया है.
ऐसे में वह एक साफसुथरी विचारधारा को क्या जन्म देगा,जिस समाज ने या इससे जुड़े 
थोड़े से ही लोगों ने किसी वैचारिक विचारधारा का अध्ययन,मनन किया है तो निःसंदेह 
ऐसे समाज से प्रतिभा संपन्न युवा सामने आऐ हैं,जिंन्होंने समाज,देश और शहर का 
नाम रौशन किया है.साफ सुथरे व्यक्तित्व का जन्म पैदाइशी नहीं होता,इसे बनाया 
जाता है,इसके बनने,संवरने की प्रक्रिया बड़ी जटिल है और जटिल है हमारा सृजनात्मक 
सोच से जुड़ना.
युवा अपने आप में पूर्ण समर्थ है.इनमे अनंत सम्भवनायें हैं,इनका प्रतिभा संपन्न होना 
स्वयं और समाज पर निर्भर है.परिस्थितियों को दोषी ठहराना तर्कसंगत नहीं है,वास्तविक 
कारण ढूढ़ना तथ्य कि जड़ तक पहुंचना ही निष्कर्ष है.समकालीन दौर कि सबसे चर्चित 
समस्या है युवाओं कि कि स्थितियों को बदलना,इसकी आवश्यकता अब ज्यादा महसूस
होने लगी है.अब युवाओं के भटकाव के मूल कारणों की तह तक पहुंचना पड़ेगा,अन्यथा 
सूखते मुरझाये पेड़ को हार बनाने के लिए पत्ते सींचने और जड़ की उपेक्षा करने जैसी 
गलती होती रहेगी.
साहित्य एक ऐसी परंपरा है जो अपने आप में एक विशेष स्थान रखती है,युवाओं का
साहित्य से जुड़ना नितांत आवश्यक है.इससे स्वस्थ मानसिकता का जन्म होता है.
नये नये पहलुओं का अध्ययन होता है,बेवाक अपनी बात उजागर करने की क्षमता पैदा 
होती है. युवाओं को इस पारदर्शी विचारधारा से जोड़ने का काम  पुरानी पीढ़ी ही कर सकती
है. सामाजिक संस्थायें,संगीत विद्यालय, नाट्यसंघ,लेखक संघ इस दिशा में भी 
बहुत अच्छे प्रयास कर सकते हैं.
नयी पीढ़ी को अब नये सिरे से,नये सृजनशील वातावरण में लाना ही पुराणी पीढ़ी का 
दायित्व होना चाहिए, नहीं तो युवा वर्ग अपनी मौत से पेहलेय मर जायेगा.