बुधवार, 18 नवंबर 2015

मील के पत्थर (९)





कभी प्यार किया है शब्दों से
जो जेहन में उभरते हैं
और पन्नों पर उतरने से पहले गुम हो जाते हैं
उन शब्दों से रिश्ता बनाया है
जो नश्तर बन
दिल दिमाग को अपाहिज बना देते हैं ...
इन शब्दों को श्रवण बन कितना भी संजो लो
इन्हें जाने अनजाने मारने के लिए
कई ज़हरी्ले वाण होते हैं
लेकिन शब्द = फिर भी पनपते हैं
क्योंकि उन्हें खुद पर भरोसा होता है ……
इंसान जन्म ना ले,शब्द ना जन्म लें - तो न सृष्टि की भूमिका होगी,नहीं जागेगा सत्य और ना ही होगा कोई उत्थान या अवसान, ना होगा कहीं मील का पत्थर !

पनपते शब्द भावों के धागों में आज पिरोती हूँ मैं आपको चंचला पाठक की सोच से  


1)

प्रेम में
जब 
देह पर 
बांचा जा रहा होगा
"गरूड़पुराण" 
तुम्हारी आँखों से 
झर रहे 
"तर्पण" के
स्वरों का 
जलाशय 
उत्ताल तरंगों में 
विस्फारित हो रहा होगा
.........................
रोम -रोम के दाह को
संस्कार में 
नहीं गिना जाता
और 
बेकल करवटें 
युगवर्तन का परिसाध्य भी नहीं
अरी ओ युगार्थिनी!
"शीतांग" से लथपथ 
तुम्हारी ज्वाला का 
मर्मभेदी पुरुष 
आखिर किस 
अघोर निद्रा में 
लीन -विलीन
हुआ पड़ा है ...........?
आखिर कौन 
गतिबद्ध है
प्रेम के बंधन में
मुक्ति के अद्वैत को 
साधने के निहितार्थ ...............!!!



2)

किसी 
उत्ताल लहर पर
लिखा होगा 
'आग'
और 
तुम्हारी 
चिता की
अग्नि शिखा पर 
विलाप करता 
अंजुरी भर
'झरना'
तुम्हारे 
निर्भय
मौन पर
हहराती 
ठाठें मारती
अघोर रौरव पर
सम्मोहन छिड़कती 
काशी के 
नीरव का अर्थ
बघारती .........
ओ मेरे पिता !
इस 'मणिकर्णिका' का
उदात्त वैभव
तुम्हारे शवासन में
समाधिलीन
मेरी
अमलीन
स्मृतियाँ हैं.........


3)

तुम इतने मुमुग्ध 
क्यों हो मरुगंध !
सहज तो न थी
तुझ तक की 
सुदीर्घ यात्रा
अब
जब लौट आई हूँ 
मैं
तो निकलते क्यूँ नहीं. .....
नागौरण की 
विष-प्रवास तंद्रा से
महकना था मुझे. ...
पोर-पोर से झरती 
विषम्भरी की 
असांद्र बूंदों से 
उतर जाना था 
उस तल तक 
जहाँ गाते हो 
तुम
अनाहत सुगंध
हमारे मिलन के स्वर में
अक्षर -अक्षर उन्मुक्त 
मंद्र - मन्थर 
पिघल जाता है 
जब
हिमनद का चरम
नदी की 
शिराओं में

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