शब्दों को ओस में भिगोकर ईश्वर ने सबकी हथेलियों में रखे .... कुछ बर्फ हो गए,कुछ नदी बन जीवन के प्रश्नों की प्यास बुझाने लगे .................. शब्दों की कुछ नदियाँ, कुछ सागर मेरी नज़र से =
"चीख लेने दो मुझे इस रात
फिर मर जाऊंगा
चरागों का धुंआ कुछ लिख गया
लाचार मौसम की सहम कर बह रही
बहकी सी हवाओं पर
बादल की रजाई ओढ़ ली है रात ने
सुबह सूरज छत से उतर कर आँगन में जब आ जाए
गेंदे जल उठेंगे
रातरानी बुझ रही होगी
तुलसी का पत्ता तोड़ कर तुम ओढ़ लेना धूप को
पलकों में दफ़न जब याद मेरी छलक जायेगी
तो वह रिश्ता बह उठेगा जो कभी ठहरा नहीं था तेरे जीवन में
जो मैं कह नहीं पाया कभी वह रिश्ता बह गया है तेरी आँखों से
नमी तस्दीक करती है
गमी तायीद करती है
मैं मर कर जी गया
तुम जी कर मर गये
सफ़र में साथ देता है कौन ?
बादलों की छाँव जैसे साथ में
हमसफ़र किसको कहूँ ?
चीख लेने दो मुझे इस रात
फिर मर जाऊंगा
चरागों का धुंआ कुछ लिख गया
लाचार मौसम की सहम कर बह रही
बहकी सी हवाओं पर ."
---- राजीव चतुर्वेदी
आजकल हमारे समाज में लोगों के अंदर संवेदनहीनता दिनों दिन बढ़ती ही जा रही है जिसकी पराकाष्ठा है यह दिल्ली में हुआ उस मासूम सी लड़की का सामूहिक बलात्कार, आज शायद सभी के पास एक ही विषय हो लिखने के लिए और वह है दिल्ली की बस में हुआ एक लड़की का सामूहिक बलात्कार, आज हर जगह यही खबर है। छोटे से छोटे समाचार पत्र पत्रिकाओं से लेकर बीबीसी तक, सुबह-सुबह यह सब पढ़कर मन खिन्न हो जाता है कभी-कभी कि आखिर कहाँ जा रहे हैं हम...क्या यही है एक प्रगतिशील देश जहां लोगों के मन से समवेदनायें लगभग मर चुकी है। ऐसा लगता है जैसे लोग संवेदना नाम के शब्द को बिलकुल भूल ही गए हैं और रह गया है केवल एक मात्र शब्द 'वासना' जिसके चलते यह बलात्कार जैसे गंभीर मामले भी बहुत ही आम हो गये है। महिलाएं कहीं भी सुरक्षित नहीं है ना महानगरो में और न ही गाँव कस्बों में, ना रास्ते चलते, न घरों में, फिर क्या दिल्ली, क्या मुंबई, कहीं आपसी रिश्तों को ही तार-तार किया जा रहा है, तो कहीं घरेलू हिंसा के नाम पर स्त्रियॉं को प्रताड़ित किया जा रहा है। कहीं लगातार भूर्ण हत्यायों में होते हिजाफ़े सामने आ रहे हैं, तो कहीं अपने ही घर की स्त्री को लोग वेश्यावृति की आग में झौंक रहे हैं। यहाँ तक की महिलाओं का रास्ते पर शांति से चलना भी मोहाल हो गया है। क्यूंकि कानून तो हैं मगर इस मामलों में कभी कोई कार्यवाही होती ही नहीं, क्या यही है एक प्रगति की और अग्रसर होते देश की छवि? जहां लोग यह कहते नहीं थकते थे कि "मेरा भारत महान"। आज कहाँ खो गयी है इस महान देश की महानता जहां कभी नारी को देवी माना जाता था।
इन सब सवालों के जवाब शायद आज हम में से किसी के पास नहीं, लेकिन क्या इस समस्या का कोई हल नहीं ? आखिर इस सबके लिए कौन जिम्मेदार हैं ?? कहीं ना कहीं शायद हम ही क्यूंकि देखा जाये तो हर अभिभावक अपने बच्चे को अपनी ओर से अच्छे ही संस्कार देना चाहते हैं। लेकिन समाज में फैले कुछ असामाजिक तत्व कुछ लोगों पर ऐसा असर करते हैं कि वह लोग अपनी संवेदनाओं और संस्कारों को ताक पर रखकर अपनी दिशा ही भटक जाते हैं और ऐसा कुकर्म कर बैठते है। अब सवाल यह उठता है कि इस समस्या का हल क्या है सरकार से इन मामलों में किसी भी तरह कि कोई उम्मीद रखना लगभग व्यर्थ समय गंवाने जैसा क्रम बनता जा रहा है। क्यूंकि सरकार ज्यादा से ज्यादा क्या करेगी, बस इतना ही कि इन मामलों के खिलाफ कड़ी कार्यवाही करने का आश्वासन देकर पीड़ित को उसके दर्द के साथ छोड़ देगी मरने के लिए, इससे ज्यादा और कुछ नहीं होना है और यदि हुआ भी तो कोई एक नया कानून सामने आयेगा बस और जैसा के हमारे देश में आज तक होता आया है एक बार फिर दौहराया जाएगा "पैसा फेंको तमाशा देखो" का खेल, क्यूंकि हमारे यहाँ तो ऐसे लोग कानून को अपनी जेब में लिए घूमते हैं। वैसे कहना तो नहीं चाहिए लेकिन फिर भी आज हमारे यहाँ कि कानून व्यवस्था बिलकुल एक वैश्या की तरह हो गयी है। जिसे सरे आम दाम देकर कोई भी खरीद सकता है बस पैसा होना चाहिए। क्यूंकि यहाँ तो कानून के रखवाले खुद भी इसी घिनौने अपराध में लिप्त पाये जाते हैं। आम आदमी के लिए कोई सहारा ही नहीं बचा है न पुलिस न कानून जो देखो भ्रष्टाचार में लिप्त है। कानून की हिफाजत करने वाले खुद ही अपने हाथों कानून को बेचने में लगे हैं।
मेरी समझ से तो ऐसे हालातों से लड़ने के लिए एक बार फिर "नारी" को रानी लक्ष्मी बाई का रूप धारण करना ही होगा तभी कुछ हो सकता है या फिर एक बार फिर इन दरिंदों को उनकी औकात दिखाने के लिए फिर किसी को दुर्गा या काली का अवतार लेना ही होगा। मैं जानती हूँ कहना बहुत आसान है और करना उतना ही मुश्किल मेरी यह बात किसी प्रवचन से कम नहीं, यह भी मैं मानती हूँ। लेकिन सच तो यही है जब तक ऐसे अपराधियों को मौका-ए-वारदात पर ही सबक नहीं मिलेगा तब तक इस तरह के अपराधों में दिन प्रति दिन वृद्धि होती ही रहेगी और यह तभी संभव है शायद जब स्कूलों में पढ़ाई लिखाई के साथ-साथ आत्म सुरक्षा सिखाने का विषय भी अनिवार्य हो और सभी अभिभावक अपनी-अपनी बेटियों को वो सिखाने के लिए जागरूक हों साथ ही अपने बेटों को भी सख़्ती के साथ यह बात सिखाना भी ज़रूर है कि औरत भी एक इंसान है उसे भी दर्द होता है, तकलीफ होती है, इसलिए उसे भी एक इंसान समझो और उसके साथ भी सदा इंसानियत का व्यवहार करो, यह तो भविष्य में किए जा सकने वाले उपाय हैं। क्यूंकि भूतकाल में जाकर तो हम की गई भूलों को सुधार नहीं सकते। मगर हाँ वर्तमान में इतना तो होना ही चाहिए कि अपने देश की कानून व्यवस्था में सुधार हो, कोई ऐसा केस या उदाहरण सामने आए जिसको देखते हुए आम जनता खासकर महिलाएं कानून पर या कानून के रखवालों पर भरोसा कर सके। अतः जब तक लोग कानून से डरेंगे नहीं तब तक यह सब होता ही रहेगा।
हालांकी इस तरह के मामलों में कई महिलाओं का कहना है कि हमने कानून की सहायता लेकर लड़ने की पूरी कोशिश की लेकिन बजाय ऐसे अपराधियों को सजा देने के, उल्टा हमें ही कानूनी चक्करों में ना फँसने की सलाह देते हुए केस वापस लेने की सलाह दी जाती है और जो लोग आखिरी दम तक लड़ने का बीड़ा उठाते हैं। उन्हें ना सिर्फ सामाजिक तौर पर बल्कि मानसिक तौर पर भी इस सबका भारी खामियाजा भुगतना पड़ता है। इसलिए लोग डर जाते हैं और इस तरह के अधिकतर मामले सामने ही नहीं आ पाते, इस सब को देखते हुए मुझे तो ऐसा लगता है कि इस तरह के घिनौने अपराध करने वाले अपराधियों के लिए तो फांसी जैसी सज़ा भी बहुत ही मामूली है, इन्हे तो कोई ऐसी सजा मिलनी चाहिए कि पीड़ित व्यक्ति की तरह यह भी सारी ज़िंदगी उसी आग में जलें। तभी सही मायने में इंसाफ होगा। इन मामलों में तो मुझे ऐसा ही महसूस होता है आपका क्या विचार है....
पल्लवी सक्सेना
मेरे अनुभव (Mere Anubhav)
सेब जब भी
पेड़ से टूटकर गिरा
सबने उसे स्वीकारा
वो हर बार जमीं पर मिला
पर ये देख एक हुआ बेहाल
उसने सेब से किया सवाल
तुम नीचे ही क्यों हो आते
तुम ऊपर क्यूँ नहीं जाते
सेब का उत्तर था कमाल
हल हो गया था बड़ा सवाल
उस शख्स की सेब पर नज़र क्या गई
सेब फिर भी गिरते रहे पर दुनिया बदल गई ....
कितने सपने बुने
कितनी नज़्में लिखीं
सदियों गीतों में पंछी बन
उड़ने की हसरत दिखी
फिर किसी ने सपना सच करने का बीड़ा उठाया
जो कभी ना हुआ था वो करके दिखाया
ना उड़ पाने का मलाल
दिल पे ऐसा वार कर गया
उसने उड़कर ही दम लिया
और समुंदर पार कर गया.....
पत्थरों से बनी आग
और शुरू हुई ये कहानी
हम इंसान, ईज़ाद करते गए
हमने हार न मानी
गलतियों से सीखते गये
खुद को सुधारते गये
गुफाओं कन्दराओं से निकल
अपनी किस्मत संवारते गए
चाँद के उस पार भी पहुंचे हमारे कदम हैं
हुई खूब तरक्की हर तरफ हम ही हम हैं ....
कुछ पैदा करने की ललक
कुछ नया करने की चाहत
नई राह पर चलने की इच्छा
जवाब पाने की हमारी हसरत
ये रचनात्मकता नज़रिये में हो
तो हर परेशानी हल हो जाती है
लीक से हटकर जरा सोचें तो
पहाड़ों से भी राह निकल आती है
.........रजनीश
बारिश तो बहुत होती है मॉनसून में ..... खीज होने लगती है .... पर जब हवा सहमी होती है,तो एक बूंद साड़ी तपिश मिटा जाती है ......... ऐसी ही एक बूंद हैं ये शक्स
wah... sundar manke dhundh ke nikale han didi ne :)
जवाब देंहटाएंyah bhi bahut sundar shrinkhala chal rahi hai ... sundar kavitayen
जवाब देंहटाएंअच्छी चल रही है यात्रा रश्मि दी.
जवाब देंहटाएंबहुत बढिया रचनाओ और रचनाकारों का समावेश
जवाब देंहटाएंमेरी रचना को यहाँ स्थान देने क लिए आभार..."शब्द सेतु" राजीव चतुर्वेदी जी की रचना ने दिल छू लिया बेहतरीन भावभिव्यक्ति...:)
जवाब देंहटाएंआभार...!!
हटाएंआभार...!!
हटाएंएक से बढ़ कर एक रचनाकार
जवाब देंहटाएंहार्दिक शुभकामनायें
आपने लिखा....हमने पढ़ा....
जवाब देंहटाएंऔर लोग भी पढ़ें; ...इसलिए शनिवार 29/06/2013 को
http://nayi-purani-halchal.blogspot.in
पर लिंक की जाएगी.... आप भी देख लीजिएगा एक नज़र ....
लिंक में आपका स्वागत है ..........धन्यवाद!
सच ही है ....
जवाब देंहटाएंलीक से हटकर जरा सोचें तो
पहाड़ों से भी राह निकल आती है
सादर आभार!
अपनी रचना यहाँ देख बहुत खुशी हुई...धन्यवाद !
जवाब देंहटाएंइन मील के पत्थरों से मिलना अच्छा लगा !
जवाब देंहटाएंसभी रचनाएँ लाजवाब ......
जवाब देंहटाएंसुंदर एवम् भावपूर्ण रचना...
जवाब देंहटाएंमैं ऐसा गीत बनाना चाहता हूं...
सुंदर एवम् भावपूर्ण रचना...
जवाब देंहटाएंमैं ऐसा गीत बनाना चाहता हूं...
sundar behtreen
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