धरती का चप्पा चप्पा छानो तभी कोलंबस और वास्कोडिगामा बनने की उम्मीद है, कहते हैं, चाह है तो राह है - मुझे पढ़ने की चाह है, ख़ास कलम की तलाश में निकल पड़ती हूँ, ढूँढ ही लेती हूँ …
आज की ख़ास कलमकार हैं,
और प्यार हो गया
यद्यपि मेरे जीवन में
पूर्वनियोजन था प्रारब्ध का
तुम्हारा पदार्पण
तथापि प्रतिक्षण
प्रति पदचाप
कान जा टिकते हैं
द्वार पर
सुनने को
करने को अनुभूत
तुम्हारा आगमन
जाने क्या परिचय है
तुम्हारे पदचापों का
मेरे कानो से
अनाम है
परन्तु
सर्वथा अंतरंग
कुछ अनाम अंतरंगता भी
बिखेर देती है जीवन में
भीनी सी सुगंध
मादकता से परिपूर्ण
अविदित, अवर्णित
परन्तु अभूतपूर्व तुष्टिदायक
यह विचार मन में आते ही
चिंतन छोड़ कर
जुट जाती हूँ मैं फिर से
तुम्हारी प्रतीक्षा में
और मेरे चहुँ ओर
फूलने लगती हैं
सुगंध की क्यारियाँ
जब हुआ था
हमें परस्पर प्रेम
कहा था तुमने
एक रस-कुण्ड है तुम्हारा प्रेम
निमग्न होना जिसमे
रुचा था मुझे
कहा था तुमने
एक भाव-गिरि है तुम्हारा प्रेम
जिस पर आरोहण
मुझे देता था सुख
कहा था तुमने
तुम अब तक हो
धरातल प्रेम का
और वहीं के होकर
चाहते हो रहना
मैंने कहा था प्रिय
तुम मुझ से ही हो
और
प्यार हो गया
शायद दुनिया फिर बस जाए ....
जंगल-जंगल तुमको ढूँढा
तुम पानी में बैठे थे
जब बारिश का मौसम आया
तब तुम मुझको आये नज़र
जीवन कश्ती
रूह खेवैया
जिस्म समन्दर पार करें
आओ फिर तस्वीर बनाएँ
साँसों का कोलाज भरें
इस दुनिया में इतना कुछ है
इतने रंग कि हैराँ हूँ
तुम तो एक मुकम्मल दुनिया
कौन से इसमें रंग बहें
आड़ी-तिरछी रेखाओं में
हमने सड़कें ढूँढी थीं
कितने ख्वाब सजाये मिलकर
और लकीरों के जंगल में
महलदुमहले ढूंढें हमने
लेकिन जिस्म पसीना बनकर
नदियों से जा मिलता था
नदियाँ रेत बहाती रहतीं
हर चौराहा जंगल-जंगल
हर मैदान में दलदल-दलदल
खुश्क ज़मी को आओ तलाशें
फिर से इसमें फूल खिला दें
फिर से इसमें खुशबू भर दें
शायद फिर से बौर आ जाए
शायद दुनिया फिर बस जाए ............
उसका सच
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तुम्हे बता दूँ एक सच?
जब खिड़की से पलाश का रंग
धूप के साथ इठलाता हुआ
मेरे बिस्तर पर आता है
जब बालकनी में झुक कर चाँद
झूला झुला जाता है
तुम्हारे श्रृंगारदान पर छोड़ी हुई तुम्हारी चूड़ियाँ
जब मेरे हाथों से उलझ कर फर्श पर खनखना कर
बिखर जाती हैं
गोया हर वह चीज
जो है अस्तित्व में
धूप,खुशबू या
तेरे लिए मेरी कसमसाहट
सब कुछ सिमटती हुई
हमेशा जाती हैं तुम्हारी ही तरफ
मानो तुम मेरे लिए ही बनी हो
चलो अब तुमने जब
मुझे अब प्यार करना कम करना शुरू कर ही दिया है
तो मुझे भी अब
अपना थोड़ा प्यार बचा लेना चाहिए
मेरी जिंदगी के मकामों से
गुजरती है जो हवा
तुमसे लसी हुई होती है
और मुझे
ले जा पटकती है
दिल के ऐसे किनारे पर
जहाँ तुमने इरादा कर लिया है
मुझे अकेला छोड़ देने का
उसी किनारे पर
जमी हुई हैं मेरी जड़ें
भूलना मत
तुम ऐसा क्यों सोचती हो
कि तुम मेरी नियति हो
और हर दिन एक फूल
सुबह-सुबह एडियाँ ऊँची कर के
तुम्हारा मुँह चूम लेगा?
ओह मेरी प्यार,
मेरी अपनी
मेरे भीतर
कुछ बुझा नहीं है अब भी
समझो इस सच को
जिन्दा है मेरा प्यार
तुम्हारे प्यार के ही दम पर
अब जब तुम बंद कर रही हो
मुझे प्यार करना
तो सोचता हूँ
मैं भी समेट लूँ अपना प्यार का पिटारा
बंद हो जा सिम सिम
खेल खत्म |
कहते हैं दिल से निकले लफ्ज़ दिल को छूते ही हैं। आपके दिल को मेरी रचनाओ ने छुआ...मेरा सौभाग्य। प्रयास रहेगा आगे भी आप सब को अच्छा पढ़ने को दे सकूँ।
जवाब देंहटाएंइंतज़ार रहेगा
हटाएंदीप पर्व की शुभकामनाएँ ..आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" बुधवार 11 नवम्बबर 2015 को लिंक की जाएगी............... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंBht hi achchha likha hai......sajha krne k liye aanhaaar
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी कलमकार से रूबरू करवाने के लिए शुक्रिया आंटी
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