पता नहीं कब कहाँ मैं
मुझसे बिछड़ गयी हूँ
नहीं...किसी भीड़ में नहीं थी
फिर भी खो गयी हूँ !
पहले ढूँढा खुद को मैंने
उस तारीफों से भरे संदूक में
जो प्यार से कभी मिली थीं मुझे ....
अपनों से , अन्जानों से
बोहत संभालकर रखी थी मैंने
सारी की सारी ....यादों के लॉकर में
कुछ झूठी थीं...कुछ सच्ची थीं
छोटी-छोटी ही सही पर अच्छी थीं
मीठी -मीठी उन सौगातों में
सोचा शायद थोड़ी सी मिल जाऊं खुद को
ठीक से ढूँढा मैंने...
पर नहीं मिली मैं मुझको..................
फिर सोचा खोजूं खुद को
कविताओं में...नज्मों में
जो टांक दी थी मैंने....कागज़ के सीने पर ....
लगा ,शायद किसी शब्दों की इमारत तले
जान बूझकर....... दब गयी हूँ ?
या फिर भूल आई हूँ खुद को
गलती से ......किसी अधूरी ग़ज़ल में ?
या शायद बाँध दिया हो रूह को अपनी
किसी रूपक में .....बेवजह ही ...बावली हूँ ना
बहुत ढूँढा मैंने खुद को
लफ्ज़ दर लफ्ज़ ...
खंगाल डाला
ज़ज्बातों के समुंदर को
पर नहीं मिली मैं मुझको............
मेरी परछाईं भी तो लापता थी
रपट दर्ज थी उसकी भी दिल-ओ-दिमाग में
वर्ना उसी से पूछ लेती .....
फिर ख्याल आया
किसी की आँखों में ढूँढूं
शायद वहीँ महफूज़ होंगी
पर उतनी पास कोई कहाँ था …..
परेशां होकर ......दौड़कर फिर गयी
आईने के पास....
सोचा वहां तो ज़रूर पाउंगी खुद को
पर ये क्या …आईना भी खाली था ……
मेरे भीतर की तरह ...इकदम खोखला ....
और फिर नहीं मिली मैं मुझको .........
कबसे ढूंढ रही हूँ खुद को
हाथ की हथेलियों में
ज़िन्दगी की पहेलियों में
बीते हुए कल के अंधेरों में
आने वाले कल के कोहरों में
सब से तो पूछ लिया
सब जगह तो देख लिया ….
नहीं मिल रही ……मैं मुझको …………
नहीं मिल रही ……मैं मुझको …………
किसी ने बताया था मुझे …
मेरा पुराना पता ……
किसी छोटे से सपने के
बड़े से घरौंदे में रहती थी मैं
ख़ुशी -ख़ुशी …….तितलियों जैसी ..
खैर....अब वहां कोई दूसरा किरायेदार रहता है ….
घर लौटी जब थक हारकर
रोई खूब मैं फूंट-फूंट कर …
बोहत देर बाद अचानक किसी ने आकर
(खुदा ही होगा )
आँखों पर जैसे इक चश्मा पहनाया
पलकों पर जमी धूल हटाया
और दिखाया ………….
की किसी कोने में जब
बिखरी-बिखरी सी पड़ी थी मैं
तो माँ-पापा ने कैसे
टुकड़े -टुकड़े तिनका -तिनका जोड़कर मुझे
अपनी दुआओं में .......सहेज कर......... रख लिया था
पाँच साल की गुड़िया जैसे ........
पापा के अक्स की छाँव तले
माँ के आँचल में लिपटी
कितने सुकून से तो थी मैं
दुनिया की सबसे सलामत जगह पर ...
ना आँखों में डर था,ना दिल में बेचैनी
लगा की कहीं खोयी ही नहीं थी मैं कभी
हमेशा से वहीँ तो थी.....
माँ-पापा की दुआओं में............महफूज़!
सौम्या
माँ के आँचल में लिपटी
जवाब देंहटाएंकितने सुकून से तो थी मैं
दुनिया की सबसे सलामत जगह पर ...
ना आँखों में डर था,ना दिल में बेचैनी
लगा की कहीं खोयी ही नहीं थी मैं कभी
हमेशा से वहीँ तो थी.....
माँ-पापा की दुआओं में............महफूज़!
वाह ... प्रवाह युक्त सशक्त लेखन .. भावों का अद्भुत संगम भी है जिसमें ... इस उत्कृष्ट अभिव्यक्ति को पढ़वाने के लिए आपका बहुत-बहुत आभार
बहुत सुन्दर रचना...कोमल से भाव लिए...
जवाब देंहटाएंबधाई सौम्या जी को.
शुक्रिया रश्मि दी...सांझा करने के लिए.
सादर
अनु
कोमल भावो की सुन्दर अभिव्यक्ति
जवाब देंहटाएंना आँखों में डर था,ना दिल में बेचैनी
जवाब देंहटाएंलगा की कहीं खोयी ही नहीं थी मैं कभी
हमेशा से वहीँ तो थी.....
माँ-पापा की दुआओं में............महफूज़!
कितनी सही बात कही आपने ....
सादर नमन !!
पापा के अक्स की छाँव तले
जवाब देंहटाएंमाँ के आँचल में लिपटी
कितने सुकून से तो थी मैं
दुनिया की सबसे सलामत जगह पर ...
ना आँखों में डर था,ना दिल में बेचैनी
लगा की कहीं खोयी ही नहीं थी मैं कभी
हमेशा से वहीँ तो थी.....
माँ-पापा की दुआओं में............महफूज़!
<3 <3
thankyou so much rashmi ji...bauhat bauhat abhar :) :)
जवाब देंहटाएं@others: thanks a lot :)
पढ़वाने के लिए आपका बहुत-बहुत आभार
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर कविता दी है आपने रश्मि जी ।
जवाब देंहटाएंकी किसी कोने में जब
जवाब देंहटाएंबिखरी-बिखरी सी पड़ी थी मैं
तो माँ-पापा ने कैसे
टुकड़े -टुकड़े तिनका -तिनका जोड़कर मुझे
अपनी दुआओं में .......सहेज कर......... रख लिया था
पाँच साल की गुड़िया जैसे ........
पापा के अक्स की छाँव तले
माँ के आँचल में लिपटी
कितने सुकून से तो थी मैं
दुनिया की सबसे सलामत जगह पर ...
ना आँखों में डर था,ना दिल में बेचैनी
लगा की कहीं खोयी ही नहीं थी मैं कभी
हमेशा से वहीँ तो थी.....
माँ-पापा की दुआओं में............महफूज़! sundar ...rachnaa ..