रविवार, 8 जुलाई 2012

संधियों में जीवन



संधियों में जीवन



लगातार कलह
मानसिक ऊर्जा का
शोषण करती है
परस्पर संवाद रोक कर
आगे बढ़ने के
मार्ग अवरुद्ध करती है
बस इसी लिए
हताशा में
संधिया करनी पड़ती हैं।

संधियों की वैशाखियोँ पर
जीवन आगे तो बढ़ता है
अविश्वासों का मगर
सुप्त ज्वाला मुखी
भीतर ही भीतर
आकार ले कर
भरता रहता है
यह कब फट जाए
आदमी इस संदेह से
डरता रहता है ।

इसी बीच
अहम और वहम
आपस में टकराते है
इस टकराहट में
संधिया चटख जाती हैं
संधियों पर खड़े
आपसी सम्बन्ध
संधियों के टूटते ही
बिखर जाते हैं ।

बहुत पहले
कह गए थे रहीम
"धागा प्रेम का
मत तोड़ो
टूटे से ना जुड़े
जुड़े गांठ पड़ जाए "
आज मगर धागे
गांठ गंठिले हो गए
आदमी अहम के हठ में
कितने हठिले हो गए !


ओम पुरोहित'कागद'

शब्द यात्रा करते हैं और वे इस यात्रा में संवेदना अंवेरते अपना अर्थ पाते हैं । मैं तो बस उन शब्दों का पीछा करता हूँ .... अक्षरों के बीज जाने किसने बो दिए पानी देते-देते हमने जिंदगी गुजार दी । कोरा कागद है मन मेरा और जिंदगी तलाश है कुछ शब्दों की...

5 टिप्‍पणियां:

  1. जीवन का यथार्थ लिख दिया ……………क्या कहूँ इस रचना के लिये शब्द नही मिल रहे ………बस दिल मे उतर गयी।

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  2. लगातार कलह
    मानसिक ऊर्जा का
    शोषण करती है....
    बिलकुल सही समझती भी ....
    मानती भी .... जानती भी हूँ .... !!

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  3. शर्तों पर टिकती हैं सन्धियाँ
    इसीलिये दरकती हैं
    टूटती हैं सन्धियाँ
    सन्धि सुधा का विज्ञापन भी नकली होता है
    कितना भी जोड़ो पर जुड़ती नहीं हैं सन्धियाँ
    न मानो तो औरंगजेब की रूह से पूछ लो
    कैसी-कैसी होती हैं इस दुनिया में सन्धियाँ

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  4. संधियों पर खड़े
    आपसी सम्बन्ध
    संधियों के टूटते ही
    बिखर जाते हैं ।
    बेहतरीन भाव लिए उम्‍दा प्रस्‍तुति ... आभार

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  5. सही बात है, हम ज़िन्दगी में कितने समझौते करते हैं मगर आखिर
    इस टकराहट में
    संधिया चटख जाती हैं
    http://deepakkibaten.blogspot.in/2012/07/blog-post_09.html

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