पढ़ते हुए मीलों की दूरी तय करते हुए ठिठकती हूँ - नायाब पत्थरों पर खुदे एहसास मेरा सुकून बन जाते हैं, और क्षितिज पर अपना नाम दर्ज करते हैं !
कौन कहता है क्षितिज भ्रम है
वहाँ तक पहुँचने के लिए
प्रकृति की प्राकृतिक बातों को समझना होता है
तब क्षितिज पास होता है …
क्षितिज पर दर्ज एक नाम सुरेश चन्द्र
https://www.facebook.com/ sureshchandra.sc
(१)
बचपना कौंधता है...
अचानक ही...
उम्र की स्लाइड से...
मैं पीछे फिसलता हूँ...
मोंटेसरी की प्रार्थनाओं मे...
जा गिरता हूँ...
हाल्फ़ शर्ट की बाईं तरफ...
रुमाल पिन किए हुये...
'सिस्टर क्रिसपिन' हंस देती हैं...
मेरी तोतली 'छोर्री' पर...
'व्रूम' की आवाज़ निकालता हूँ...
हाथ से 'स्टीएरिंग' घूमाता हूँ...
दौड़ पड़ता हूँ, स्कूल तक...
लकड़ी की बेंच पर...
चुरमुर करते हुये...
पार करता हूँ 'अडोलोसेंस'
'बोर्ड्स' की चिंता पेशानी पर लिये...
नहीं दे पाता लाल गुलाब, 'नुज़्ज़त' को...
बेस्ट ऑफ लक कहते हुये, झेंप जाता हूँ...
मेरी प्रैक्टिकल की कॉपी, सोख लेती है,
उसी गुलाब की सूर्ख, दर्दीली पंखुरियाँ ...
मेरा कोई निशान नहीं छूटता उसकी नोटबुक मे...
बस वो मुझमे, कहीं 'दबी' रह जाती है...
पापा के सोंधे सपने...
मुझे उड़ा ले जाते हैं विदेश...
जहां हर 'डिग्री' के एंगल बनाती है...
मंसूबे कातती जवानी...
'करियर' और 'कॉरिडॉर' के बीच...
कॉलेज की लड़की, जिसे...
चूमना नहीं आता...
कुतरती है मुंह मेरा...
अचानक चौंक कर उठता हूँ...
और गिनती से वापस...
आ पहुंचता हूँ गणना मे...
नौकरी से 'बिज़नेस' तक...
चश्मे के काँच पर भाप सा जमता हूँ...
और पोंछ देता हूँ सारी हसरतें...
अधेड़ होती मजबूरियों के लिये...
वो गाने, वो किताबें, वो मंसूबे, वो चाहतें...
वो लोग सारे जो बीत कर, मुझमे पैठे हैं...
कहते हैं... एक बार मुड़ कर, लौट आ 'बेरहम'...
कुछ तो पूरा कर जा, 'अधूरी' कसकती टीस मे... ... .... !!
(२)
कई बार ऐसा होता है...
हम निहायत अकेले होते हैं...
रिश्तों की ठसाठस भीड़ मे...
उम्मीद का बैरियर
एक झटके से टूटता है...
और हम अपने अंदर...
भगदड़ मे कुचले जाते हैं...
कई बार ऐसा होता है...
हम वो कह देना चाहते हैं...
जिसे कह देना...
संस्कार की घुट्टी पर...
नीला फ़ेन ला देता है...
और हम बेहद सेंसिबल हो जाते हैं...
हमारे होने की 'हद' लिए...
कई बार ऐसा होता है...
जब हम बहुत अशांत होते हैं...
स्क्रोल करते हैं...
मोबाइल की पूरी कांटैक्ट लिस्ट...
और किसी एक नंबर को मिला पाना...
तय नहीं कर पाते...
क्यूंकी हम पूरे 'मिले' होते हैं...
अपने ही, हर 'अधूरे द्वंद' से...
कई बार ऐसा होता है...
हम कोई मखौल नहीं बनाते...
तमाशाई दुनिया का...
और उसकी हर खिल्ली पर...
मुस्कुरा देते हैं...
दम घुटते माहौल मे...
क्यूंकी बने रहना वहाँ बेहद ज़रूरी है...
जहां के हम कभी, 'ज़रूरी नहीं' होते...
... कई बार ऐसा होता है... ... ... !! -
(३)
तुम जब...
जानना चाहते हो...
मेरी 'उम्र' कि 'ऊंचाई'...
पूछ बैठते हो... 'किस' तरह, इतने बसंत' ???
मैं नहीं दिखा पाता तुम्हें...
मेरे अंदर
'पतझड़' का 'झड़का'...
किसी भी 'पत्ते का संहार'...
तुम जब...
जानना चाहते हो...
मेरे 'रहस्यों' की 'गहराई'...
'गिनते' हो मेरे 'अवसाद'...
सुनने से 'अधिक'... 'बुनते' हो 'प्रमाद'...
मैं नहीं जता सकता तुम्हें...
अपनी 'जड़ों' कि 'जिजीविषा' पर...
एक भी 'प्रहार'...
तुम जब...
जानना चाहते हो...
मेरी परिधि, मेरे वृत का आकार...
गणना करते हो, त्रिज्या का आधार...
मैं मोल कर औपचारिकता, शिष्टाचार...
कहता हूँ...
तुम्हारी धारणाओं के अनुपात मे, सरकार...
... तुम्हारी जिव्हा के... स्वादानुसार... ... .... !!
बिना लाग लपेट सीधी बात सीधे मन के अन्दर तक जाती हुई.
जवाब देंहटाएंAap ka chayan karna hi sabit kr deta hai ki lekhni zabardast hi nhi utkrisht b hai........
जवाब देंहटाएंसुरेश जी के लिखन पर टिप्पणी के लिए निशब्द हूँ ...वो आपने आप में शब्द और सृजन का भंडार हैं
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