बुधवार, 9 अप्रैल 2014

आकाश को छूने से पहले (अशोक लव)





तुमने तो सपनों की सम्पूर्ण थाती मुझे दी 
पर मेरा हाथ छोड़ दिया 
अभी तो मैंने उड़ने की कला सीखी ही थी 
कर्तव्यों का अथाह सागर मेरे आगे कर दिया 
कुशल तैराक की क्या बात 
मैं तो तैरना ही नहीं जानता था 
जिम्मेदारियों के पानी में डूबते-उतराते 
बस यही ख्याल आया 
कि 
आकाश को छूने से पहले 
धरती की नमी समझ लेता 
तो अच्छा था ! …   

मेरी नज़रों से गुजरते हुए अशोक लव जी की रचना कुछ ऐसे ही भाव दे गई - रश्मि प्रभा




किशोरावस्था की सपनीली रंगीन दुनिया
गडमडगड हो गई 
कुवारे कच्चे सपनों का काँच तड़क गया 
चुभ गई किरिचें मन-पंखुड़ियों पर
पिता ! क्यों छोड़ दिया तुमने अपना संबल

इतनी जल्दी 
अभी तो उतरी ही थीं आँखों में कल्पनाएँ
कैनवस बाँधा ही था
इकट्ठे क्र रहा था रंग 
तूलिका कहाँ उठा पाया था बिखर गया सब.

उतर आया पहाड़-सा बोझ कंधों पर
आ खड़ी हुई 
जीवन की पगडंडियों में एवरेसटी चुनौतियाँ
छिलते गए पाँव
होते गए खुरदरे करतल
धंसते गए गाल 
स्याह होते गए आँखों के नीचे धब्बे.

गमले में अंकुरित हो
पौधे के आकाश की ओर बढ़ने की प्रक्रिया 
आरंभ ही हुई थी
कहाँ संजो सका सपने पौधा
आकाश को छूने के.

किशोरावस्था ओर वृद्धावस्था के मध्य
रहता है लंबा अंतराल
जीवन का स्वर्ण-काल 
फिसल गया 
मेरी हथेलियों में आते-आते.

तुम छोड़ गए मेरे कंधों पर
अपने कंधों का बोझ 
इसलिए नहीं चढ़ पाया
यौवन की दहलीज पर
तुम भी नहीं छू पाए थे मेरी भांति 
यौवन की चौखट
तुम भी धकेल दिए गए थे
किशोरावस्था से वृद्धावस्था के आँगन में .

तुम्हारे रहते जानता तो पूछता—
क्यों आ जाता है हमारे हिस्से
पीढ़ी –दर-पीढ़ी इतनी जल्दी
यह बुढापा ,
क्यों रख दिया जाता है
बछड़े के कंधों पर
बैल के कंधों का बोझ .

पिता ! तुमने बता दिया होता
तो नहीं उगाता किशोर मन में 
यौवन की फसलों के
लहलहाते खेत.

अशोक लव 

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