शुक्रवार, 25 मई 2012

जैसे सांस




धूप के कटोरे में पड़ी पानी की बूंदें
भाप बन जाती हैं जैसे
हवा बन जाते हैं मेरे शहर के लोग

शहर एक बुरी हवा था
मुहल्ले-पाड़े जैसे आंच के थपेड़े
बुख़ार के फेफड़ों से निकली
उसांसें थीं गलियां

इन गलियों में
जीवाणुओं की तरह रहते थे लोग
जिनकी आबादी का पता
दंगों, भूकंपों और बम-विस्फोटों में मारे गयों
की तादाद से चलता था

बरामदों में टंगे कपड़े
कपड़े नहीं मनुष्य थे दरअसल
सूखते हुए
इसी तरह जोड़े से छूट गई अकेली चप्पलों, टूटी साइकिलों, बुझ चुकी राहबत्तियों
सेंगदाने की पुल्लियों, गिरकर आकार खो चुके टिफिन बक्सों, उड़ते हुए पुर्जों
चलन खो चुके शब्दों-सिक्कों
और अपने गिरने को बार-बार स्थगित करते
अनाम तारों को भी
मनुष्य मानना चाहिए

सुने जाने के इंतज़ार में हवा में भटकती सिसकियों को भी

इस तरह करें मर्दुमशुमारी
तो उन लोगों की तादाद कहीं ज़्यादा है
जिन्हें हमें मनुष्य मानना है

जितने लोग मरते थे
उतने ही पैदा हो जाते
आम बोलचाल में इसे उम्मीद का
समार्थी कहा जाता

पर जैसा कि मैंने बताया
शहर एक बुरी हवा है
(पानी का जि़क्र तो मैंने किया ही नहीं
पाड़े के नलके पर सिर फूटा करते हैं पानी पर
वो अलग
भले उसे सूखकर हवा बन जाना हो एक दिन
अच्छी, बुरी जैसी भी)

जाने कौन सदी से बह रही है ये हवा
जिसमें ऐसे उखड़ते हैं लोग
जैसे सांस उखड़ती है.


Geet Chaturvedi

8 टिप्‍पणियां:

  1. जाने कौन सदी से बह रही है ये हवा
    जिसमें ऐसे उखड़ते हैं लोग
    जैसे सांस उखड़ती है.
    और न जाने किस सदी तक बहती रहेगी ये हवा .... !!
    दंगों, भूकंपों और बम-विस्फोटों की त्रासदी कब रुकेगी .... ??

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  2. जाने कौन सदी से बह रही है ये हवा ... गहन भाव लिए उत्‍कृष्‍ट अभिव्‍यक्ति

    आपका चयन एवं प्रयास सराहनीय है ... आभार सहित शुभकामनाएं ।

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  3. वाह! बिल्कुल गीत जी के स्तर की कविता है। इस कविता को चुनने के लिए शुक्रिया रश्मिजी..

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  4. धूप के कटोरे में पड़ी पानी की बूंदें
    भाप बन जाती हैं जैसे
    हवा बन जाते हैं मेरे शहर के लोग……………सब कुछ यहीं कह दिया

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  5. धूप के कटोरे में पड़ी पानी की बूंदें
    भाप बन जाती हैं जैसे
    हवा बन जाते हैं मेरे शहर के लोग.........bahut sundar bhav..

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  6. ऐसे उखड़ते हैं लोग
    जैसे सांस उखड़ती है.

    उखड़े हुए की सांस भी बमुश्किल उखडती है

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  7. गीत चतुर्वेदी जी को गद्य और पद्य दोनों में महारत हासिल है ...
    पढ़ती रही हूँ उन्हें !
    यहाँ इस कविता को पढना अच्छा लगा !

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