शनिवार, 29 सितंबर 2012

स्त्री का अस्तित्व और सवाल




 कनुप्रिया 


एक सवाल अपने अस्तित्व पर,
मेरे होने से या न होने के दव्न्द पर,
कितनी बार मन होता है,
उस सतह को छु कर आने का,
जहाँ जन्म हुआ, परिभाषित हुई,मै,
अपने ही बनाये दायरों में कैद!
खुद ही हूँ मै सीता और बना ली है,
लक्ष्मण रेखा, क्यूंकि जाना नहीं
है मुझे बनवास, क्यूंकि मै
नहीं देना चाहती अग्निपरीक्षा…..
इन अंतर्द्वंद में, विचलित मै,
चीत्कार नहीं कर सकती, मेरी आवाज़
मेरी प्रतिनिधि नहीं है,
मै नहीं बता सकती ह्रदय की पीड़ा ,
क्यूंकि मै स्त्री हूँ,
कई वेदना, कई विरह ,कई सवाल,अनसुलझे?
अनकहे जवाब, सबकी प्रिय, क्या मेरा अपना अस्तित्व,
देखा है मैंने, कई मोड़ कई चौराहे,
कितने दिन कितनी रातें, और एक सवाल,
सपने देखती आँखें, रहना चाहती हूँ,
उसी दुनिया में , क्यूंकि आँख खुली और
काला अँधेरा , और फिर मैं, निःशब्द,
ध्वस्त हो जाता है पूरा चरित्र, मेरा…….
कैसे कह दूँ मैं संपूर्ण हूँ,
मुझमे बहुत कमियां है, कई पैबंद है……….
मै संपूर्ण नहीं होना चाहती,
डरती हूँ , सम्पूर्णता के बाद के शुन्य से
मै चल दूंगी उस सतह की ओर………
ढूंढ़ लाऊँगी अपने अस्तित्व का सबूत…
अपने लिए, मुझे चलना ही होगा,
मैं पार नहीं कर पाउंगी लक्ष्मण रेखा,
मैं नहीं दे पाऊँगी अग्निपरीक्षा,
मैं सीता नहीं,
मैं स्त्री हूँ,
एक स्त्री मात्र!

गुरुवार, 27 सितंबर 2012

माँ




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ओंकार
 -  http://onkarkedia.blogspot.in/ 


माँ
जब तुम नहीं रहोगी
तो कौन बंद कराएगा टी.वी.
ताकि बहराते कानों को सुन सके 
ट्रेन की सीटी की आवाज़.


कौन झांक-झांक कर देखेगा
खिड़की के परदे की ओट से 
कि स्टेशन से आकर कोई रिक्शा
घर के बाहर रुका तो नहीं.


कौन कहेगा कि आज खाने में 
भरवां भिन्डी ज़रूर बनाना,
कौन कहेगा कि चाय में 
चीनी बहुत कम डालना.


कौन बतियाएगा घंटों तक,
पूछेगा छोटी से छोटी खबर,
साझा करेगा हर गुज़रा पल
सुख का या दुःख का.


जब मैं हँसूंगा तो कौन कहेगा,
अब बस भी करो,
मेरी आँखें कमज़ोर ही सही,
पर क्या मैं नहीं जानती 
कि तुम दरअसल हँस नहीं रहे 
हँसने का नाटक कर रहे हो. 

सोमवार, 24 सितंबर 2012

यादों की संदूकची





 उपासना सियाग 

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यादों की संदूकची

आज फुर्सत में जब यादों की 
संदूकची खोली तो कितने ही 
सुहाने पलों ने घेर लिया ........
दो छोटे -छोटे ,नन्हे -नन्हे हाथ 
पीछे से आकर गले में आकर 
झूल गए ,............
कुछ खिलौने ,कुछ कागज़ की
कटी हुई, कारों की डायरी ,कुछ
पुराने कन्चे,टूटा हुआ बैट और
टांग टूटा हुआ गुड्डा भी नज़र
आया ......................और
ये चमकीले से हीरे जैसे क्या है भला!
हाथ में लेकर देखा तो हंसी आगई ,
अरे, ये तो उन गिलासों के टुकड़े है
जिनको जोर से पटक कर दिवाली
के पटाखे बना दिए थे ,

और ख़ुशी की किलकारी भी गूंजी के
 पटाखा बजा .........
पटाखे बजने की ख़ुशी आँखों के साथ -साथ
चेहरे पर भी नज़र आयी थी .......
और ये मेडल  जो दौड़ में मिला था ,
गले में किसी कीमती हार से कम नज़र
नहीं आया मुझे ...... 
और साईकल पर या छोटी सी कुर्सी पर
बिठाने की जिद करती नज़र आई, 
वो शरारती  आँखे ...........
और ये क्या है संदूकची में...!
 जो एक तरफ पड़ी है ...
गुलाबी ,चलकीली किनारी वाली
छोटी सी एक गठरी ...........
हाथों में लिया तो याद आया 
अरे ;ये तो हसरतों की गठरी है ,
जरा सा खोल कर देखा तो 
एक नन्ही सी फ्राक ,छोटी सी नन्हे -नन्हे 
घुंघरुओं वाली पायल नज़र आयी,
उनको धीमे से छू कर फिर से
संदूकची में रख दिया ..........
और धीमे से प्यार से यादों की संदुकची
को बंद कर दिया ..........!


शनिवार, 22 सितंबर 2012

कैसी होती है माँ ...??



सतीश सक्सेना
[papa21.jpg]



कैसी होती है माँ ...??




कई बार रातों में उठकर
दूध गरम कर लाती होगी 
मुझे खिलाने की चिंता में 
खुद भूखी रह जाती होगी
मेरी  तकलीफों  में अम्मा,  सारी रात जागती होगी   !
बरसों मन्नत मांग गरीबों को, भोजन करवाती होंगी !

सुबह सबेरे बड़े जतन से 
वे मुझको नहलाती होंगी
नज़र न लग जाए, बेटे को 
काला तिलक, लगाती होंगी 
चूड़ी ,कंगन और सहेली, उनको कहाँ लुभाती होंगी  ?
बड़ी बड़ी आँखों की पलके,मुझको ही सहलाती होंगी !

सबसे  सुंदर चेहरे वाली,
घर में रौनक लाती होगी  
अन्नपूर्णा अपने घर की ! 
सबको  भोग लगाती होंगी 
दूध मलीदा खिला के मुझको,स्वयं  तृप्त हो जाती होंगी !
गोरे चेहरे वाली अम्मा  !  रोज  न्योछावर होती होंगी !

मंगलवार, 18 सितंबर 2012

HONOUR KILLING


आँखों की श्रम गई
बड़ों का लिहाज गया
'तेरा क्या जाता है' जैसे भाव हैं हर जगह
अब तो बस खुद पे तरस आता है ...

रश्मि प्रभा


HONOUR KILLING
मुकेश कुमार सिन्हा

पहली बरसात की हलकी फुहार
मंद मंद बहती पवन की बयार
अंतर्मन में हो रहा था खुशियों का संचार
अलसाई दोपहर के बाद
उठ कर बैठा ही था
बच्चो ने कर दी फरमाइश
पापा! चलो न "गार्डेन"!!
मैंने भी "हाँ" कह कर
किया खुशियों का इजहार
और पहुच गए "लोधी गार्डेन!!!!

मौसम की सतरंगी मस्ती
खेल रहे थे, क्योंकि थी चुस्ती
हमने भी बनाई दो टीम
लिया प्लास्टिक का बैट
उछलती हुई टेनिस बॉल
पर लगाया एक शौट
जो उड़ता हुआ जा पहुंचा
पेड़ के पीछे, झाड़ी के बीच!!

नौ वर्षीय बेटा दौड़ा
पर उलटे पैरों लौटा
बडबडाया
वहां है कोई, मैंने नहीं लाता....
आखिर गया मैं
पर मैं भी लौटा बिना बॉल के
होकर स्याह!
खेल हो गया बंद
सारे समझ न पाए
हुआ क्या???

धीरे से, श्रीमती को समझाया
अरे यार! कैसे लाऊं बॉल
स्तिथि बड़ी है विषम
पता नहीं क्यूं ये युवा जोड़े
अपने क्षुदा पूर्ति और काम वासना
के सनक को
को कहते हैं, हो गया है प्यार
पब्लिक प्लेस पर
इस तरह का दृश्य गढ़ कर
क्यूं करते हैं हमें शर्मशार

मेरे आँखों में तभी कौंधा
HONOUR KILLING जैसा शब्द
लगा ये ऐसे मुद्राओ के साथ
हो नहीं रहा इज्जत से खिलवाड़
क्या इन झाड़ियों में छिप कर
होने वाला जिस्मानी प्यार
कर नहीं रहा युवाओं के
माता-पिता की इज्जत तार-तार
क्यूं इनके आँखों की शर्म
इन्हें बना देती है बेशर्म
क्यूं? क्यूं?? क्यूं???

बुधवार, 12 सितंबर 2012

पंचम सुर में भजन



सुनीता सनाढ्य पाण्डेय


आज सुबह जब वो बोले ए जी
तुम भजन बहुत सुनाती हो
बच्चे बोले हाँ माँ वो भी
पंचम सुर में गाती हो
सब मिलकर फिर बोले
इतनी एनर्जी कहाँ से लाती हो?

हमने कहा
जो तुम ही कर लेते कुछ थोडा सा पूजा-पाठ
कहाँ रह जाती मुझे ज़रुरत
हो जाते सबके ठाठ औ' बाठ

ए जी, जो तुम कुछ देर को
टी वी से ना बतियाते
बस बीवी से ही नयन मिलाते
तो बोलो हम क्यूँ भजन सुनाते?

और बच्चों तुम भी
छोड़ अपना मोबाइल,औ' कंप्यूटर
करते अपने कमरे की सफाई
तो फिर ना देते तुम मुझे
यूँ पंचम सुर की यही दुहाई

और सुनो तुम सब अब ये कि
जब चलती नहीं है मेरी मर्ज़ी
अपने आप ही आ जाती है मुझमे
यूँ भजन सुनाने की एनर्जी

देखो अब मेरी भी है उमर हुई
झाड़ू,पौंछे और बर्तन में
मेरी सारी ही उमर गयी
अब थोड़ी तुम सबसे मदद की है की मैंने गुहार
अब तुम इसे भजन समझो या समझो मेरी करुण पुकार
अब जब तक न मेरा हाथ बंटाओगे
पंचम सुर में तब तक यूँ ही
भजन हमेशा सुनते जाओगे....:)......

सोमवार, 10 सितंबर 2012

' अर्धनारीश्वर '

अर्धनारीश्वर आधे पुरुष ,आधी स्त्री का ही द्योतक नहीं . विवाह यज्ञ के बाद यदि यही मान्य होता हो तो सती को शक्ति रूप लेने में कई जन्म नहीं लेने पड़ते .
सती का भस्म होना , पार्वती से पार्वती का मत्स्य कन्या होना ......... इसका उदाहरण है . पुरुष कठोरता का प्रतीक है, स्त्री कोमलता का - पुरुष अपनी कर्मठता से
अन्न धन लाता है, स्त्री अन्नपूर्णा होती है यानि अन्न को खाने योग्य बनाकर एक पूर्णता का संचार करती है , धन के सही इस्तेमाल से घर की रूपरेखा बनाती है
और बचत करती है . समय की माँग हो तो स्त्री को पुरुष सी कठोरता अपनानी होती है , पुरुष को कोमलता - अर्धनारीश्वर सही अर्थ तभी पाता है . शिव ने तंत्र
शिक्षा से पार्वती को शक्ति का स्रोत दिया , जिसे पाने के लिए आम लिप्साओं को मुक्त करना था .
यह अर्थ यदि पूर्ण न हो तो अर्धनारीश्वर की भूमिका नहीं होती , न उस विवाह का कोई अर्थ होता है . मनुष्य को संबंध विच्छेद की स्थिति से गुजरना होता है , ईश्वर
ने कई जन्म लिए . यदि ईश्वर ने जन्मों का सहारा न लिया होता तो आदिशक्ति का जन्म नहीं होता , न अर्धनारीश्वर का तेज विनाश से बचाने में सहायक होता . मनुष्य
जब जबरन इसे ढोता है तो दोषारोपण , हिंसा के मार्ग बनते हैं . एक समाज को कारण बना कई जीवन बर्बाद हो जाते हैं और सारे व्रत त्योहारों के बाद भी उस संबंध के
कोई मायने नहीं होते .
विवाहित होते एक पुरुष में पिता एक स्त्री में माँ रूप का प्रस्फुटन होता है , पिता को जगतपिता होना चाहिए सोच से , माँ को जगतमाता - फिर सारे दृष्टिकोण सहज, स्थिर
होते हैं . आसुरी प्रवृति से जूझने के लिए संबंधों की इसी गहराई को समझना होगा कि पुरुष में शिव भाव हो स्त्री में शक्ति का , क्योंकि शिव के बिना शक्ति का अथवा शक्ति
के बिना शिव का कोई अस्तित्व ही नहीं है। शिव अकर्ता हैं। वो संकल्प मात्र करते हैं; शक्ति संकल्प सिद्धी करती हैं।

रश्मि प्रभा

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प्रियंका राठौर



' अर्धनारीश्वर '

आदि अनादि कालों से
पौराणिक अपौराणिक गाथाओं से
'अर्धनारीश्वर ' संज्ञा की होती है पुष्टि
क्या है अर्थ इस शब्द का ?
निर्मित किया ब्रह्म ने
दो चेतन पिण्डों को
दिया एक नाम नारी का
और दूजा पुरुष का !
नारी कोमल सुकोमलांगी
पुरुष बलिष्ठ कठोर !
था पुरुष निर्मम भावशून्य
नष्ट कर देता किसी जड़ या चेतन को
बिना किसी अवसाद के !
तथापि थी नारी
भावप्रधान ममतामयी मूरत
स्रष्टि के कण - कण को
अपने कोमल स्पर्श से
सिक्त करना ही थी उसकी नियति !
देखा ब्रहम ने
दो परस्पर विरोधी स्वरूप
सोचा -
नारी दे रही जीवन
और कर रहा पुरुष नष्ट
उसकी रचित नव निर्मित स्रष्टि को !
संतुलित करने के लिए
करें क्या उपाय -
उसी क्षण अचानक
बोला अचेतन मन ब्रहम का
करो ऐसी रचना
जो सम्मिश्रण हो नारी पुरुष गुण का !
उपाय तो श्रेष्ठ था
पर थी समस्या एक
नारी पुरुष थे अलग - अलग पिण्ड
फिर उनका एक रूपांतरण
हो कैसे संभव
युक्ति सूझी उन्हें एक
बांध दिया उन्हें
एक दाम्पत्य बंधन में !
हल निकल आया
ब्रहम की समस्या का !
नारी के कोमल भाव
व पौरुषत्व पुरुष का
पोषक होंगें स्रष्टि के !
यही संकल्पना थी
' अर्धनारीश्वर ' की !
आधे भाव नारी के
आधी शक्ति पुरुष की
मिलाकर बनी एक
अलौकिक रचना
होकर दोनों में तादात्म्य स्थापित
अर्थ ज्ञात हुआ
सही विवाह बंधन का ,
भिन्न - भिन्न दो रूप
हुए जब एक
मिल गया नव जीवन
स्रष्टि को
एक अटल सत्य के साथ .....!!!

शुक्रवार, 7 सितंबर 2012

वापसी





सुशील कुमार


योग-मुद्रा
जी उठा हूँ फिर से उर्जस्वित होकर
साँस की प्राण-वायु अपनी रग-रग में भरकर
स्वयं का संधान कर स्वयं में अंतर्लीन होकर

यह प्रयाण जरूरी था मेरे लिये –
न कोई रंग न कोई हब-गब
जीवन सादा पर सक्रिय है यहाँ
दैनिक क्रियाएँ सरल हैं
स्वर जैसे थम गया हो
हृदय-वीणा के तार जैसे यकायक
तनावमुक्त हो झनझनाकर स्थिर हुए हों

पर सकल आलाप अब शांत है
नीरवता में इस दिनांत की साँझ-वेला में
कोई थिर स्वर उतर रहा है काया के नि:शब्द प्रेम-कुटीर में
अंतर्तम विकसित हो रहा है चित्त स्पंदित हो रहा है
धवल उज्ज्वल आलोक-सा छा रहा है घट के अंदर
कोई सिरज रहा है मुझे फिर से
सचमुच मैं जाग रहा हूँ धीरे-धीरे नवजीवन के विहान में

वहाँ जिनसे मुझे प्रेम मिला था
वह मुझे अपने पास बाँधकर रखना चाहते थे
पर अब अनुभव हो रहा है मुझे -
जड़ता से बचने के लिए, निजता को बचाने के लिये
उनकी दुनिया से अपनी दुनिया मेँ वापस लौटने का मेरा निर्णय सही था |

मंगलवार, 4 सितंबर 2012

तुम्हारे बिन


सुमति


ये दिन
दरख्तों की तरह ,
हिलते नहीं मुझ से
ये घड़ियाँ भी
तुम्हारे बिन
ठहर जाने की जिद मे हैं

फलक पर रात भर तारे
तुम्हारी बात करते हैं

उनकी फुसफुसाहट ही
मुझे सोने नहीं देते

मैं हर पल में परेशां हूँ
परेशां है हर एक लम्हां

वहीँ पर है जहाँ पर थी
तुम्हारे बिन कज़ा मेरी

बुलालूं पास उसको या कि
उस तक दौड़ कर पहुंचूं

मगर बेहिस दरख्तों कि तरह
ये जिंदगी मेरी ...

कि मुझ से तू नहीं मिलता
....कि मुझ से दिन नहीं हिलता

शनिवार, 1 सितंबर 2012

स्त्री को इस तरह भागना क्यों पड़ता है ?



चंद शब्दों में एक सवाल - क्या सबको गुनहगार नहीं बनाता
रश्मि प्रभा

स्त्री को इस तरह भागना क्यों पड़ता है ?(प्रज्ञा पांडेय ) http://kuhaasemenkhotinsubahen.blogspot.in/

सन १९८३ की बात है .उसकी उम्र थी २० या हद से हद २१ वर्ष .भरी हुई देहयष्टि और भरपूर आकर्षण की कही कोई कमी नहीं.! उसका नाम बबिता था! दो साल विवाह को हुए थे ! तब मायके में रह रही थी! वह किसी खौफनाक रात के सन्नाटे में अपनी ससुराल से भाग आई थी .यह सब कुछ उसने खुद ही एक दिन बताया था .यूँ तो गौर करने पर उसकी पानीदार आँखें ऐसा ही कुछ बयां भी करती थीं .कई बार उसको उसकी सास के जान से मारने की कोशिशों ने उसे इस कदर खौफ में डाल दिया था कि वह सारी नसीहतें सारी ज़जीरें सारी मर्यादाएं औए सारे संस्कार तहस- नहस कर सिर्फ अपनी जान लेकर भागी थी .एक ऐसे घर से भागना जहाँ के दरवाजों गलियारों से उससे कोई परिचय नहीं था और जहाँ वह पहली बार गयी थी दुस्साहस का काम था ! यदि उसके प्राण उसकी प्रथम प्राथमिकता न होते तो एक नववधू के लिए रात के सन्नाटे में घर के बाहरी दरवाजों की चाभी भाग जाने के लिए सहेजना कोई आसान काम तो नहीं था...उसको आज भी मेरा मन सलाम करता है ..मैं बार बार सोचती हूँ कि स्त्री और पुरुष की इस दुनिया में स्त्री को इस तरह भागना क्यों पड़ता है ?