संधियों में जीवन
लगातार कलह
मानसिक ऊर्जा का
शोषण करती है
परस्पर संवाद रोक कर
आगे बढ़ने के
मार्ग अवरुद्ध करती है
बस इसी लिए
हताशा में
संधिया करनी पड़ती हैं।
संधियों की वैशाखियोँ पर
जीवन आगे तो बढ़ता है
अविश्वासों का मगर
सुप्त ज्वाला मुखी
भीतर ही भीतर
आकार ले कर
भरता रहता है
यह कब फट जाए
आदमी इस संदेह से
डरता रहता है ।
इसी बीच
अहम और वहम
आपस में टकराते है
इस टकराहट में
संधिया चटख जाती हैं
संधियों पर खड़े
आपसी सम्बन्ध
संधियों के टूटते ही
बिखर जाते हैं ।
बहुत पहले
कह गए थे रहीम
"धागा प्रेम का
मत तोड़ो
टूटे से ना जुड़े
जुड़े गांठ पड़ जाए "
आज मगर धागे
गांठ गंठिले हो गए
आदमी अहम के हठ में
कितने हठिले हो गए !
ओम पुरोहित'कागद'
शब्द यात्रा करते हैं और वे इस यात्रा में संवेदना अंवेरते अपना अर्थ पाते हैं । मैं तो बस उन शब्दों का पीछा करता हूँ .... अक्षरों के बीज जाने किसने बो दिए पानी देते-देते हमने जिंदगी गुजार दी । कोरा कागद है मन मेरा और जिंदगी तलाश है कुछ शब्दों की...
जीवन का यथार्थ लिख दिया ……………क्या कहूँ इस रचना के लिये शब्द नही मिल रहे ………बस दिल मे उतर गयी।
जवाब देंहटाएंलगातार कलह
जवाब देंहटाएंमानसिक ऊर्जा का
शोषण करती है....
बिलकुल सही समझती भी ....
मानती भी .... जानती भी हूँ .... !!
शर्तों पर टिकती हैं सन्धियाँ
जवाब देंहटाएंइसीलिये दरकती हैं
टूटती हैं सन्धियाँ
सन्धि सुधा का विज्ञापन भी नकली होता है
कितना भी जोड़ो पर जुड़ती नहीं हैं सन्धियाँ
न मानो तो औरंगजेब की रूह से पूछ लो
कैसी-कैसी होती हैं इस दुनिया में सन्धियाँ
संधियों पर खड़े
जवाब देंहटाएंआपसी सम्बन्ध
संधियों के टूटते ही
बिखर जाते हैं ।
बेहतरीन भाव लिए उम्दा प्रस्तुति ... आभार
सही बात है, हम ज़िन्दगी में कितने समझौते करते हैं मगर आखिर
जवाब देंहटाएंइस टकराहट में
संधिया चटख जाती हैं
http://deepakkibaten.blogspot.in/2012/07/blog-post_09.html