शनिवार, 21 नवंबर 2015

मील के पत्थर (१०)





किसी की बेहतरीन रचना मुझे वैसे ही लुभाती है
जैसे चॉकलेट्स 
फूल 
झरने 
किसी की बेहतरीन नम रचना मुझे वैसे ही रोकती है 
जैसे -
कोई रोता बच्चा उँगली पकड़के खींचे  … 

आइये आज यहाँ रुकते हैं  … 
Alive Hopes


१) 

ये जो देह है 
कुदरत के लिफ़ाफ़े हैं 
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अंदर दो चार तहों में लिपटी चिठ्ठी सी आत्मा 
उम्र भर बांचनी होती हैं 
पते ठिकाने के लिए नाम दर्ज़ है 
और धर्म /मज़हब की मोहर का ठप्पा 
बाख़ूब पैबस्त 
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किन्हीं सादे लिफाफों में खूबसूरत संदेशे हैं 
कहीं लिपे पुते लिफ़ाफ़े महज भरमाते हैं 
कोई चिट्ठी देह की खिड़की से झांकती 
कोई निर्दोष मुस्कानों में से 
कोई अंदर चिंदी चिंदी हो चुकी 
तो कोई गुमसुम मायूस है 
कोई लिफ़ाफे तो बहुत बड़े हैं 
जिनमें नन्हीं सी चिट्ठी होते हुए भी नदारद है 
और कहीं चिट्ठियां देहों को ओछा कर देती हैं
इन चिट्ठियों में सुन्दर लेखे से भाग्य सिमटे हैं 
कहीं इबारतों में दर्द के मुल्कों के हलफनामे हैं 
कहीं प्रेम के तराने हैं 
कहीं उम्मीदों के पंख बिंधे पंछी फड़फड़ाते हैं
ये देह 
कुदरत के लिफ़ाफ़े हैं
लिफाफो के बर ख़िलाफ़ 
एक कौम पोस्टकार्ड के फ़क़ीरों की है 
अंदर -बाहर की जद्दोजेहद से अलग 
एक दम सरल , सहज , स्पष्ट !
कई डाकिये के क़िरदार हैं 
लिफ़ाफ़ा देख मज़नून जान लेते हैं 
कई तमाम उम्र संग करती देहों की वेदना से बहरे हैं
कई सरे वक़्त देह आचमनों के लोलुप हैं 
कई मौहब्बत के फाहे लिए बेहद फिक्रमंद हैं 
कई चाक़ू कैंचियों की स्टेनगनों से लिफाफों को भूनने को आतुर 
कई आँखों की पनियाली आग से चिट्ठिओं को सुलगा रहे हैं 
कई सफ़र के संग के वादों के इंतज़ार में हैं
ये देह 
कुदरत के लिफ़ाफ़े हैं
पूरी दुनिया एक डाकघर 
जिसमें बहुत सारी चिट्ठिओं की सॉर्टिंग बाकी है 
कुछ बंटने को बाकी हैं 
कुछ बैरंग टीसों के शोकेस में महफूज़ हैं 
कुछ जरुरी रजिस्ट्रियां हैं 
कोई कबीर भी हैं 
लिफाफे की सूरत 
जस की तस धर देने के हुनरबाज !
ये देह 
कुदरत के लिफ़ाफ़े हैं




2)

कितना महान है !
तिनका होना !!!
तिनका यानि कि डूबते हुए की आख़िरी इकलौती उम्मीद !
किसी का सहारा बनना है तो पहले तिनका होना पड़े
तिनका है ही तीन का -- खुद का , खुदा का , उम्मीदों बाधें दूसरों का
तिनका अर्थात बित्ता से वज़ूद लिए किसी का किसी के लिए खुदा होना
तिनका होना अर्थात उस बित्ते से वज़ूद का भी ग़रूर न होना
गर वज़ूद का ग़रूर होगा 
तो उस के बोझ से भारी से हो ख़ुद ही न डूब जायेंगें
और डूबने का ख़ौफ़ लिए कोई कैसे किसी का सहारा हो सके !
सहारा बनने के लिए कोई भी ग़रूर काम न आ सके 
ग़रूर छोड़ते ही , मुर्दा भी तिनका सा तैरने लग जाता है
.
सवाल ये भी है 
कि जिसका ख़ुद कोई वज़ूद ही न हो 
वो कैसे किसी का सहारा बन सकेगा !
ज़वाब सवाल में ही कहीं समाया हुआ कहता है 
कि जो ख़ुद किसी सहारे (आधार ) का मोहताज़ नहीं 
वही सहारा बन सकता है !
डूबने वाला भी सारे अपने डूब गए सामान की फिक्र से खुद को जुदा कर 
ख़ुद के डूबते जाते शरीर की भी परवाह किये बग़ैर 
अपनी ही साँसों की रस्सियों को हाथों से पकडे रहने की हरचंद कोशिश करता 
जेहन में किन्हीं भूले बिसरे खुदाई मिसरों को हड़बड़ाहट में बुदबुदाता
तिनके को तैरते देख लेता है तो हिम्मत बंधती है 
तिनके का कुछ और खोने के ख़ौफ़ से परे हल्का हो तैर पाते देखना ही उसका सहारा पाना है

तिनका होना अलग बात है 
तिनका होकर सहारा बनना अलग
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1 टिप्पणी:

  1. अद्भुत है यह सृजन संसार... !!
    इस timeline पर बेहतरीन काव्य मोती बिखरे हुए हैं... !!
    *** *** ***
    The poems selected by you are best'est and my favorite as well and your introductory lines with childlike simplicity lends a lovely charm to the blog post!!

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