बुधवार, 24 सितंबर 2014

सरस्विता पुरस्कार से सम्मानित श्रेष्ठ संस्मरण 2014


ॐ 
मेरे पापा को विश्व पंडित नरेंद्र शर्मा के नाम से पहचानता है। पापा जी हिन्दी के 
सुप्रसिद्ध  गीतकार हैं जिन्होंने ' ज्योति कलश छलके ' और ' सत्यम शिवम सुंदरम ' जैसे अविस्मरणीय, शुद्ध हिन्दी गीत हिन्दी फिल्मों के लिए लिखे और लोकप्रियता के नए आयाम रचे। पूज्य पापा जी ने रेडियो के यशस्वी कार्यक्रम ' विविधभारती ' का नामकरण भी किया और उसके अंतर्गत आनेवाले कई कार्यक्रमों के अभिनव नाम रखे। जैसे बंदनवार मंजूषा, मनचाहे गीत , बेला के फूल , हवामहल इत्यादि जो आज भी श्रोताओं के मन में अपना प्रिय स्थान बनाये हुए हैं। ' महाभारत ' टीवी सीरियलों के पापा जी के लिखे दोहे और शीर्षक गीत ने भारत के हर प्रदेश में शंखनाद सहित प्राचीन भारतीय इतिहास को टीवी के पर्दे पर सजीव किया। पास पड़ौस, परिवार के सगे सम्बन्धियों के अनेक नन्हे मुन्ने शिशुओं के नामकरण भी पापा जी ने सर्वथा अनोखे नाम देकर किये हैं। जैसे युति , विहान सोपान , कुंजम और  इनमे एक नाम और जोड दूँ , तो स्वयं मेरा नाम '  लावण्या '  भी पापा जी का प्रसाद है। 
      हिन्दी काव्य की प्रत्येक विधा में लिखी उनकी कविताएँ  १९ पुस्तकों में समाहित हैं। अब पंडित नरेंद्र शर्मा - सम्पूर्ण रचनावली भी प्रकाशित हो चुकी है। ' द्रौपदी खंड काव्य हो या अप्रयुक्त छंदों में ढली कविताएँ जो ' शूल फूल , ' बहुत रात गए ', ' कदली वन, '  प्रवासी के गीत ' व ऐतिहासिक काव्य कृतियाँ ' सुवीरा' ,' सुवर्णा' एवं 'उत्तर जय', आदि में समाहित हैं और 'कड़वी मीठी बातें' तथा 'ज्वाला परचूनी ' कथा संग्रह , असंख्य रेडियो रूपक, निबंध आदि रचनावली में संगृहीत हैं। रचनाकार नरेंद्र शर्मा ने ६० दशक पर्यन्त साहित्य के अभिनव सोपानों पर सफलता पूर्वक अनवरत प्रयाण कर हिन्दी साहित्य को समृद्ध किया  है। रचनाकार , सर्जक और कवि श्री नरेंद्र शर्मा की विद्वत्ता के बारे में, मेरा अधिक कहना ' छोटे मुंह बड़ी बात ' ही होगी। मैंने रचनाकार से अधिक  पिता रूप को ही समझा है और मेरी उम्र बढ़ने के साथ मेरे ' पापा जी को गुरु रूप से पूजने में मैं स्वयं को धन्य समझती हूँ।  
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सन १९४० श्री सुमित्रानंदन पंत जी, डा हरिवंशराय बच्चन व पंडित नरेंद्र शर्मा 
     मेरी अम्मा श्रीमता सुशीला नरेंद्र शर्मा गुजराती परिवार से थीं। अत्यंत सौम्य, यथा नाम गुण ऐसी  सुशील और सुघड़ गृहिणी थीं मेरी अम्मा ! चित्रकला में पारंगत और गृहकार्य में दक्ष पाककला में अन्नपूर्णा  और हम चारों भाई बहनों के लिए अम्मा ममतामयी माँ थीं ! 
      मई १२ , १९४७ के शुभ दिन कविश्रेष्ठ  सुमित्रानंदन पंत जी के आग्रह एवं आशीर्वाद से  कुमारी सुशीला गोदीवाला और कवि नरेंद्र शर्मा का पाणिग्रहण  संस्कार मुम्बई शहर में सुन्दर संध्या  समय संपन्न हुआ था। मानों कवि की कविता सहचरी मूर्तिमंत हुई थी।  

श्रद्धेय पन्त जी अपने अनुज समान कवि नरेंद्र शर्मा के साथ बंबई शहर के उपनगर माटुंगा के शिवाजी पार्क  इलाके में रहते थे। हिन्दी के प्रसिध्ध साहित्यकार श्री अमृतलाल नागर जी व उनकी धर्मपत्नी प्रतिभा जी ने कुमारी सुशीला गोदीवाला को गृह प्रवेश  करवाने का मांगलिक  आयोजन संपन्न किया था। 
      सुशीला , मेरी अम्मा अत्यंत  रूपवती थीं और  दुल्हन के वेष में उनका चित्र आपको मेरी बात से सहमत करवाएगा ऐसा विश्वास है।

विधिवत पाणि -- ग्रहण संस्कार संपन्न होने के पश्चात वर वधु नरेंद्र व सुशीला को 
सुप्रसिध्ध गान कोकिला सुश्री सुब्बुलक्ष्मी जी व सदाशिवम जी की गहरे नीले रंग की गाडी जो सुफेद फूलों से सजी थी उसमे बिठलाकर घर तक लाया गया था।     
        
द्वार पर खडी नव वधु सुशीला को कुमकुम  से भरे एक बड़े थाल पर खड़ा किया गया और एक एक पग रखतीं हुईं लक्ष्मी की तरह सुशीला ने गृह प्रवेश किया था। तब दक्षिण भारत की सुप्रसिध्ध गायिका सुश्री सुब्बुलक्ष्मी जी ने मंगल गीत गाये थे। मंगल गीत में भारत कोकिला सुब्बुलक्ष्मी जी का साथ दे रहीं थें उस समय की सुन्दर नायिका और सुमधुर गायिका सुरैया जी ! 
      
            विवाह की बारात में सिने  कलाकार श्री अशोक कुमार, दिग्दर्शक श्री चेतन आनंद, श्री  विजयानंद, संगीत निर्देशक श्री अनिल बिस्वास, शायर जनाब सफदर आह सीतापुरी, श्री रामानन्द सागर , श्री दिलीप कुमार साहब जैसी मशहूर कला क्षेत्र की हस्तियाँ शामिल थीं। 
      
सौ. प्रतिभा जी ने नई दुल्हन सुशीला को फूलों का घाघरा फूलों की चोली और फूलों की चुनरी और सारे फूलों से  बने गहने, जैसे बाजूबंद, गलहार, करधनी , झूमर पहनाकर सजाया था। 
     
कवि शिरोमणि पन्त जी ने सुशीला के इस फुल श्रुंगार से सजे  रूप को,  एक बार देखने की इच्छा प्रकट की और नव परिणीता सौभाग्यकांक्षिणी  सुशीला को देख कर  कहा था   'शायद , दुष्यंत की शकुन्तला कुछ ऐसी ही होंगीं ! '       
      
ऐसी सुमधुर ससुराल की स्मृतियाँ सहेजे अम्मा हम ४ बालकों की माता बनीं उसके कई बरसों तक मन में संजोये रख अक्सर प्रसन्न होतीं रहीं और  ये सुनहरी यादें हमारे संग बांटने की हमारी उमर हुई तब हमे भी कह कर  सुनाईं थीं। जिसे आज दुहरा रही हूँ। 

सन  १९४८ अप्रेल ३ तारीख को शर्मा दम्पति की प्रथम संतान वासवी का जन्म हुआ। 
उसे अस्पताल से घर तक सुप्रसिद्ध कलाकार श्री दिलीप कुमार जी अपनी बड़ी सी गाड़ी लेकर लिवा लाये थे। सन १९५० नवंबर की २२ तारीख को मेरा जन्म हुआ। १९५३ में मुझ से छोटी बांधवी और १९५५ में परितोष मेरे अनुज का आगमन हुआ।  
सन १९५५ से कवि  श्री नरेंद्र शर्मा  को ऑल  इंडिया रेडियो के ' विविध भारती ' कार्यक्रम जिसका नामकरण भी उन्हींने किया है उसके प्रथम प्रबंधक, निर्देशक , निर्माता के कार्य के लिए भारत सरकार ने अनुबंधित किया। इसी पद पर वे १९७१ तक कार्यरत रहे। 

उस दौरान उन्हें बंबई से नई देहली के आकाशवाणी कार्यालय में स्थानांतरण होकर कुछ वर्ष देहली रहना हुआ था। कविता लेखन यथावत जारी थी। बॉम्बे टाकिज़ के लिए फिल्म गीत लिखे परन्तु आकाशवाणी और विविधभारती में कार्यकाल के दौरान फिल्मों के गीत यदाकदा ही लिखे गए। उसी कालखण्ड में फिल्म ' भाभी की चूड़ियाँ'  मीना कुमारी और बलराज साहनी द्वारा अभिनीत चित्रपट के सभी गीत नरेंद्र शर्मा की स्मृति को हर संगीत प्रेमी के ह्रदय में अपना विशिष्ट स्थान दिलवाने में सफल रहे हैं। 
  
हमारे भारतीय त्यौहार ऋतु अनुसार आते जाते रहे हैं। सो  एक वर्ष ' होली ' भी आ गयी। उस  साल होली का वाकया कुछ यूं हुआ।  

नरेंद्र शर्मा को बंबई से सुशीला का ख़त मिला! जिसे उन्होंने अपनी लेखन प्रक्रिया की बैठक पर , लेटे हुए ही पढने की उत्सुकता से चिठ्ठी फाड़ कर पढने का उपक्रम किया किन्तु, सहसा , ख़त से ' गुलाल ' उनके चश्मे पर, हाथों पे और रेशमी सिल्क के कुर्ते पे बिखर , बिखर गया ! उनकी पत्नी ने बम्बई नगरिया से गुलाल भर कर पूरा लिफाफा  भेज दिया था और वही गुलाल ख़त से झर झर कर गिर रहा था और उन्हें होली के रंग में रंग रहा था ! आहा ! है ना मजेदार वाकया ?
नरेंद्र शर्मा पत्नी की शरारत पे मुस्कुराने लगे थे ! इस तरह दूर देस बसी पत्नी ने,अपने पति की अनुपस्थिति में भी उन के संग  ' होली ' का उत्सव ,  गुलाल भरा संदेस भेज कर त्यौहार पवित्र अभिषेक से संपन्न किया ! कहते हैं ना , प्रेम यूं ही दोनों ओर पलता है।   
पूज्य पापाजी के घर , १९ वाँ रास्ता , खार , जब हम रहने आये थे तब मेरा अनुज परितोष, वर्ष भर का था। मैं पांच वर्ष की थी। उस घर से पहले, हम माटुंगा उपनगर के शिवाजी पार्क इलाके में रहे। 
मैं तीन वर्ष की थी तब पू पापाजी ने सफेद चोक से काली स्लेट पर ' मछली ' बनाकर मुझे सिखलाया और कहा ' तुम भी बनाओ '  
मछली से एक वाक्या याद आया। हम बच्चे खेल रहे थे और मेरी सहेली लता गोयल ने मुझ पर पानी फेंक कर मुझे भिगो दिया। मैं दौड़ी पापा , अम्मा के पास और कहा  ' पापा , लता ने मुझे ऐसे भिगो दिया है कि जैसे मछली पानी में हो !'  मेरी बात सुन पापा खूब हँसे और पूछा ,' तो क्या मछली ऐसे ही पानी में भीगी रहती है ? 'मेरा उत्तर था ' हाँ पापा , हम गए थे न एक्वेरियम , मैंने वहां देखा है।' पापाजी ने अम्मा से कहा  ' सुशीला।  हमारी लावणी बिटिया कविता में बातें करती है ! ' 
          एक दिन अम्मा हमे भोजन करा रहीं थीं।  हम खा नहीं रहे थे और उस रोज अम्मा अस्वस्थ भी थीं तो नाराज़ हो गईं। नतीजन , हमे डांटने लगी।  तभी पापा जी वहां आ गए और अम्मा से कहा ' सुशीला खाते समय बच्चों को इस तरह डाँटो नहीं।' अम्मा ने जैसे तैसे हमे भोजन करवाया और एक कोने में खड़ी होकर वे चुपचाप रोने लगीं। मैंने देखा और अम्मा का आँचल खींच कर कहा ,' अम्मा रोना नही। जब हम zoo [ प्राणीघर ] जायेंगें तब मैं ,पापा को शेर के पिंजड़े में रख दूंगीं।  ' इतना सुनते ही अम्मा की हंसी छूटी और कहा ' सुनिए , आपकी लावणी आपको शेर के पिजड़े में रखने को कह रही है ! ' पापा और अम्मा खूब हँसे। तो मैं, पापा की ऐसी बहादुर बेटी हूँ ! अक्सर पापाजी यात्रा पर देहली जाते तब अवश्य पूछते ' बताओ तुम्हारे लिए क्या लाऊँ ? '  मैंने कहा ' नमकीन ' पापा मेरे लिए देहली से लौटे तो दालमोठ ले आये। उसे देख मैं बहुत रोई और कहा ' मुझे नमकीन  चाहिए ' पापाने प्यार से समझाते हुए कहा ' बेटा यही तो नमकीन है ' 
अम्मा ने उन से कहा ' इसे बस ' नमकीन ' शब्द पसंद है पर ये उसका मतलब समझ नहीं रही।  ' 
      हमारे घर आनेवाले अतिथि हमेशा कहा करते कि आपके घर पर ' स्वीच ओन और ऑफ़ ' हो इतनी तेजी से गुजराती से हिन्दी और हिन्दी से गुजराती में बदल बदल कर बातें सुनाई पड़तीं हैं। पापाजी का कहना था ' बच्चे पहले अपनी मातृभाषा सीख ले तब विश्व की कोई भाषा सीखना कठिन नहीं। सो हम तीनों बहनें , बड़ी स्व वासवी , मैं लावण्या , मुझ से छोटी बांधवी हम तीनों गुजराती माध्यम से पढ़े। पाठ्यक्रम में संत नरसिंह मेहता की प्रभाती ' जाग ने जादवा कृष्ण गोवाळीया ' 
और ' जळ कमळ दळ छांडी जा ने बाळा स्वामी अमारो जागशे ' यह कालिया मर्दन की कविता उन्हें बहोत पसंद थी और पापा हमसे कहते ' सस्वर पाठ करो।  ' 
      हमारे खार के घर हम लोग आये तब याद है पापा अपनी स्व रचित कविता तल्लीन होकर गाते और हम बच्चेउनके  सामने नृत्य करते। वे अपनी नरम हथेलियों से ताली बजाते हुए गाते ~~ 
' राधा नाचैं , कृष्ण नाचैं , नाचैं गोपी जन ,
 मन मेरा बन गया सखी री सुन्दर वृन्दावन ,
 कान्हा की नन्ही ऊँगली पर नाचे गोवर्धन ! '   
उस भोले शैशव के दिनों में हमे बस इतना ही मालूम था कि ' हमारे हैं पापा ! ' 
वे एक असाधारण  प्रतिभाशाली व्यक्ति हैं, जिन्होंने अपने कीर्तिमान स्वयं रचे, यह तो अब कुछ कुछ समझ में आ रहा है।विषम या सहज परिस्थिती में स्वाभिमान के साथ आगे बढ़ना, उन्हीं के सम्पूर्ण जीवन से हमने पहचाना। नानाविध विषयों पर उनके वार्तालाप, जो हमारे घर पर आये कई विशिष्ट क्षेत्र के सफल व्यक्तियों के संग जब वे चर्चा करते , उसके कुछ अंश सुनाई पड़ते रहते। आज , उनकी कही हर बात, मेरे जीवन की अंधियारी पगडंडियों पर रखे हुए झगमगाते दीपकों की भाँति जान पड़ते हैं और वे मेरा मार्ग प्रशस्त करते हैं।  पूज्य पापाजी से जुडी हर छोटी सी घटना भी आज मुझे एक अलग रंग की आभा लिए याद आती है।  
           मैं जब आठवीं कशा में थी तब कवि शिरोमणि कालिदास की ' मेघदूत ' से एक अंश पापा जी ने मुझसे पढ़ने को कहा। जहां कहीं मैं लडखडाती , पापा मेरा उच्चारण शुद्ध कर देते। आज मन्त्र और श्लोक पढ़ते समय , पूज्य पापाजी का स्वर कानों में गूंजता है।
यादें , ईश्वर के समक्ष रखे दीप के संग, जीवन में उजाला भर देतीं हैं।  उच्चारण शुद्धि के लिये यह भी पापा जी ने हमे सिखलाया था 
' गिल गिट  गिल गिट गिलगिटा , 
 गज लचंक लंक पर चिरचिटा ' ! 
                        मुझे पापा जी की मुस्कुराती छवि बड़ी भली लगती है। जब कभी वे किसी बात पर खिलखिलाकर हँस पड़ते, मुझे बेहद खुशी होती। पापाजी का ह्रदय अत्यंत कोमल था। करूणा और स्नेह से लबालब ! वैषणवजन वही हैं न जो दूसरों की पीड़ा से अवगत हों ? वैसे ही थे पापा ! 
                कभी रात में हमारी तबियत बिगड़ती, हम पापा के पास जा कर धीरे से कहते ' पापा  , पापा ' तो वे फ़ौरन पूछते ' क्या बात है बेटा ' और हमे लगता अब सब ठीक है। 
' रख दिया नभ शून्य  में , किसने तुम्हें मेरे ह्रदय ?
 इंदु कहलाते , सुधा से विश्व नहलाते 
 फिर भी न जग ने जाना तुन्हें , मेरे ह्रदय ! ' 
और 
' अपने सिवा और भी कुछ है, जिस पर मैं निर्भर हूँ  
  मेरी प्यास हो न हो जग को, मैं , प्यासा निर्झर हूँ ' 
ऐसे शब्द लिखने वाले कवि के हृदयाकाश में, पृथ्वी के हर प्राणी, हर जीव के लिए अपार प्रेम था। मन में आशा इतनी बलवान कि, 
 ' फिर महान बन मनुष्य , फिर महान बन 
  मन  मिला अपार प्रेम से भरा तुझे
  इसलिए की प्यास जीव मात्र की बुझे 
  अब न बन कृपण मनुष्य फिर महान बन ! ' 

अम्मा को पहली २ कन्या संतान की प्राप्ति पर, पापा ने उन्हें माणिक और पन्ने  के किमती आभूषण, उपहार में दिए। तीसरी कन्या [ बांधवी ] के जन्म पर अम्मा उदास होकर कहने लगीं ' नरेन जी लड़का कब होगा कहिये न ! आपकी ज्योतोष विद्या किस काम की ? मुझे न चाहिए ये सब ! '
पापा ने कहा , ' सुशीला तीन कन्या रत्नों को पाकर हम धन्य हुए। ईश्वर का प्रसाद हैं ये संतान! वे जो दें सर माथे ! '
आज भारत में अदृश्य हो रही कन्या संख्या एक विषम चुनौती है। काश, पापा जी जैसे पिता, हर लड़की के भाग में हों तब मुझ सी ही हर बिटिया का जीवन धन्य हो जाए ! 
मुझे याद आती है बचपन की बातें जब कभी पापा मस्ती में, बांधवी जिसे हम प्यार से मोँघी बुलाते हैं उसे पकड़ कर कहते ' वाह ये तो मेरा सिल्क का तकिया है ! ' तो वह कहती ' पापा , मैं तो आपकी मोँघी रानी हूँ , सिल्क का तकिया नहीं हूँ ! ' 
देहली से पापा हमे नियम से पोस्ट कार्ड लिखा करते थे। सम्बोधन में लिखते ' परम प्रिय बिटिया लावणी ' या ' मेरी प्यारी बिटिया मोँघी रानी ' ऐसा लिखते, जिसे देख कर, आज भी मैं मुस्कुराने लगती हूँ। 
बड़ी वासवी जब १ वर्ष की थी बीमार हो गई तो डाक्टर के पास अम्मा और पापा उसे ले गए।  बड़ी भीड़ थी। वासवी रोने लगी। एक सज्जन ने कहा ' कविराज एक गीत सुना कर चुप क्यों नहीं कर देते बिटिया को ! ' पापा हल्के से गुनगुनाने लगे और वासवी सचमुच शांत हो गई। कुछ समय पहले पापाजी की लिखी एक कविता देखी; 
' सुन्दर सौभाग्यवती अमिशिखा नारी 
 प्रियतम की ड्योढ़ी से पितृगृह सिधारी 
 माता मुख भ्राता की , पितुमुखी भगिनी 
 शिष्या है माता की , पिता की दुलारी ! ' 
ऐसे पिता को गुरु रूप में पाकर , उन्हें अपना पथ प्रदर्शक मान कर  मेरे लिए , जीवन जीना सरल और संभव हुआ है। मेरी कवितांजलि ने बारम्बार प्रणाम करते हुए कहा है 
' जिस क्षण से देखा उजियारा 
  टूट गए रे तिमिर जाल 
  तार तार अभिलाषा टूटी 
  विस्मृत गहन तिमिर अन्धकार 
 निर्गुण बने, सगुण वे उस क्षण 
 शब्दों के बने सुगन्धित हार 
 सुमनहार अर्पित चरणों पर 
 समर्पित जीवन का तार तार ! ' 
सच कहा है  ' सत्य निर्गुण है। वह जब अहिंसा, प्रेम, करुणा के रूप में अवतरित होता है तब सदगुण कहलाता है।'   
एक और याद साझा करूँ ? हमारे पड़ौस में माणिक दादा के बाग़ से कच्चे पके नीम्बू और आम हम बच्चों ने एक उमस भरी दुपहरी में, जब सारे बड़े सो रहे थे, तोड़ लिए।  हम किलकारियाँ भर कर खुश हो रहे थे कि पापा आ गए , गरज कर कहा
' बिना पूछे फल क्यों तोड़े ? जाओ जाकर लौटा आओ और माफी मांगो ' क्या करते ? गए हम, भीगी बिल्ली बने, सर नीचा किये ! पर उस दिन के बाद आज तक , हम अपने और पराये का भेद भूले नहीं। यही उनकी शिक्षा थी।  
          दूसरों की प्रगति व उन्नति से प्रसन्न रहो। स्वाभिमान और अभिमान के अंतर को पहचानो। समझो। अपना हर कार्य प्रामाणिकता पूर्वक करो। संतोष, जीवन के लिए अति आवश्यक है। ऐसे कई दुर्गम पाठ, पापाजी व अम्मा के आश्रम जैसे पवित्र घर पर पलकर बड़ा होते समय हम ने कब सीख लिए, पता भी न चला।  
       सन  १९७४ में विवाह के पश्चात ३ वर्ष , लोस - एंजिलिस , कैलीफोर्निया रह कर हम, मैं और दीपक जी लौटे। १९७७ में मेरी पुत्री सिंदूर का जन्म हुआ। मैं उस वक्त पापा जी के घर गई थी। मेरा ऑपरेशन हुआ था। भीषण दर्द, यातना भरे वे दिन थे। रात, जब कभी मैं उठती तो फ़ौरन पापा को वहां अपने पास पाती। वे मुझे सहारा देकर कहते ' बेटा , तू चिंता न कर , मैं हूँ यहां ! ' 
         आज मेरी पुत्री सिंदूर के पुत्र जन्म के बाद, वही वात्सल्य उँड़ेलते समय, पापा का वह कोमल स्पर्श और मृदु स्वर कानों में सुनाई पड़ता है और अतीत के गर्भ से भविष्य का उदय होता सा जान पड़ता है।                   
        मेरे पुत्र सोपान के जन्म के समय, पापा जी ने २ हफ्ते तक, मेरे व शिशु की सुरक्षा के लिए बिना नमक का भोजन खाया था।  
ऐसे वात्सल्य मूर्ति  पिता को किन शब्दों में , मैं , उनकी बिटिया , अपने श्रद्धा सुमन अर्पित करूँ ? कहने को बहुत सा  है - परन्तु समयावधि के बंधे हैं न हम ! 
हमारा मन कुछ मुखर और बहुत सा मौन लेकर ही इस भाव समाधि से, जो मेरे लिए पवित्रतम तीर्थयात्रा से भी अधिक पावन है, वही महसूस करें।  
        चिर तरुण , वीर, निडर , साहसी , देशभक्त , दार्शनिक , कवि और एक संत मेरे पापा की छवि मेरे लिए एक आदर्श पिता की छवि तो है ही परन्तु उससे अधिक ' महामानव ' की छवि का स्वरूप हैं वे !
पेट के बल लेट कर , सरस्वती देवी के प्रिय पापा की लेखनी से उभरती, कालजयी कविताएँ मेरे लिए प्रसाद रूप हैं।  
 ' हे पिता , परम योगी अविचल , 
  क्यों कर हो गए मौन ? 
  क्या अंत यही है जग जीवन का 
  मेरी सुधि लेगा कौन ? ' 
बारम्बार शत शत प्रणाम ! 
- लावण्या 

Tel. Cell No : 513 - 233 - 7510

इ मेल : lavnis@gmail.com 
Add : Mrs Lavanya Shah 
6617, Cove Field Court
 Mason, OHIO 45040
          U.S. A.
परिचय : 
हिंदी -साहित्य की सुपरिचित कवयित्री लावण्या शाह सुप्रसिद्ध कवि स्व० श्री नरेन्द्र शर्मा जी की सुपुत्री हैं और वर्तमान में अमेरिका में रह कर अपने पिता से प्राप्त काव्य-परंपरा को आगे बढ़ा रही हैं। समाजशा्स्त्र और मनोविज्ञान में बी. ए.(आनर्स) की उपाधि प्राप्त लावण्या जी प्रसिद्ध पौराणिक धारावाहिक  ”महाभारत” के लिये कुछ दोहे भी लिख चुकी हैं। इनकी कुछ रचनायें और स्व० नरेन्द्र शर्मा और स्वर-साम्राज्ञी लता मंगेशकर जी से जुड़े संस्मरण रेडियो से भी प्रसारित हो चुके हैं। 
इनकी  पुस्तक “फिर गा उठा प्रवासी” प्रकाशित हो चुकी है जो इन्होंने अपने पिता जी की प्रसिद्ध कृति  ”प्रवासी के गीत” को श्रद्धांजलि देते हुये लिखी है। 
उपन्यास -’ सपनों के साहिल’ प्रकाशित हो चुका है।  कहानी संग्रह ‘ अधूरे अफ़साने ‘, और ' संस्मरण ' प्रकाशाधीन हैं। 
स्वरांजलि अमरीका के ओहायो प्रांत के रेडियो से प्रसारित कार्यक्रम 


2 टिप्‍पणियां:


  1. बड़ों के और पापा और मेरी अम्मा के आशीर्वाद हैं जो फलीभूत हुए हैं।
    माँ दुर्गा स्वरूपिणी होतीं हैं। प्रणाम करती हूँ।
    माँ के आशीष मिले, संग बहन हैं और क्या चाहिए !
    प्रणाम करती हूँ। आपके स्नेह और आशिष मिलते रहें। सच्चे मन से धन्यवाद।

    पापा जी और पूज्य अम्मा जी के आशीर्वाद तो हमारे संग हैं ही रश्मि प्रभा जी
    एक स्त्री जीवन में कई सारे व्यक्तियों के कर्मों को एक साथ निभाते हुए जीती है।
    आपने पूज्य अम्मा जी के लिए एक बिटिया का स्नेह सदा के लिए स्थापित कर दिया है।
    पूज्य अम्मा जी के आशीर्वाद से आपके समस्त परिवार को ईश्वर अपनी छत्रछाया में रखेंगें
    ऐसा मेरा विशवास है। आपके संग हम सभी कर बद्ध अंजलि दे रहे हैं ' ' एक थी तरू '
    अब हमारे परिवारों में शामिल है।
    - लावण्या की भावभीनी अंजलि

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  2. बहुत प्रभावी प्रस्तुति...नमन

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