अपर्णा अनेकवर्णा की रचना आखिरकार
कई मन की दीवारों पर
बारिश की नमी से उभरे होते हैं
एक नई भोर की तलाश में
जिसमें हो हौसलों की गर्मी
और उम्मीदों से भरी एक राह
…………… अपनी नज़र से पढ़के देखिये, सच है न ?
रश्मि प्रभा
आखिरकार,
चाम-गाथा को सामने आना ही पड़ा
बस मुझे एक क़दम ही तो भरना था
खुद से ही बाहर निकल आना था..
ठीक जैसे ८० के दशक के सिनेमा में..
खुद का ही होता था आमना-सामना
* मैंने तुम में एक
रजोनिवृति के समीपाई..
खिचड़ी बालों से ढकी कनपटी वाली
स्थूल.. भिन्नाई... ४०-साला औरत दिखी..
अनमनी सी.. अपने आस-पास से गुज़रती
दुनिया को देखती रहती है..
अपनी सारी ऊर्जा बटोरती है...
कि झेल जाए एक और किशोर हंगामा..
जिसका साथी हमेशा दूर.. काम में मशगूल..
मुझ पर ऊपर से नीचे अपनी उदास दृष्टि फेरती है..
** मुझे दिखती है एक ४०-साला औरत..
अपनी स्थूलता में भी गर्वीली खड़ी
खिचड़ी बालों से ढकी कनपटी.. रजोनिवृत्ति के समीपाई
अपनी दैहिकता को भरपूर जीती हुयी
सहज.. पूरी तरह से झेंप से परे..
हाथ बढ़ाती है जीवन की तीव्र ऊर्जावान धारा की ओर..
और चुन लेती है उसमें से..
जो चाहिए उसे.. बस उतना ही..
बग़ावत पर आमदा किशोर उसका
बन भीरु लौट आता है..
साथी सदा आस-पास ही मिलता है
पूरा साथ निभाता है...
*** हम दोनों..
अलग खड़ी फिर भी जुडी हैं
उदास मुरझायी सी मोटी औरत
अपनी नाकामियों से भारी सांस ले रही है..
और वो दूजी.. आत्मविश्वास से सजी
अपनी ज़रूरतों के प्रति सजग..
हम दोनों आगे बढ़ती हैं..
हो जाती हैं आलिंगनबद्ध
उस विच्छेद के बाद का ये मिलना
अपने आप में सम्पूर्ण है..
खुद को आईने में निहारती हूँ
तो पाती हूँ.. कनपटी अब भी सफ़ेद है
पर बंधे हैं केश एक सुरुचिपूर्ण विन्यास में..
वेशभूषा एक खुशनुमा पोशाक की है...
ये बदलाव बस ऊपरी नहीं है वरन
ये भीतर से ही उभर रहा है
कभी क़दमों में उत्साह बन के
कभी आँखों में ख़ुशी बन के..
अब झुर्रियां भी किसे गिनना है यहाँ भला..
देखिये मैं अब कितनी ही शांत हूँ..
एक साथ मिलकर हमने
एक नयी 'मैं' रच डाली है....
चाम-गाथा को सामने आना ही पड़ा
बस मुझे एक क़दम ही तो भरना था
खुद से ही बाहर निकल आना था..
ठीक जैसे ८० के दशक के सिनेमा में..
खुद का ही होता था आमना-सामना
* मैंने तुम में एक
रजोनिवृति के समीपाई..
खिचड़ी बालों से ढकी कनपटी वाली
स्थूल.. भिन्नाई... ४०-साला औरत दिखी..
अनमनी सी.. अपने आस-पास से गुज़रती
दुनिया को देखती रहती है..
अपनी सारी ऊर्जा बटोरती है...
कि झेल जाए एक और किशोर हंगामा..
जिसका साथी हमेशा दूर.. काम में मशगूल..
मुझ पर ऊपर से नीचे अपनी उदास दृष्टि फेरती है..
** मुझे दिखती है एक ४०-साला औरत..
अपनी स्थूलता में भी गर्वीली खड़ी
खिचड़ी बालों से ढकी कनपटी.. रजोनिवृत्ति के समीपाई
अपनी दैहिकता को भरपूर जीती हुयी
सहज.. पूरी तरह से झेंप से परे..
हाथ बढ़ाती है जीवन की तीव्र ऊर्जावान धारा की ओर..
और चुन लेती है उसमें से..
जो चाहिए उसे.. बस उतना ही..
बग़ावत पर आमदा किशोर उसका
बन भीरु लौट आता है..
साथी सदा आस-पास ही मिलता है
पूरा साथ निभाता है...
*** हम दोनों..
अलग खड़ी फिर भी जुडी हैं
उदास मुरझायी सी मोटी औरत
अपनी नाकामियों से भारी सांस ले रही है..
और वो दूजी.. आत्मविश्वास से सजी
अपनी ज़रूरतों के प्रति सजग..
हम दोनों आगे बढ़ती हैं..
हो जाती हैं आलिंगनबद्ध
उस विच्छेद के बाद का ये मिलना
अपने आप में सम्पूर्ण है..
खुद को आईने में निहारती हूँ
तो पाती हूँ.. कनपटी अब भी सफ़ेद है
पर बंधे हैं केश एक सुरुचिपूर्ण विन्यास में..
वेशभूषा एक खुशनुमा पोशाक की है...
ये बदलाव बस ऊपरी नहीं है वरन
ये भीतर से ही उभर रहा है
कभी क़दमों में उत्साह बन के
कभी आँखों में ख़ुशी बन के..
अब झुर्रियां भी किसे गिनना है यहाँ भला..
देखिये मैं अब कितनी ही शांत हूँ..
एक साथ मिलकर हमने
एक नयी 'मैं' रच डाली है....
बहुत ही सुन्दर
जवाब देंहटाएंbadhiya ...:)
जवाब देंहटाएंएक चालीस साला औरत की मनोदशा का चित्रण ....... बिलकुल वास्तविक .......
जवाब देंहटाएंअपर्णा एक बेहतरीन कवियत्री हैं ............ आखिर रश्मि दी के नजरों मे आ ही गई :)
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन इंसान का दिमाग,सही वक़्त,सही काम - ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
जवाब देंहटाएंये खुशियाँ बनी रहें , आवश्यक हैं ! मंगलकामनाएं आपको !
जवाब देंहटाएं