एक संदूक - बेनाम हो
या रख दो कोई नाम
उस नाम से परे -
वह यादों को संजोता है !
बंद वह दिखाई देता है
एक कोने में ठिठका सा लगता है
पर उसकी यात्रा वर्त्तमान सी होती है !
एक नहीं अनगिनत एहसास
लेते हैं ज़िन्दगी से भरपूर साँसें
भरते हैं कभी सिसकियाँ
और कभी बेसाख्ता खिलखिलाहटें
जीने के क्रम में
कितने नाम लिखे होते हैं उसके भीतर
स्वतः या ……… जानते हुए
……
माँ जो ज़िन्दगी उपहार में देती है
उसके कई अक्स संदूक में सहेजकर रखे होते हैं !
……… खोलते हैं एक संदूक बेपरवाह लगते दर्पण साह की, जिनकी परवाह संदूक में पडी है - कई एहसासों के साथ -
संदूक
आज...
फ़िर,
....
....
उस,
कोने में पड़े,
धूल लगे 'संदूक' को,
हाथों से झाड़ा...
धूल...
...आंखों में चुभ गई .
संदूक का,
कोई 'नाम' नहीं होता.
पर,
इस संदूक में,
एक खुरचा सा 'नाम' था .
....
....
सफ़ेद पेंट से लिखा .
तुम्हारा था?
या मेरा?
पढ़ा नही जाता है अब .
खोल के देखा उसे,
ऊपर से ही,
बेतरतीब पड़ी थी...
'ज़िन्दगी'।
मुझे याद है,
माँ ने,
जन्म दिन में,
'उपहार' में दी थी।
पहली बार देखी थी,
तो लगता था,
कितनी छोटी है !
पर,
आज भी ,
जब पहन के देखता हूँ,
बड़ी ही लगती है,
शायद...
...कभी फिट आ जाए।
नीचे उसके,
तह करके,
सलीके से,
रखा हुआ है...
...'बचपन' ।
उसकी जेबों में देखा,
अब भी,
तितलियों के पंख,
कागज़ के रंग,
कुछ कंचे ,
उलझा हुआ मंझा,
और...
....
....
और न जाने क्या क्या ?
कपड़े,
छोटे होते थे बचपन में,
....
....
....जेब बड़ी.
कितने ज़तन से,
...मेरे पिताजी ने,
मुझे,
ये
'इमानदारी',
सी के दी थी ।
बिल्कुल मेरे नाप की ।
बड़े लंबे समय तक पहनी।
और,
कई बार,
लगाये इसमे पायबंद ,
कभी 'मुफलिसी' के,
और कभी,
'बेचारगी' के .
पर,
इसकी सिलाई,
....
....
उधड गई थी, एक दिन.
...जब,
'भूख' का खूंटा लगा इसमे.
उसको हटाया,
तो नीचे...
पड़ी हुई थी,
'जवानी'.
उसका रंग उड़ गया था,
समय के साथ साथ।
'गुलाबी' हुआ करती थी ये .
अब पता नहीं ,
कौनसा,
नया रंग हो गया है?
बगल में ही,
पड़ी हुई थी,
'आवारगी'.
....उसमें से,
अब भी,
'शराब' की बू आती है।
४-५,
सफ़ेद,
गोल,
'खुशियों' की 'गोलियाँ',
डाली तो थीं,
संदूक में.
पर वो खुशियाँ...
....
....
.... उड़ गई शायद।
याद है...
जब तुम्हारे साथ,
मेले में गया था ?
एक जोड़ी,
'वफाएं' खरीद ली थी।
तुम्हारे ऊपर तो पता नहीं,
पर,
मुझपे...
.....
.....
ये अच्छी नही लगती।
और फ़िर...
इनका 'फैशन' भी,
...नहीं रहा अब .
...और ये,
शायद...
'मुस्कान' है।
तुम,
कहती थी न...
जब मैं इसे पहनता हूँ,
तो अच्छा लगता हूँ।
इसमें भी,
दाग लग गए थे,
दूसरे कपडों के।
हाँ...
....
....
इसको.....
'जमाने'
और
'जिम्मेदारियों'
के बीच रख दिया था ना ।
तब से पेहेनना छोड़ दी।
अरे...
ये रहा 'तुम्हारा प्यार'।
'वेल्लेनटें डे ' में,
दिया था तुमने।
दो ही महीने चला था,
हर धुलाई में,
सिकुड़ जाता था।
भाभी ने बताया भी था,
"इसके लिए,
खारा पानी ख़राब होता है."
पर आखें,
आँखें ये न जानती थी।
चलो,
बंद कर देता हूँ,
सोच के...
जैसे ही संदूक रखा,
देखा,
'यादें' तो बाहर ही छूट गई,
बिल्कुल साफ़,
नाप भी बिल्कुल सही.
लगता था,
जैसे,
आज के लिए ही खरीदी थी,
उस 'वक्त' के बजाज से
कुछ लम्हों की कौडियाँ देकर .
चलो,
आज...
फ़िर,
....
....
इसे ही,
पहन लेता हूँ .
सन्दुक खोल तो यादें घिर आयीं वजूद पर और बड़े जतन से जो बंद भी किया तो भी झांकती रह गयीं कितनी ही ... वाह
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंये मेरी पसंद की चुनिन्दा लिखाइयों में से एक है !! दर्पण यहाँ awesome है !!
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