सोमवार, 2 नवंबर 2015

मील के पत्थर (३)




कई चेहरे जीवंत पांडुलिपियाँ होती हैं, जिनका प्रकाशन मस्तिष्क करता है,  !.... 
पढ़ते हुए शब्द धमनियों में प्रवाहित होते हैं, और बीमार मन, अकेले मन के सहयात्री बन जाते हैं ! मीलों रास्ते पल भर में बदल जाते हैं, एक सारांश सा मिल जाता है अपनी सोच, अपनी चाह का  .... 
मिलिए अंजना टंडन से 

(1 )
सुनो
अगर तुमसे पहले
कभी मैं चला जाऊँ
तो,
मेरी कब्र पर, तुम
रोज़ मत आना,
फूल भी मत लाना,
सिर्फ
घर बैठ कर
चार काम करना....!!!!
सुबह सुबह
अपने बिस्तर पर
मेरी वाली साईड के
तकिये को गले से लगा,
अपनी मधुर श्वासों
से भर देना.....
......
फिर चढी दोपहरी
मेरी कमीज़ की
तह खोल,हाथ फिराना
सूँघना ,सहलाना
फिर से तहाना
और, साथ ही
बाईं तरफ की जेब में
जरा सा हाथ डाल देना,
मेरा धड़कता सा दिल
तुम वहीं पाओगी....
..........
शाम ढले
बाहर बगिचे में
मेरी पसंद के
पेड़ों के झुरमुट तले बैठ
फुदकती, घर लौटती
गिलहरियों को देखना,
उनकी धारियाँ गिनना,
तुम कहती थी ना, कि
" जितनी धारियों वाली
दिखाओगे, उतनी बार मैं
तुमको प्यार करूँगी "
चीटिंग मत करना......
............
और, देर रात
उसी तरह तैयार होकर
एक एक कर जूड़े में से
पिन निकालना,
बुन्दे खोलना
इत्र लगाना
और फिर, आइने में
देख, अपनी आँखों के
सारे शून्य
एक एक करके
जमा करना,
उनसे पहले मेरी
एक खनकती सी, प्यार भरी
मुसकराहट लगा देना,
पूरी रात के लिए वो
काफी होगी.....!!!
और हाँ,
सुबह होने से पहले
पोरों से हथेली पर मेरा नाम लिख
अपनी पलकें रख देना
चार थमे से, घुटते हुए से
आँसू बहा देना...!!!
मेरी कब्र पर
तुरन्त से
चार फूल उग आयेंगें.....
बस और कुछ नहीं करना 
मेरी कब्र पर तुम मत आना...!!!



(2 )
उम्र की सीढ़ियाँ चढ़ते चढ़ते
पहुँच गई थी
उस घाट तक , जहाँ
निर्लिप्तता का एकान्त था,
सरोवर में व्याकुलता नहीं
एक निस्संग तल्लीनता थी,
उस पल में अटकी थी सालती सी
एक लुढ़कते आत्मविश्वास की गंध,
किनारे पर खड़े बरगद के
शुष्क पत्ते निस्पृहता से
पानी की कगार पर
डूबक डूबक के
अंतिम यात्रा पर थे,
दूर दूर तक फैली थी एक
उदास धूप की पीली सुगंध,
इसके पहले कि
अवसाद का विलाप
मुझ पर आलम्बित होता,
सुनाई दिया
जल की सतह पर
फूटते बुलबुलों का हास्य,
ये कैसा एक
हवा का ताजा झोंका,
शायद
जीवन था कहीं तली में,
बस ज़रूरत थी
फेफड़े भर के
एक
गहरी डुबकी की,
इस छोर पर मैं
मंथर ही सही
पर गतिमान हो
निगल लेती हूँ
वो अटकते
हलक के काँटें,
उलटी कलाई से आँखें पौंछ
समुन्दर के वक्षस्थल को
सौंप देती हूँ
अपनी कृशकाया सी नाव ,
कितना कुछ पाना है
कितना कुछ मिलता है
एक और कोलम्बस जन्मता है,
दूर तक फैली थी 
आमंत्रित करती
गुनगुनाती धूप, 
कितना आसान था वो सफर....!!!

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