शुक्रवार, 22 नवंबर 2013

मेरी नज़र से कुछ मील के पत्थर - 12)




अगर हवा में कही जानेवाली बातों पर
ध्यान नहीं देना चाहिए 
तो उन्हें कहा ही क्यूँ जाये 
ध्यान न देने की सीख से बेहतर है 
 कहने ही नहीं दिया जाये .... हवाएं प्रदूषित होती हैं !
जैसे -
कहते है सब - जैसा किया वैसा पाया !'
कर्म का फल मिलेगा !'
.....
तो ऐसे कथन को अन्यायी के साथ मानें 
या जिसके साथ अन्याय हुआ उसके साथ ?  …… रश्मि प्रभा 

मील का पत्थर वही होता है,जो जीवन देता है - ऊंचाई पर चढ़ जाने से,प्रतियोगिता में अव्वल आ जाने मात्र से कोई मील का पत्थर नहीं होता 
मील के पत्थर ये हैं - मेरी नज़र से 


एक सुलझी डोर से दिखते रहे
एक उलझी सी कहानी बन गए 
एक दोहरी ज़िन्दगी जीते रहे....

हाथ बढ़ते ज़िन्दगी छूने लिए
पर सहमते, रास्तों के मोड़ पर 
ठिठकते पग ख्वाब की दहलीज पर
दो कदम आगे बढ़े, फिर मुड़ गए
एक दोहरी ज़िन्दगी जीते रहे....

एक अंतर में धधकती आग थी
ज़िन्दगी में उलझने की चाह थी 
मगर वो किरदार जो अपना लगे 
दास्ताँ में खोजते ही रह गए 
एक दोहरी ज़िन्दगी जीते रहे....

एक मुझमें ही कोई था अजनबी
कभी अपना था, पराया था कभी
कभी मिलता, फिर चला जाता कहीं
खुद को उसमें ढूंढते ही रह गए
एक दोहरी ज़िन्दगी जीते रहे....

इक कहानी जो सुनानी थी हमें
अपनी ख़ामोशी के खंडहर में कहीं 
ज़िन्दगी के हाशिये पर, लफ्ज़ कुछ 
बनके बस आधी लकीरें रह गए 
एक दोहरी ज़िन्दगी जीते रहे....

जानता मुझमें खुदा, हैवान भी
ज़िन्दगी की सांस भी, शमशान भी
महज़ इक कतरा मैं, औ’ ये कायनात
इसमें हम बहते रहे, बहते गए 
एक दोहरी ज़िन्दगी जीते रहे....


इस ब्लॉग का कहना है -
कविता पढ़ना नदी को पुल से पार करना है. अनुवाद करना कवि के साथ उस नदी में डूब जाना है…
पढ़ना भी अनुवाद ही है, उसी भाषा से उसी भाषा में. ऐसा कहा हैं अर्जेंटीना के लेखक-कवि-अनुवादक होर्खे लुईस बोर्खेस ने. और यह भी कि अनुवाद मौलिक रचना से भिन्न हो सकता है, एक ही रचना के कई सुन्दर अनुवाद हो सकते हैं और अच्छा अनुवाद दूसरी भाषा की मौलिक रचना लगता है, जिसका किसी से कोई लेना-देना नहीं रहता. यह ब्लॉग इन्हीं सब परिभाषाओं में भटकने का और शायद एक दिन इनकी हद से आगे निकल जाने का प्रयास है.

कसम खाता हूँ मुझे उसका नाम तक याद नहीं है,
मगर जानता हूँ उसे क्या कह कर पुकारूँ: मरिया 
कवि जैसा दिखने के लिए ही नहीं केवल, लौटा लाने के 
लिए उस कसबे को, और उसके एकमात्र धूल-भरे चौक को.  
वो भी क्या दिन थे, सच! मैं था एक बेढंगा-सा लड़का,
वह एक ज़र्द चेहरे वाली गंभीर-सी लड़की 
एक दिन, जब मैं स्कूल से घर लौटा तो पता चला 
कि उसकी मृत्यु हो चुकी है मगर उसमें उसकी कोई गलती नहीं थी,
इस कहानी को सुनकर मैं इतनी बुरी तरह से हिल गया 
कि मेरी आँख में से एक आँसू बह निकला.
आँसू!…मेरी आँख से, जबकि मुझे तो हमेशा 
अविचलित रहने वाला लड़का समझा जाता है.
अगर मैं इस कहानी को, जैसी मुझे उस दिन 
सुनाई गई थी, सच मानना चाहूँ,
तो मुझे एक बात का विश्वास करना होगा:
कि वह अपनी आँखों में मेरा नाम लिए मरी थी,
जो कि चक्कर में डाल देने वाली बात है, 
क्योंकि उतनी निकटता तो हम में कभी थी ही नहीं;
वह केवल एक मिलनसार मित्र थी.
हमारी दोस्ती में एक औपचारिक लहज़ा था,
सुरक्षित दूरी थी:
मौसम की बातें, अटकलें लगाना कि 
अबाबील वापिस घर कब लौटेंगी.
मेरी उस से पहचान हुई उस छोटे-से कसबे में ( क़स्बा 
जो अब जल कर राख हो चुका है)
मगर मैं समझ गया था कि जो वह है उस से अधिक वह 
कभी कुछ नहीं होगी: एक उदास, विचारमग्न लड़की.
यह सब मैं इतना साफ़-साफ़ देख सकता था 
कि मैंने उसे दिया एक दैवी नाम -- मरिया 
दुनिया को देखने का मेरा तरीका ऐसा है जो 
हमेशा सत्य के तल तक पहुँचता है. 
शायद उस एक बार बस मैंने उसे चूमा था,
मगर वैसे जैसे दोस्त चूमते हैं एक-दूसरे को, 
बिना पूर्व विचार के और इतना तात्कालिक था वह 
कि उसके कोई और मायने तो हो ही नहीं सकते थे. 
अस्वीकार नहीं कर सकता कि मुझे अच्छा लगता था 
उसका साथ, उसकी शांत अस्पष्ट-सी उपस्थिति 
ऐसी थी जैसे गमले में खिले फूलों 
से आती सौम्य-सी अनुभूति.
उसकी मुस्कान में छिपी-झलकती गहराई 
को मैं कम नहीं आंक सकता  
ना ही अनदेखा कर सकता हूँ कि कैसे वह पत्थरों तक पर 
छोड़ जाती थी एक सुखदायक प्रभाव.
एक चीज़ और स्वीकार करना चाहता हूँ: उसकी 
आँखें रात की सच्ची कहानी कहती थीं.
मैं इन सब बातों को स्वीकार कर रहा हूँ, इस भरोसे पर 
कि आप फिर भी मेरी बात समझेंगे: किसी बीमार मौसी 
के लिए मन में जागी अस्पष्ट-सी संवेदना के सिवाय 
मैंने उसे किसी और तरह से नहीं चाहा.
मगर फिर भी, ऐसा हुआ. मगर फिर भी,
और यह बात मुझे आज तक हैरान करती है,
वह विस्मित करने वाली, व्याकुल करने वाली घटना घटी:
वह अपनी आँखों में मेरा नाम लिए मरी थी.
वह लड़की, वह निर्मल बहुल गुलाब,
वह लड़की, जो रोशनी रच सकती थी.
वे ठीक कहते थे, अब जान गया हूँ मैं, वे लोग 
जिनका जीवन एक अंतहीन शिकायत है
कि यह जो कामचलाऊ दुनिया है जिसमें हम रहते हैं 
इसका मोल एक टूटी टोकरी जितना भी नहीं. 
जीवन से अधिक सम्मान तो कब्र का होता है 
अधिक मूल्य होता है ज़ंग-लगी कील का. 
कुछ भी सच्चा नहीं है, कुछ सदा नहीं रहता, यहाँ 
तक कि  उसको देख पाने के लिए उठाई तकलीफ़ भी नहीं.
आज है चटकीले नीले आकाश वाला बसंती दिन 
मुझे लगता है कि मैं कविता के मारे मर जाऊँगा.
और वह मेरी प्यारी उदास-सी लड़की --
मुझे उसका नाम तक याद नहीं.   
केवल इतना जानता हूँ कि वह इस दुनिया से ऐसे हो कर गुज़री 
जैसे कोई कबूतर पंख फड़फड़ाता हुआ पास से निकल जाता है. 
जीवन में हर चीज़ की तरह,  न चाहते हुए भी,
मैं धीरे-धीरे उसे भूल गया. 


--  नीकानोर पार्रा

नीकानोर पार्रा ( Nicanor Parra ) न सिर्फ चिली के सब से लोकप्रिय कवि माने जाते हैं, बल्कि पूरे लातिनी अमरीका में उनका प्रभाव है, और स्पेनिश के महत्वपूर्ण कवियों में उन्हें गिना जाता है. वे स्वयं को विरोधी कवि ( antipoet ) कहते हैं क्योंकि वे कविता की सामान्य परम्पराओं का विरोध करते हैं. अक्सर कविता-पाठ के बाद वे कहा करते थे  -- मैं अपना कहा वापिस लेता हूँ. लातिन अमरीकी साहित्य की परिष्कृत भाषा छोड़ उन्होंने एक ठेठ  स्वर अपनाया. उनका पहला कविता संकलन "पोएम्ज़ एंड ऐंटीपोएम्ज़ " न केवल स्पेनिश कविता का प्रभावी संग्रह है बल्कि लातिन अमरीकी साहित्य का महत्त्वपूर्ण मीलपत्थर भी है. उनकी कविताएँ ऐलन गिन्ज़बर्ग जैसे अमरीकी बीट कवियों की प्रेरणा बनी. वे कई बार नोबेल प्राइज़ के लिए नामित किए गए हैं. 2011 में उन्हें स्पेनिश भाषा एवं साहित्य का उच्चतम पुरुस्कार 'सेर्वौंत प्राइज़' प्राप्त हुआ.. यह कविता उनके संकलन 'पोएमॉस इ अंतीपोएमॉस' से है. 
इस कविता का मूल स्पेनिश से अंग्रेजी में अनुवाद नाओमी लिंटस्ट्रोम ने किया है.
इस कविता का हिंदी में अनुवाद -- रीनू तलवाड़

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