बुधवार, 8 अगस्त 2012

दास्तान-ए-मुहब्बत





एक दिन अचानक
क्षितिज के उस पार
तेरा कांत रूप दिखा था मुझे।
मैं दौड़ा था तुम्हें रोकने के लिये
अपना अवलम्ब बचाने के लिये।
पर काल के वायु-वृत ने
अपने आगोश में भर लिया था
और फेंक दिया था
क्षितिज के दूसरे किनारे पर।
फिर भी हिम्मत नहीं हारा था
चलता चला था तुम्हारी खोज में
पर जब उस छोर पर पहुँचा
तो इस छोर पर नज़र आई थी तुम।
बैठकर खूब रोया
मंदिरों में जाकर उपासना भी की
पर काल ने मेरी एक ना सुनी
तुम जा चुकी थी अज्ञात शांतवन में।
इस निरीह कुंज में
मैं अकेला रह गया था।
समय के आशुवत् परिवर्तन ने
बहुतों को छीन लिया था मुझसे।
कोई लक्ष्य नहीं, कोई उमंग नहीं
बिन पतवार की नौका की भाँति
लगता रहा था
इस कगार से उस कगार पर।
सहसा गर्जना हुई थी
आकाशतल में
तारे और नक्षत्रवृंदों का समूह
चमकने लगे थे दिन में ही।
यह कैसा दिवस था
मैं कुछ सोच नहीं पा रहा था
हिमालय को बींधते
उल्कापिडों का अग्निवर्तन
विंध्य के जलप्रपातों का
उल्टा (उलटा) प्रवाह।
विज्ञान के सारे सिद्धांत
या ये कहें प्रकृति के जड़वत् नियम
क्या सही, क्या गलत
कुछ निर्धारित करना मुश्किल था।
भास्कर के अविखंडित प्रकाश में
तुम्हार नूर नज़र आया था।
मैंने लपकना चाहा था तुमको
तो देखा वास्तव में
मैं तुम्हारी ओर आ रहा हूँ।
पक्षियों की तरह उड़ते-उड़ते
जब मैं तुम्हारे पास पहुँचा
तो बहुत खुश हुआ था
क्योंकि मैंने अपनी मंजिल पा ली थी
जी कर ना सही मरकर।


शैलेश भारतवासी

13 टिप्‍पणियां:

  1. क्योंकि मैंने अपनी मंजिल पा ली थी
    जी कर ना सही मरकर।
    दिल को छू गई .... !

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  2. Uff... guruwar!! ab aap yahan bhi pahuch gaye..:)kavita lekhan bhi:))
    पर काल के वायु-वृत ने
    अपने आगोश में भर लिया था
    और फेंक दिया था
    क्षितिज के दूसरे किनारे पर।
    kitni baar fenkega...!!
    aap to heera ho:)

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  3. क्योंकि मैंने अपनी मंजिल पा ली थी
    जी कर ना सही मरकर।
    भावमय करते शब्‍द ... आपकी खोज़ और आपका प्रस्‍तुतिकरण ... शत् शत् नमन

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  4. वाह शैलेष जी वाह …………बेहतरीन रचना ………उम्दा भाव संयोजन

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  5. वाह...
    बहुत सुन्दर...
    शैलेश जी को शुभकामनाएं.

    आभार रश्मि दी.

    अनु

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  6. आदि से अंत तक बाँधे सुंदर अभिव्यक्‍ति ! बधाई !

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  7. अंशी को अपने अंश से, कण को विभु से, त्रिन को विराट से, आत्मा को परमात्मा से तो मिलाना ही है. इसी लिए कहा गया है, मृत्यु तक सीमित नहीं है- 'जीवन'. मृतु विलाप का नहीं समीक्षा का विन्दु है, जिसके आगे अमरत्व ka, सात्विक प्रेम का लहराता सिन्धु है. अधूरी प्यास तो वहीँ बुझती है. मगर शर्त है चाह हो, अगाध अभिलाषा.., उत्कृष्ट अभीप्सा... आभार इस मनोहारी दार्शनिक काव्य सृजन के लिए.

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  8. सुन्दर रचना भावपूर्ण ....बधाई

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  9. जी कर ना सही मरकर ...
    शैलेश जी कवितायेँ पढवाने के लिए शुक्रिया .
    कभी जाना ही नहीं था कि वे कवितायेँ भी लिखते रहे हैं !

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